श्रीराम पुकार शर्मा : “हावड़ा ब्रिज” या “हावड़ा का पुल” के नाम से विश्व विख्यात यह अद्भुत पुल सिर्फ हावड़ा-कोलकाता ही नहीं, वरन बंगालियों की संस्कृति की अटूट पहचान है। वर्ष 1937 से 1942 के बीच बने इस विराट और नायब ब्रिज को आम लोगों के लिए 3 फरवरी 1943 को खोला गया, पर बिना किसी बड़े समारोह के हीI कारण जापानी सेना की बमबारी का डरI
बहुत पहले हावड़ा और कोलकता के बीच आवगमन हेतु हुगली नदी को पार करने के लिए कोई भी ब्रिज नहीं थाI तब केवल नावें ही हुगली नदी पार करने के एकमात्र साधन हुआ करती थींI धीरे-धीरे कोलकता को पूर्वी भारत का प्रमुख वाणिज्य और प्रशासनिक केंद्र के रूप में उभरने पर इसकी आबादी भी बढ़ती ही गईI तब तत्कालीन ‘अंग्रेजी बंगाल सरकार’ ने 1862 में ‘ईस्ट इंडिया रेलवे कंपनी’ के चीफ इंजीनियर जार्ज टर्नबुल को हुगली पर एक ब्रिज बनाने की संभावनाओं को पता लगाने का काम सौंपा थाI
फलतः वर्ष 1874 में 22 लाख रुपए की लागत से नदी पर पीपे का एक पुल बनाया गया था, जिसकी लंबाई 1528 फीट और चौड़ाई 62 फीट थी, जो जलयानों के आवागमन पर बीच भाग से खुल जाया करता थाI
बाद में वर्ष 1906 में हावड़ा स्टेशन के बनने के बाद उस पीपे के पुल पर ट्रैफिक और लोगों की आवाजाही बढ़ने लगी, तो उस पीपे के पुल के साथ ही एक ‘फ्लोटिंग ब्रिज’ बनाने का फैसला भी हुआ थाI लेकिन यह योजना प्रथम विश्वयुद्ध छिड़ जाने के कारण ठप्प हो गया था।
वर्ष 1922 में ‘न्यू हावड़ा ब्रिज कमीशन’ का गठन किया गयाI फिर उसके कुछ वर्ष बाद ही उस पीपे के पुल के स्थान पर एक भव्य पुल निर्माण का निश्चय किया गया और इसके लिए देश-विदेश से निविदाएँ भी आमंत्रित की गईंI वर्ष 1935 में पुल निर्मित करने का वह विराट काम इंग्लैंड के ‘ब्रेथवेट’ और ‘बर्न एंड जोसेप कंस्ट्रक्शन कंपनी’ को सौंपा गया।
फिर क्या था, एक कैंटरलीवर पुल की कल्पना की गई, अर्थात ‘दो मजबूत किनारों पर झूलता हुआ पुलI उस समय इसे बनाने में 26 हजार 500 टन शुद्ध स्टील की आवश्यकता थी, जिसमें केवल 3 हजार टन स्टील की ही पूर्ति इंग्लॅण्ड की एक कम्पनी कर पाई थीI जबकि 23 हजार 500 टन बेहतरीन किस्म के स्टील की सप्लाई स्वदेशी ‘टाटा स्टील कम्पनी’ ने की थीI इस प्रकार अधिकांश स्वदेश धातु पर ही खड़ा है, हमारा यह ‘हावड़ा का पुल’I
जब यह पुल बन कर तैयार हुआ, तब यह दुनिया में अपनी तरह की लम्बाई में तीसरा ‘कैंटरलीवर पुल’ थाI पूरा ब्रिज महज हुगली नदी के दोनों किनारों पर बने 280 फीट ऊँचे दो मजबूत पायों पर लटकते हुए टिका हुआ हैI यह 2150 फीट लंबा और 71 फीट चौड़ा पुल हैI जल सतह पर इसके दोनों पायों के बीच की दूरी 1500 फीट हैI इसकी खासिय़त यह है कि इसके निर्माण में स्टील की प्लेटों को जोड़ने के लिए नट-बोल्ट की जगह धातु की बनी केवल ‘कीलों’ यानी ‘रिवेट्स’ का ही इस्तेमाल किया गया है।
द्वितीय विश्वयुद्ध के दौरान जापानी सेना ने इस ब्रिज को नष्ट करने के लिए इस पर भारी बमबारी भी की थीI लेकिन इसके फौलादी संरचना उस भारी बमबारी को भी शांत रहते हुए सहन कर लियाI इस पुल को कोई नुकसान नहीं पहुँचा थाI उस बमबारी को ध्यान में रखते हुए ब्रिज के तैयार होने के बाद इसका कोई भव्य उद्घाटन समारोह आयोजित नहीं किया गया था, क्योंकि अंग्रेजों ने जापानी सेना द्वारा 1941 में पर्ल हार्बर पर हुए हामले का हश्र देख चूका थे।
उससे अंग्रेज डरे हुए थेI फिर भी पुल को पूरा होने में सिर्फ 4 वर्ष का समय लगा और वह भी युद्ध के वर्षों के दौरान जब मानव व सामग्रियों दोनों की आपूर्ति कम थी। शहर के भीतर कड़ाई से लागू ब्लैक आउट के बावजूद 24 घंटे काम चलते रहा था तथा निर्माण के दौरान कोई बड़ी दुर्घटना नहीं घटी।
‘हावड़ा पुल’ को बनने के बाद 3 फरवरी 1943 इस पर से सबसे पहले एक ट्राम गुजरी थीI वर्ष 1993 में इस पुल पर ट्रैफिक काफी बढ़ जाने के कारण और ट्राम के आवागमन से उत्पन्न कम्पन से इस पुल के सम्भावित खतरे को जान कर इस पुल पर से ट्रामों की आवाजाही को सर्वदा के लिए बंद कर दी गईI आज इस हावड़ा पुल से प्रतिदिन लगभग सवा लाख वाहन औऱ पाँच लाख से भी ज्यादा पैदल यात्री गुजरते हैं।
एशिया और भारत के प्रथम नोबल पुरस्कार विजेता विश्वकवि रवीन्द्रनाथ ठाकुर के सम्मान में इस विख्यात हावड़ा पुल को समर्पित करते हुए 14 जून, 1965 को इस ‘हावड़ा पुल’ को ‘रवीन्द्र सेतु’ का नामकरण कर दियाI यह पुल भारतीय सहित विदेशी विविध साहित्य के साथ ही फिल्म, थियेटर, पर्यटन को भी अपने निर्माण काल से ही काफी प्रभावित करते रहा है।
इस पुल के बिना तो हावड़ा और कोलकाता में मानवीय जीवन और व्यापार की कल्पना ही नहीं की जा सकती हैI यह ‘हावड़ा पुल’ हम सभी भारतीयों और बंगालियों का गर्व हैI अतः इसकी रक्षा-सुरक्षा की जिम्मेवारी हम सब पर भी हैI इसके लिए हमें भी कृतसंकल्प लेना चाहिए और उसे कठोरता से पालन करना चाहिए।