संस्कृत में रचित दिव्य ‘अनुलोम-विलोम काव्य’ ग्रंथ ‘राघवयादवीयम्’

श्रीराम पुकार शर्मा, हावड़ा। अक्षरतः यह शास्त्र सम्मत सत्य है कि ज्ञान-विज्ञान की किरणें सर्वप्रथम इसी भारत-भूमि से ही प्रस्फुटित हुई, जिससे कालांतर में क्रमशः सम्पूर्ण विश्व ही आलोकित और सभ्य हुआ है। आज विश्व की तथाकथित सभ्य जातियाँ जब कन्दराओं-गुफाओं में ही रहा करती थीं, कन्द-मूल भक्षण कर अपना जीवन निर्वाह किया करती थीं और नरेत्तर जीवन यापन किया करती थीं। तब हमारे विद्व ऋषि-मुनि, ज्ञानीजन विविध विषयों से संबंधित दिव्य ज्ञान का प्रसारण किया करते थे। उनके द्वारा निर्मित स्थाप्य कला को देखकर आज भी विद्वजन दाँतों तले अपनी अँगुलियाँ दबा लिया करते हैं। उनके निर्देशन में निर्मित दिव्य अस्त्र-शस्त्रों से हमारे श्रेष्ठ भारत-संतानों ने अनगिनत बार दनुजों का दमन कर मानवता को स्थापित किया है। ज्ञान-विज्ञान-कला जनित सभी उपक्रमों की उत्पति-स्थल यही भारत भूमि ही रही है, जिसे आज विश्व पुनः स्वीकार कर रहा है। आज भी अनगिनत रहस्य हमारी भारत-भूमि की महत्ता को प्रतिपादित करते हैं, जिसे देख-सुनकर विश्व मानव आश्चर्य चकित रह जाता है।

श्रीराम पुकार शर्मा, लेखक

साहित्य-प्रेमी महानुभावों! आपने साहित्य के क्षेत्र में उसके विविध रूपों-स्वरूपों के बारे में तो जरूर सुना होगा और देखा भी होगा। पर कोई ‘अनुलोम-विलोम काव्य’ भी होता है, इस सत्य से आप में से अधिकांश अनभिज्ञ ही होंगे। ‘अनुलोम-विलोम काव्य’ का नाम ही बड़ा अटपटा लग रहा होगा। परंतु इस सत्य को प्रदर्शित करता है, संस्कृत में रचित एक भारतीय दिव्य ग्रंथ ‘राघवयादवीयम्’। इस अद्भुत काव्य-ग्रंथ का नाम ही ‘राघव’ अर्थात श्रीराम जी तथा ‘यादव’ अर्थात श्रीकृष्ण जी, दोनों का ही चरित्र है। यह काव्य-ग्रंथ अपने आप में विश्व का एक आश्चर्यजनक कृति है, जो विश्व के लिए अनुपम है। इसे तो विश्व का प्रथम आश्चर्य जनक मानना चाहिए।

इस काव्य-ग्रंथ के सभी श्लोकों को ऐसे निर्मित किया गया है कि इसके ‘अनुलोम’ अर्थात बाईं से दाहिनी की ओर से पढ़ने पर यह श्रीराम-कथा का विवरण प्रस्तुत करता है, परंतु उसी श्लोक को ‘विलोम’ रूप, अर्थात दाहिनी से बाईं की ओर पढ़ने पर यह श्रीकृष्ण-कथा का दिव्य वर्णन करता है। एक साथ दो भिन्न देव-चरित्रों का वर्णन और वह भी एक ही श्लोक में! इस तरह से इस ग्रंथ को लिखा जाना ही सचमुच अपने आप में बहुत ही रोचक, अद्भुत, आश्चर्य, दुष्कर और दुर्लभ रीति है, जो पावन भारत भूमि पर ही संभव हुआ है। यह सुनकर ही मन में घोर आश्चर्य की अनुभूति होती है। यह अपने आप में विश्व का एकमात्र अजूबा ग्रंथ है, जिसके सम्मुख अनगिनत विश्व-साहित्य महत्वहीन प्रतीत होते हैं।

उदाहरणार्थ ‘राघवयादवीयम्’ के एक श्लोक के ‘अनुलोम’ स्वरूप को देखिए –
‘वंदेऽहं देवं तं श्रीतं रन्तारं कालं भासा यः।
रामो रामाधीराप्यागो लीलामारायोध्ये वासे॥’
अर्थात, ‘मैं मर्यादित उन भगवान श्रीराम के चरणों को प्रणाम करता हूँ, जिनके ह्रदय में सदैव सीताजी विराजमान रहती हैं। जिन्होंने अपनी पत्नी सीता के लिए सहयाद्रि की पहाड़ियों को पार कर लंका जाकर रावण का वध किया था। वनवास का समयकाल पूर्ण कर अयोध्या वापस लौटे थे।’

अब इसी श्लोक के ‘विलोम’ रूप में देखिए –
‘सेवाध्येयो रामालाली गोप्याराधी भारामोराः।
यस्साभालंकारं तारं तं श्रीतं वन्देऽहं देवम्॥’
अर्थात, ‘मैं रूक्मिणी तथा गोपियों के परम पूज्य भगवान श्रीकृष्ण के श्रीचरणों को प्रणाम करता हूँ, जो सदा ही माँ लक्ष्मी जी के साथ विराजमान रहते हैं। जिनकी शोभा समस्त लौकिक-पारलौकिक रत्नों की शोभा को हीन कर देती है।’

इसी तरह से उदाहरणार्थ एक अन्य ‘अनुलोम’ श्लोक को देखिए –
‘साकेताख्या ज्यायामासीद्याविप्रादीप्तार्याधारा।
पूराजीतादेवाद्याविश्वासाग्र्यासावाशारावा॥’
अर्थात, ‘पृथ्वी पर अयोध्या नामक एक प्रसिद्ध नगर है, जिसमें ब्राह्मणों का वास है। वहाँ के सभी ब्रह्मण वेदों के अच्छा ज्ञाता हैं। शहर में समृद्ध व्यापारी लोग भी रहते हैं। यहीं पर सूर्यवंशी राजा अज के प्रतापी पुत्र महाराज दशरथ का दिव्य निवास स्थान है। यहाँ पर आयोजित धार्मिक यज्ञ अनुष्ठानों में देवगण भी भाग लेने के लिए हर्षित पधारते हैं। यह पृथ्वी के सभी नगरों में सबसे महत्वपूर्ण और दिव्य नगर है।’

अब उपरोक्त श्लोक के ‘विलोम’ श्लोक को देखिए –
‘वाराशावासाग्र्या साश्वाविद्यावादेताजीरापूः।
राधार्यप्ता दीप्राविद्यासीमायाज्याख्याताकेसा॥’
अर्थात, ‘द्वारका नगरी, पृथ्वी पर सभी नगरों में सबसे प्रसिद्ध हैं । पुष्ट घोड़ों और हाथियों की प्रचुर मात्रा में प्राप्ति के कारण यह नगर बहुत ही प्रसिद्ध है। यह ज्ञान से महिमामंडित विभिन्न विद्वानों का नगर है। यह श्रीराधा के भगवान श्रीकृष्ण का निवास स्थान है। इस द्वारिका नगरी के सभी लोग आध्यात्मिक ज्ञान से परिपूर्ण हैं। यह समुद्र के बीच में स्थित है।’

यह ‘राघवयादवीयम्’ काव्य-ग्रंथ उसी संस्कृत भाषा में रचित है, जिसे आज के कई तथाकथित भाषाविद मृतप्राय: भाषा कहकर उसे अप्रासांगिक सिद्ध करने की असफल कोशिश करते रहते हैं। जबकि संस्कृत भाषा में रचित तमाम भारतीय ग्रंथ आज भी विश्व के समस्त ज्ञान-विज्ञान का मार्ग-दर्शन करने में पूर्ण रूपेण सक्षम है। चाहे विज्ञान या अंतरिक्ष विज्ञान का क्षेत्र हो, चाहे शल्य-चिकित्सा का क्षेत्र हो, या फिर आध्यात्मिक क्षेत्र ही क्यों न हो। सर्वत्र प्राचीन भारतीय शास्त्र-ग्रंथ ही प्रेरणा-स्रोत रहे हैं।

‘राघवयादवीयम्’ काव्य-ग्रंथ की रचना 17 वीं शताब्दी में दक्षिण भारत के कांचीपुरम के महान काव्य-शास्त्री वेंकटाध्वरि द्वारा ‘रामधुन भजन के छंद’ में किया गया संस्कृत का एक अद्भुत काव्य-ग्रन्थ है। इस ग्रन्थ को ‘अनुलोम-विलोम काव्य’ भी कहा जाता है, क्योंकि ‘अनुलोम’ रूप सीधा क्रम में इसे अध्ययन करने से श्रीराम-कथा और ‘विलोम’ रूप अर्थात, विपरीत क्रम में अध्ययन करने से श्रीकृष्ण-कथा आख्यानक मिलता है। इसके अतिरिक्त एक बात और भी मन-मस्तिष्क को आंदोलित करती है। इसके प्रत्येक श्लोक अनुलोम और विलोम अध्ययन प्रक्रिया में दोनों देव चरित्रों से संबंधित एक ही विषय-वस्तु को चित्रित करते हैं। जैसे कि प्रथम श्लोक के अनुलोम में श्रीराम का, तो उसके विलोम में श्रीकृष्ण की वंदना की गई है। इसी तरह दूसरे उद्धृत श्लोक के अनुलोम में श्रीराम के अयोध्या का चित्रण, तो उसके विलोम में श्रीकृष्ण के द्वारिका का चित्रण किया गया है। वैसे तो इस विचित्र काव्य-ग्रंथ में अनुलोम रूप में श्रीराम-कथा संबंधित 30 श्लोक हैं और विलोम रूप में श्रीकृष्ण-कथा के 30 श्लोक हैं। इस प्रकार इसमें कुल 60 अद्भुत श्लोक रचित हैं।

‘राघवयादवीयम्’ अद्भुत ग्रंथ के रचनाकार महान काव्य-शास्त्री वेंकटाध्वरि का जन्म दक्षिण भारत के आध्यात्म नगरी कांचीपुरम के निकट ही ‘अरसनपलै’ नामक ग्राम में एक सुशिक्षित साधारण परिवार में हुआ था। वेंकटाध्वरि बचपन से ही दृष्टि-दोष से पीड़ित थे। परंतु इसके विपरीत वे बहुत ही मेधावी और कुशाग्र बुद्धि से सम्पन्न थे। वे संस्कृत के प्रसिद्ध चित्रकाव्य पादुका सहस्रम् के रचनाकार प्रकांड विद्वान वेदान्त देशिक के शिष्य थे, जिन्होंने वेंकटाध्वरि को संस्कृत के विभिन्न शास्त्रों की विशद शिक्षा प्रदान की थी। वही वेदान्त देशिक संस्कृत साहित्य में ‘वेंकटनाथ’ के नाम से भी प्रसिद्ध है । उन्होंने ही श्री रामनुजमाचार्य द्वारा स्थापित ‘रामानुज सम्प्रदाय’ को समयानुसार आगे बढ़ाया है।

कालांतर में वेंकटाध्वरि काव्य-शास्त्र में पारंगत होकर संस्कृत के एक महान पंडित बने थे। उन्होंने संस्कृत में 14 अद्भुत ग्रन्थों की रचना की, जिनमें ‘लक्ष्मीसहस्रम्’ सर्वाधिक महत्वपूर्ण ग्रंथ माना जाता है। कहा जाता है कि इस महान काव्य-ग्रंथ ‘लक्ष्मीसहस्रम्’ की रचना पूर्ण होते ही महाकवि वेंकटाध्वरि की दृष्टि-दोष विनष्ट हो गई और वे भौतिक दिव्य दृष्टि को प्राप्त किए थे। हलाकी महाकाव्यकार के संबंध में विस्तृत जानकारी, अभी भी पूर्ण नहीं है, बल्कि आज भी शोध का ही विषय बना हुआ है।

दिव्य ज्ञान से पूर्ण ऋषि-मुनियों, प्रकांड पंडितों के कारण ही प्राचीन काल में ही भारत को ‘विश्वगुरु’ का विशेष आदरणीय पद प्राप्त किया था। परंतु विगत दशक शताब्दी तक आक्रांत जीवन बसर और उत्तम तथा उचित शिक्षा के अभाव में आधी-अधूरी जानकारियों से उत्पन्न हमारी अज्ञानता, अदूरदर्शिता या विदेश-परस्ती के कारण हम अपने उज्जवल अतीत को ही भूल चुके हैं। स्वयं को हम अज्ञानी मानते रहे हैं। किसी विषय-वस्तु को सत्य मानने के लिए पश्चिम की ओर अपना मुख किए रहना हमारी नियति बन गई है। उनके मन्तव्य का बेसब्री से हम इंतजार करते रहते हैं।

परंतु कभी-कभी हमारी अज्ञानता के बादल से छाए अंधकारमय व्योम में किसी विद्वान की विलक्षण प्रतिभा की बिजली ऐसे कौंध जाती है कि विश्व मानव की आँखें चौंधिया जाती हैं। आश्चर्य से उनकी आँखें खुली की खुली ही रह जाती है। एक ऐसे ही विलक्षण काव्य-ग्रंथ है, महाकवि वेंकटध्वरि की अलौकिक रचना ‘राघवयादवीयम्’ है, जिसकी विलक्षणता का दुनिया में कोई सानी नहीं है, यह अनुपम है। इस पर हम भारतीयों को गर्व होना अपेक्षित है।

श्रीराम पुकार शर्मा
अध्यापक व स्वतंत्र लेखक,
हावड़ा – 711101 (पश्चिम बंगाल)
ई-मेल सूत्र – rampukar17@gmail.com

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