श्रीराम पुकार शर्मा का निबंध : सत्यानाशी

श्रीराम पुकार शर्मा

‘सत्यानाशी’ यह भी कोई नाम हुआ? बड़ा ही अजीब नाम है इसकाI फिर जिसका नाम ही ‘सत्यानाशी’ हो, उससे कोई क्या उम्मीद रखेगा? पर ऐसी बात नहीं हैI नाम के अनुकूल ही हर किसी का व्यवहार और व्यक्तित्व भी हो जावै, तब तो यह ‘जन्मभूमिश्च स्वर्गादपि गरीयसी’ अर्थात ‘जन्मभूमि स्वर्ग से भी महान हैं’ कब की बन गई होतीI पर हमारी वसुंधरा को कम से कम इस युग में तो ऐसा सौभाग्य प्राप्त नहीं ही हुआ है और आगे की बात कुछ कह नहीं सकताI

वसंत के सुखद आगमन के साथ ही खेत-खलिहान से लेकर सड़क के किनारे, मैदानों में, परित्यक्त स्थानों में अर्थात सर्वत्र खर-पतवार के रूप में यह छोटा-सा पौधा ‘सत्यानाशी’ दिख ही जाता हैI कैसी विचित्र बात है कि यह अपने सर्व अंग पर कंटक को धारण किये हुए भी शिशु सदृश दुनियादारी से विमुख सर्वदा प्रसन्नचित लहलहाता ही दिखता हैI नीचे से ऊपर तक हरीतिमा युक्त चौड़े, परन्तु खंडित पत्तों को और अपने शीर्ष पर वासंती प्रिय पीले रंग के पुष्पों की पगड़ी धारण किये हुए अत्यंत ही आकर्षक लगता हैI पर अपने काँटेदार स्वरूप के कारण यह सबसे त्याज्य हैI संभवतः इसीलिए इसे ‘सत्यानाशी’ जैसे घृणास्पद नाम प्राप्त हुआ हैI

भले ही तन पर चतुर्दिक काँटों का अधिवास हो, पर इसका अन्तः अत्यंत ही कोमल होता हैI कितनी कठिन तपस्या है, चतुर्दिक काँटों के बीच रह कर मुस्कुरानाI यह अपने सीमित जीवन-लीला को नफरत में नहीं, बल्कि हँसी-खेल में ही बिताना श्रेयकर मानता है। वसंत ऋतु के सुखद दिनों के आगमन के साथ ही यह धरती पर अवतरित हो जाता है, पुष्पित होता है और शुष्क फगुनाहट तक तो यह अपने हाथों में चौकोर फलों को लटका लेता हैI फिर चढ़ते चैत्र माह में ही अपने सीमित जीवन-चक्र को पूर्ण कर सुख कर काँटेदार कंकाल सदृश्य बन जाता हैI

इसके किसी भी भाग को तोड़ने से स्वर्ण धार स्वरूप पीला रस निकलता हैI इसके फल में राई के समान छोटे-छोटे काले-काले रंग के अनगिनत बीज भरे रहते हैं। पर इसका नाम तो अजीब है न, ‘सत्यानाशी’I
सच पूछिए तो आखिर नाम में ऐसा रखा ही क्या है? नाम तो सामाजिक परिचय का एक आधार मात्र ही है, और कुछ नहींI ‘रामभज’ और ‘कृष्णचन्द्र’ नाम के व्यक्ति भी नास्तिक हो सकते हैंI पूजा-पाठ और मंदिरों से उनका दूर-दूर तक कोई सम्बन्ध नहीं भी हो सकता हैI जबकि गरीबदास धनाढ्य सेठ हो सकता है और लखपतिया दाने-दाने के लिए मोहताज हो सकती हैI

अब मेरे ही एक ग्रामीण ‘गनऊरी’ जी को देख लीजिएI ‘गनऊरी’ का शाब्दिक अर्थ पुस्तकों में ढूंढने का बहुत प्रयास किया, पर न मिलाI ग्रामीणों से ही पता चला कि ‘गनऊरी’ शब्द में ‘गनऊरा’ मूल रूप है और ‘ई’ प्रत्यय युक्त होकर ही ‘गनऊरी’ शब्द बना हैI ‘गनऊरा’ घर-द्वार के बुहारन से प्राप्त वर्ज्य पदार्थों को कहा जाता है, जिसे घर के बाहर कोई निश्चित स्थान पर इकट्ठा किया जाता है और बाद में उसे खेतों में खाद के रूप में फैला दिया जाता हैI फिर भी किसी भले आदमी का नाम ‘गनऊरा’ या ‘गनऊरी’, कहाँ तक सार्थक है?

भला कोई ‘गनऊरा’ से कैसे उत्पन्न हो सकता है? पता चला कि उनके जन्म के पूर्व उनके दो सहोदर जन्म के पश्चात् ही मर गए थेI तब ग्रामीण टोटके के अनुरूप जन्म के साथ ही नवजात को ‘गनऊरा’ पर फेंक देने, फिर वहाँ से उसे अपना लेने की सलाह दी गईI अब कोई भला अपने नवजात शिशु को ‘गनऊरा’ पर क्या फेंकेगा? हाँ, उन्हें ‘गनऊरा’ पर कुछ पल के लिए अवश्य सुरक्षित रख दिया गया होगा, जहाँ से उनके पिता उन्हें उठाकर अपने कलेजे से लगा लिए होंगेI

लेकिन माना यही गया कि उन्हें ‘गनऊरा’ से प्राप्त किया गया हैI अतः प्राप्ति स्थान के अनुकूल ही ‘गनऊरी’ शब्द ही उनके नाम का पर्याय बन गया है और यही ‘गनऊरी’ नाम पर समाज ने भी अपनी मुहर लगा दी हैI अब तो उसपर सरकारी प्रशासनिक मुहर भी लग चुकी हैI पर नाम के विपरीत ग्रामीण संस्कृति के अनुकूल ही वे दिल के बहुत ही भले इंसान हैंI

आज ही मेरे कुछ मित्रों में इस लघु काँटेदार पौधे को देख कर इसके नाम को लेकर कुछ खिच-खिच हो गईI मेरे कुछ बनारसी मित्र हैं, वे तो इसके ‘भड़भांड’ और ‘भटभटवा’ के नाम पर ही अड़ गयेI जबकि एक बंगाली मित्र ‘शियालकाँटा’ और ‘बड़ो सियालकाँटा’ नाम पर अड़ा रहाI इसी तरह से गंगा दियरा क्षेत्र के एक मित्र ने इसे ‘धमोई’ नाम से पहचाना I फिर मन में आया कि क्या इसके नाम को केवल अपने मौजूद मित्रों द्वारा स्वीकृत नामों तक ही सीमित रखें? कदापि नहींI

बल्कि यह पौधा तो पूरी भारत भूमि पर ही फैला हुआ हैI विदेशीं में भी इसकी उपस्थिति हैI ऐसे में जिन प्रान्तों के लोग मेरे इर्द-गिर्द मौजूद नहीं हैं, उनकी बातों को भी तो स्मरण रखना सामाजिकता ही हैI अतः उनके समाज द्वारा इसके अन्तः और वाह्य स्वरूप के अनुकूल स्वीकृत नाम यथा, स्वर्णक्षीरी, कटुपर्णी, कांटेधोत्रा, दारुड़ी, सियालकाँटा, इट्टूरी, कुडियोट्टी, दात्तुरी आदि नामों को क्योंकर नजर अंदाज कर देवेंI

नाम में उनकी क्षेत्रीयता की मिठास होती हैI अपनत्व का आविर्भाव होता हैI अपने विचारों के आरोपण में कम से कम अन्तः संतुष्टि तो अवश्य ही प्राप्त होती हैI
हो सकता है कि यह झाड़ीदार ‘सत्यानाशी’ अपने काँटेयुक्त सर्ववाह्य अंगों से दूसरों को केवल नुकसान ही पहुँचाता रहा होI पर यह दूसरों के पास उन्हें नुकसान पहुँचाने दौड़ा थोड़े ही जाता हैI पर स्वयं ही कोई आकर इससे जबरन रगड़ा करे, तो फिर यह बेचारा क्या करे? आखिर अपनी जान किसे नहीं प्यारी होती है? फिर तो दुर्भाग्य का मारा यह बेचारा ‘सत्यानाशी’ नाम से ही बुद्धिजीवी समाज में पंजीकृत हो गया और यह आदमी ही क्या, बल्कि पशु-पक्षी आदि से भी पूर्णतः उपेक्षित और अस्पर्शीय ही रहा हैI

लेकिन इसके उन्नत शिखर पर पाग की तरह इसके पीताभ पुष्प अत्यंत ही सुंदर होते हैं I दूर से ही सहृदय के मन को आकृष्ट कर पाने में पूर्ण सक्षम हैI तन न सही, पर सुंदर पुष्पों के आधार पर तो इसे कोई सुंदर व्यंजक नाम दिया जा सकता थाI यह काँटों से युक्त झाड़ीदर पौधा वनस्पति जगत में भी अत्यंत ही तुच्छ और उपेक्षित माना जाता हैI पर क्या इसका सामाजिक तिरस्कार उचित है?

मध्यकालीन संत शिरोमणि महात्मा कबीरदास भी इसी ‘सत्यानाशी’ के समान ही तत्कालीन शासक वर्ग, धर्माचार्यों और महजबियों के लिए त्याज्य तथा उपेक्षित ही थेI वाह्य दृष्टि से वे भी कठोर वचनों सदृश्य काँटों से सुसज्जित ही तो थे, जिन्हें चाह कर भी तत्कालीन क्रूर शासक सिकंदर लोदी स्पर्श तक न कर सका I धर्म के ठेकेदार बने घूमते-फिरते पंडितों और मुलाओं को भी उनके काँटे निरंतर सलते ही रहेंI पर ऊपर से काँटे की तरह कठोर और तीखा दिखने वाले कबीर के अन्तः में भी अनगिनत कोमल पीले-पीले सुंदर पुष्प खिले हुए थे, जो साधारण जन-मानस के संतप्त ह्रदय को तृप्त करते थेI इसी ‘सत्यानाशी’ की भांति ही उनके अन्तः में भी स्वर्ण-रस प्रवाहित होते ही रहते थे, तभी तो वह वाह्य रूप से इतने कठोर और तीखे थेI

काँटेदार तो गुलाब भी होते हैं, पर उसे तो कोई घृणास्पद नाम से नहीं पुकारता, उसके पुष्पों के आधार पर उसे सुंदर और सर्वग्राह्य ‘गुलाब’ नाम प्राप्त हैI उसे घर-आँगन, बाग-बगीचों तथा जन संकुलता के बीच श्रेष्ठत्तम स्थान प्राप्त है। सब कोई उसे सम्मानपूर्वक अपने ह्रदय से लगाते हैं। तो फिर इस काँटेदार पौधे को क्यों नहीं प्रेम प्राप्त है? खैर, यह तुच्छ और उपेक्षित पौधा मनुष्य जाति के समान चिन्तनशील या विवेकशील नहीं है, वरना यह भी अपने प्रति उपेक्षा के विरोध में जब तब सड़कों पर, रेल की पटरियों पर और संसद भवनों के सामने अपने दल-समूह के साथ बैठकर भूख हड़ताल कर बैठताI क्या किया जाय, मानवीय मानसिकता ही ऐसी है!

हाँ, एक बात समझ में आती है कि अनावश्यक रूप से अवसर-बेअवसर यत्र-तत्र दिखने वालों को समाज में कभी सम्मान नहीं दिया जाता हैI उसे तो मिट्टी का भाव भी नसीब नहीं हो पाता हैI बल्कि शानों-सौकत से रहने वालों को, नेता-अभिनेता की तरह दिखावे की जिंदगी वसर करने वालों को और बहुत इन्तजार कराने वालों को ही समाज विशेष सम्मान प्रदान करता हैI चाहे उनका अन्तः कितना ही मैला क्यों न होI झूठ और अभिनय अति आकर्षक हुआ करते हैंI अतः लोग उनसे ज्यादा धोखा खा जाते हैंI लोगों में सच की सामना करने की क्षमता तो होती नहीं है, क्योंकि सच तो कडुवा, कठोर और तीखा ही हुआ करते हैंI

तथाकथित टोपीधारियों, श्वेत वस्त्रधारियों और तंदुल उदर वालों को गरीब किसान-मजदूर कभी नहीं सुहाते हैं, क्योंकि उनके काँटेदार कंकाल के समान सत्य शरीर उनके बदबूदार खून-पसीने से सने होते हैंI पर उस बदबूदार खून-पसीने से ही सने उनके उत्पादनों का व्यापार कर तथाकथित तंदुल लोग गाँधी-टोपियों और श्वेत वस्त्रों को अपमानित करते रहते हैंI उन्हीं से उनके तंदुल उदर की पूर्ती होती हैI लोग अक्सर काँटे को देख कर दूर भागते हैं, अर्थात सच से भी वे अनायास दूर भाग जाते हैंI

जबकि सत्य ठोस होता है, कठोर होता है, पर वह कोमलता का अभिनय और धोखे का कदापि व्यापार नहीं करता हैI अतः उससे धोखा खाने जैसी विकृत सम्भावना बहुत कम ही होती हैI अपने घुमक्कड़ जीवन को निचोड़कर ‘अज्ञेय’ जी ने भी काँटे के स्वभाव से आकर्षित होकर इसकी सत्यता को स्वीकार और ग्राह्य प्रमाणिकत किया है – ‘काँटा कठोर है, तीखा है, उसमें उसकी मर्यादा हैI मैं कब कहता हूँ, वह घट कर प्रान्तर का ओछा फूल बनें?’

यदि आप भी इस ‘सत्यानाशी’ के वाह्य काँटेदार स्वरूप को देख कर विचलित हो गए हैं, तो आप भी संकुचित ह्रदय वाले जरूर ही धोखा खा गएI सच तो यह है कि इस ‘सत्यानाशी’ पौधा के पंचांग (जड़, तना, पत्ते, फूल और फल) विशेष औषधीय गुणों से परिपूर्ण होते हैंI अतः यह आयुर्वेदिक चिकत्सा में अपना महत्वपूर्ण स्थान रखता हैI कितना भी पुराना घाव, जखम, खुजली या फिर कुष्ठ रोग क्यों न हो, यह ‘सत्यानाशी’ उसे समूल दमन करने में यह पूर्ण सक्षम है I

इसके अतिरिक्त कफ-पित्त जनित दोष, माँस-पेशियों में सूजन, बुखार, अनिद्रा की परेशानी, पेशाब से संबंधित विकार, पेट की गड़बड़ी, आँखों की रतौंधी, चर्म जनित सफ़ेद दाग, साँस सम्बन्धित बीमारी, खाँसी-दमा, पेट दर्द, जलोदर, पीलिया, मूत्र-विकार, विसर्प रोग, रक्तश्राव, नपुंसकता, मलेरिया आदि के लिए भी यह काफी फायदेमंद हैI एक साथ इतनी बीमारियों का निदान, वह भी एक साधारण तुच्छ और उपेक्षित पौधे सेI कहीं यह ‘रामकथा’ से सम्बद्ध ‘संजीवनी’ से तो सम्बन्धित नहीं है! फिर भी पता नहीं, बुद्धिजीवी लोग आदतन इसे ‘सत्यानाशी’ विशेष्य ही क्यों प्रदान किये हैं?

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