स्वामी रामतीर्थ जयंती विशेष

श्रीराम पुकार शर्मा, कोलकाता : ‘राम (स्वामी रामतीर्थ) मतैक्य के लिए हैं, मतभेद के लिए नहीं।
देश को इस समय आवश्यकता है एकता और संगठन की, राष्ट्रधर्म और विज्ञान साधना की, संयम और ब्रह्मचर्य की।
इस धरातल पर हर प्रत्यक्ष वस्तु और हर सजीव ही दैवी स्वरूप है, अतः उनकी सेवा ही ईश्वरीय आराधना है।’

ऐसे राष्ट्रवादी और सर्वहिताय आध्यात्मिक उदात्त विचारों के संवाहक स्वामी रामतीर्थ वेदांत की जीती-जागती, चलती-फिरती, सबमें उत्साह भरने वाली साक्षात् मूर्ति थे। अन्य दिव्यात्माओं के अनुरूप ही स्वामी रामतीर्थ जी ने अपने मात्र 32 वर्ष की अल्पायु में ही एक महान् समाज सुधारक, एक ओजस्वी वक्ता, एक श्रेष्ठ लेखक, एक तेजोमय संन्यासी और एक उच्च राष्ट्रवादी जैसे उदात्त स्वरूप को प्राप्त कर उसे यथासम्भव प्रदर्शित भी किया, जो यह साबित करती हैं कि ईश्वरीय उद्देश्य की पूर्ती हेतु लम्बी आयु की नहीं, वरन दीर्घ इच्छाशक्ति की आवश्यकता होती है। उन्होंने भी अपने प्रेरणाश्रोत स्वामी विवेकानंद की तरह युरोपीय देशो मे भारतीय दर्शन व भारतीय संस्कृति का प्रचार-प्रसार किया।

वेदांती स्वामी रामतीर्थ जी का इस धरती पर अवतरण प्रकाश का पर्व दीपावली के दिन वर्तमान पाकिस्तान के पंजाब के गुजरावालां जिले के मुरारीवाला ग्राम में एक धर्मनिष्ठ पण्डित हीरानन्द गोस्वामी के घर 22 अक्टूबर सन् 1873 हुआ था। धार्मिक विचारों से सम्पन्न इस गोस्वामी परिवार ने अपने नवजात बालक का नाम आध्यात्मिकता युक्त ‘तीर्थराम’ रखा था। दुर्भाग्य वश यह बालक बचपन में ही मातृ-सुख से वंचित हो गया। फलतः इस बालक का पालन-पोषण उसकी बुआ की ममतामयी गोद में हुआ था। भूख और आर्थिक विपन्नता के बीच ही तीर्थराम ने बहुत ही लगन के साथ अपनी प्रारम्भिक, माध्यमिक और फिर उच्च शिक्षा पूरी की। बाल्यावस्था में ही उनका विवाह भी कर दिया गया था, जो उनकी सांसारिक जिम्मेवारियों के बोझ को अकारण ही बढ़ा दिया था, पर तीर्थराम ने इन सारी जिम्मेवारियों को बहुत ही सूझ-बुझ और धैर्य धारण कर वहन किया और उस पर विजय भी प्राप्त की।

उच्च शिक्षा के लिए तीर्थराम लाहौर चले गए और अपने कठिन परिश्रम के बल पर सन् 1899 में पंजाब विश्वविध्यालय की बी० ए० की परीक्षा में प्रान्त भर में प्रथम स्थान को प्राप्त किये। फलतः उन्हें 90 रुपये मासिक छात्रवृत्ति भी मिलने लगी। तीर्थराम का प्रिय विषय गणित था, जिसमें सर्वोच्च अंकों से वे एम० ए० उत्तीर्ण हुए और एक कॉलेज में गणित के प्रोफेसर भी बन गये। उनका जीवन और रहन-सहन बहुत ही सरल और सौम्य था। अत्यल्प वस्तुओं में ही जीना उन्होंने बहुत पहले ही अपने बचपन में ही सिख लिया था। वे अपने वेतन के अधिकांश भाग को निर्धन छात्रों के अध्ययन के लिये दे दिया करते थे। प्रो० तीर्थराम की बुद्धिमता, लगन, परिश्रम और मानवतावादी कार्यों से उस कॉलेज के प्रिंसिपल बहुत प्रभावित हुए थे। उन्होंने तीर्थराम को आई॰सी॰एस॰ परीक्षा में बैठने के लिए प्रेरित किया, पर तीर्थराम अंग्रेजों की सेवा करने की अपेक्षा स्वाभिमानपूर्ण जीवन जीते हुए मानव सेवा के कठिन मार्ग को ही चयन किया और उस पर बेरोक-टोक के बढ़ गए।

प्रो० तीर्थराम का अब ज्यादा समय तुलसी, सूर, नानक, आदि भारतीय संतों, शम्स तबरेज, मौलाना रूसी आदि सूफी संतों, गीता, उपनिषद्, योगवासिष्ठ, षड्दर्शन आदि के साथ ही पाश्चात्य विचारवादी और यथार्थवादी दर्शनशास्त्र तथा इमर्सन, वाल्ट ह्विटमैन, थोरो, हक्सले, डार्विन आदि मनीषियों के साहित्यों को विषद अध्ययन में लगने लगा। फिर उन्होंने अद्वैत वेदांत का अध्ययन और मनन प्रारम्भ किया। ठीक इसी बीच लाहौर में उन्हें स्वामी विवेकानन्द की सानिध्यता को प्राप्त करने का सुअवसर मिला, उनके प्रवचनों को सुना, उनसे तीर्थराम अत्यधिक प्रभावित हुए। बाद में द्वारका भ्रमण के समय द्वारिकापीठ के तत्कालीन शंकराचार्य के दर्शन और उनकी विद्वता से भी तीर्थराम बहुत प्रभावित हुए। इन दोनों महापुरुषों के विद्वत वाणी ने तीर्थराम के जीवन के उद्देश्य को ही परिवर्तित कर दिया।

वर्ष 1901 में प्रो० तीर्थराम ने कॉलेज की सम्मानित नौकरी छोड़ दी और मथुरा में हो रहे धर्म सम्मेलन की अध्यक्षता की। आध्यात्मिकता के मार्ग पर उनके चरण बहुत ही तेजी से बढ़ चले। शायद समय कम और मंजिल लम्बी का एहसास उन्हें हो गया था। फिर तीर्थराम ने लाहौर से अन्तिम विदा लेकर अपने परिजनों सहित हिमालय की ओर प्रस्थान किया। अलकनन्दा व भागीरथी के पवित्र संगम देवप्रयाग पहुँचकर उन्होंने पैदल मार्ग से गंगोत्री जाने का मन बनाया। टिहरी के समीप पहुँचकर नगर में प्रवेश करने की बजाय वे कोटी ग्राम में शाल्माली वृक्ष के नीचे ठहर गये। मध्यरात्रि में तीर्थराम को कुछ अजीब सा एहसास हुआ और उन्हें आत्म-साक्षात्कार हुआ। उनके मन से सभी भ्रम और संशय निरंतर जाती रहीं। तीर्थराम अपनी पत्नी व साथियों को वहाँ से आग्रहपूर्वक वापस लौटा दिया और द्वारिका पीठ के शंकराचार्य के निर्देशानुसार केश व मूँछ आदि को त्यागकर सन्यास जीवन ग्रहण कर लिया और स्वयं को ईश्वरीय हेतु पूर्ण समर्पित कर दिया। अब वे तीर्थराम से ‘स्वामी रामतीर्थ’ हो गये।

प्रवास के समय ही तीर्थराम की भेंट टिहरी रियासत के तत्कालीन नरेश कीर्तिशाह से हुई। टिहरी नरेश पहले तो घोर नास्तिक थे। परन्तु स्वामी रामतीर्थ के सम्पर्क में आकर वे भी पूर्ण आस्तिक हो गये। टेहरी नरेश ने अपने श्रद्धेय गुरु स्वामी रामतीर्थ के लिए देवप्रयाग में ही गंगा के किनारे एक कुटिया बनवा दी। बाद में टिहरी नरेश ने जापान में होने वाले विश्व-धर्म-सम्मेलन में अपने गुरु स्वामी रामतीर्थ को जाने के लिए सारी व्यवस्था कर दी। स्वामी रामतीर्थ ने अपने प्रेरणाश्रोत स्वामी विवेकानंद का अनुसरण करते हुए जापान में विश्व-धर्म-सम्मेलन में भाग लेने के उपरांत जापान में ही लगभग एक मास और अमेरिका में लगभग दो वर्ष तक प्रवास किया, फिर मिस्र भी गये। अपने विदेश यात्रा के दौरान उन्होंने पवित्र भारतीय संस्कृति का चतुर्दिक जयघोष किया। वे जहाँ-जहाँ पहुँचे, वहाँ के लोग उनके सन्त स्वरुप और वाणी से काफी प्रभावित हुए और उनका भव्य स्वागत किये।

विदेश से लौटकर स्वामी रामतीर्थ जी ने भारत में भी अनेक स्थानों पर अपने धार्मिक प्रवचन दिये। जो भी उन्हें एक बार देखता, वह उनके व्यक्तित्व की दिव्य आकर्षण शक्ति से अपने आप उनकी ओर खिंचा चला आता और अपने अन्दर एक शान्तिमूलक चेतना का अनुभव करता था। स्वामीजी की वाणी में विश्व के समस्त उपेक्षितों, मातृहीनों और भूखों को अपने में समेट लेने वाला स्नेह बरस रहा था। उन्होंने ने अपने संदेश में सर्वत्र ही कहा, -“आप लोग देश और ज्ञान के लिये सहर्ष प्राणों का उत्सर्ग कर सकते हैं। यह वेदान्त के अनुकूल है। पर आप जिन सुख साधनों पर भरोसा करते हैं, उसी अनुपात में आपकी इच्छाएँ भी बढ़ती हैं। शाश्वत शान्ति का एकमात्र उपाय है, आत्मज्ञान और परोपकार। जिस शक्ति से हम बोलते हैं, उसी शक्ति से उदर में अन्न पचता है। जो शक्ति एक शरीर में है, वही सब शरीरों में है। जो जंगम में है, वही स्थावर में है। सबका आधार है, हमारी आत्मा। अपने आप को पहचानो, तुम स्वयं ईश्वर हो।”

‘टिहरी’ स्वामी रामतीर्थ जी की आध्यात्मिक प्रेरणास्थली और मोक्षस्थली दोनों ही रही थी। स्वामी जी जीवनगत सभी यात्रों को पूर्णता प्रदान कर पुनः टिहरी लौट आये और 17 अक्तूबर, 1906 को पुनः प्रकाशपर्व अर्थात दीपावली के दिन ही उन्होंने मृत्यु के नाम एक सन्देश को लिखकर देवप्रयाग में देवनदी गंगा के पावन जल में जलसमाधि लेकर ईश्वर में सदा के लिए लीन हो गए।

स्वामी रामतीर्थ जी राष्ट्र उन्नति के लिए देश में सर्वाधिक प्रचलित हिन्दी के प्रबल समर्थक थे। उनका मानना था कि राष्ट्र की आजादी और उन्नति करने की क्षमता केवल मात्र हिन्दी में ही निहित है। उन्होंने अपने एक पत्र के माध्यम से महान क्रांतिकारी लाला हरदयाल को लिखा था, -” हिन्दी में प्रचार कार्य प्रारम्भ करो। वही स्वतन्त्र भारत की समृद्ध राष्ट्रभाषा होगी।” स्वामी रामतीर्थ जी के जीवन का प्रत्येक पक्ष आदर्शमय था, वे आध्यात्मिक विलक्ष्ण प्रतिभा के धनी सन्त होने के साथ-साथ एक आदर्श विद्यार्थी, आदर्श शिक्षक, आदर्श गणितज्ञ, आदर्श समाज-सुधारक व देशभक्त, दार्शनिक कवि और प्रज्ञावान सन्त थे। वे हिन्दू धर्म के साथ-साथ भारतीय उज्ज्वल संस्कृति के प्रबल उद्घोषक भी थे।

श्रीराम पुकार शर्मा

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