सोचे समझे बिना अंधविश्वास
डॉ. लोक सेतिया : सोशल मीडिया की दीवानगी कह सकते हैं पढ़ना नहीं आता, समझना नहीं चाहते मगर सिक्का जमाना चाहते हैं अपनी बुद्धि काबलियत का। किसी को जाने बिना दूर से देख सुनकर उसके अनुयाई बन जाना। व्यक्ति धर्म चाहे ईश्वर की बात हो उसको जाने पहचाने बगैर माला जपना ठीक वैसा है जैसे कोई ढलान पर नीचे चलता चलता बढ़ता रहे भले उस तरफ कोई मंज़िल नहीं हो। सोचना कोई शिक्षा की पुस्तक को पढ़े नहीं, पढ़े भी तो समझे नहीं, अर्थ क्या है क्या होगा परीक्षा का नतीजा। भगवान को धर्म को पाना नहीं समझना आवश्यक है। किसी का उपासक बन जाना व्यर्थ है उसको समझे बिना। चिंतन मनन के बिना आपकी सोच विकसित नहीं होती है।
लोग उपासना करने को आराध्य ढूंढते रहते हैं आराधना का मकसद नहीं जानते। विवेक से काम नहीं लेते सच और झूठ को परखते नहीं डरते हैं, घबराते हैं। जिस को अमृत समझते रहे विष साबित हुआ तो क्या होगा? बस विषपान करते रहते हैं, अमृत है भरोसा कर। ऐसी भक्ति ऐसी आस्था जिसका आधार आत्मज्ञान नहीं कुछ पाने या किसी भय के अंधकार से हुआ हो आपको भटकाता रहता है और आप अपने भगवान बदलते रहते हैं दुनिया में शोहरत नाम देख प्रशंसक बनने वालों के नायक इंसान बदलते रहते हैं। किसी को समझाने ईश्वर मसीहा तलाश करने से अधिक महत्व आपको खुद अपने आप को समझना होता है। खुद को नहीं पहचाने तो ज़िंदगी भर भेड़चाल में शामिल होते व्यर्थ जीते हैं मरने तक।