श्रीराम पुकार शर्मा की कहानी : प्राण वाहक

प्राण वाहक
श्रीराम पुकार शर्मा

“उस्ताद! आपने जैसा कहा था, वैसा ही पाँच पैकेट भोजन पास के होटल से बँधवा लिया हूँ, साथ में पीने वाला पानी का एक बड़ा जार भी रख लिया हूँ और कुछ जरुरत हो, तो बताओ, जुगाड़ कर लेता हूँ।” – आक्सीजन गैस टैंकर के 22 वर्षीय खलासी शंकर पासवान ने कहा, जो पिछले तीन वर्षों से टैंकर ड्राईवर उमापति सिंह के साथ गाड़ी पर रह रहा है। यह गाड़ी ही उसका घर-द्वार है, सड़कें और ढाबें ही उसके गली-मुहल्लें और उसी के तरह अन्य कई ट्रक-ड्राईवर तथा खलासी ही उसके भाई-बन्धु हैं। कभी-कभार जब गाड़ी उसके गाँव की ओर से होकर जाती है, तब वह कुछ घंटों के लिए अपने घर-परिवार से मिल लेता है। प्रारम्भ में बड़ा अजीब सा लगता था, पर अब वह इस जीवन का आदि हो गया है। गाड़ी सड़क के किनारे जहाँ खड़ी हुई, वहीं उसकी छाँव में उसका रसोई-घर तैयार हो जाता है। फिर कुछ ही समय में अपने और अपने उस्ताद के लिए भोजन तैयार। शुरुआत में कई महीनों तक उसे भोजन बनाना बड़ा ही झंझट का कार्य लगता था, पर अब वह इसके लिए अभ्यस्त हो गया है। उस्ताद को होटल का खाना बिलकुल ही पसंद न था। लेकिन कभी-कभार समयाभाव और मजबूरी वश होटल से खाना बंधवा ही लेना पड़ता है, जैसा कि आज की मजबूरी है।

“ठीक है, तुम्हें और कुछ चाहिए तो ले लो, आज हमारी यह गाड़ी कहीं रुकेगी नहीं। यहाँ से चलकर सीधा लखनऊ के जनरल अस्पताल में ही जाकर रुकेगी।” – आक्सीजन गैस टैंकर ड्राईवर उमापति ने कहा। आज सबेरे ही वह अपने सहायक शंकर सहित अंबिकापुर से टैंकर गाड़ी को लेकर लौटा है। मालिक के आफिस में जब पहुँचा, तब अपने मालिक श्याम बिहारी पाण्डेय जी को बहुत ही चिंतित देखा। पूछने पर पता चला कि उड़ीसा सरकार की ओर से डी.एम. साहब ने उनके पास एक निवेदन पत्र भेजा है, जिसमें लिखा है कि आक्सीजन की कमी के कारण अस्पतालों में कोरोना मरीजों की लगातार मौत हो रही है। लखनऊ के जनरल अस्पताल को यदि कल तक आक्सीजन न मुहैया करवाया गया, तो अस्पताल के लगभग 43 और कोरोना मरीजों की मौत निश्चित है।

ड्राईवर उमापति की आँखों के सामने साल भर पहले की घटना तरोताजा हो गईI वह अपनी तीन साल की बीमार बेटी कुसुम को अपनी गोद में लिए बेहताश भागा जा रहा हैI उसकी और उसकी पत्नी कमला की साँसें फूल रही हैं, पर एक पल की भी देरी उसकी फूल-सी कुसुम को उनसे दूर कर देगी। अस्पताल पहुँच ही गए, डॉक्टर ने जाँच कर बताया कि इसे ‘डिप्थीरिया’ है, इसे सांस लेने में परेशानी हो रही है। इसे तुरंत ही आक्सीजन देना जरुरी हैI पर हमारे इस प्रांतीय छोटे से अस्पताल में ऐसी सुविधा नहीं हैI इसे तुरंत ही लेकर जिला अस्पताल जाओ, वहाँ सारी व्यवस्था है।

क्या करे? पास के पूरे पैसों का दाव लगाकर एक ऑटो रिक्शा किया और डेढ़ घण्टें के अन्तराल में ही जिला अस्पताल पहुँच गया, पर शायद देर हो चुकी थीI डॉक्टर ने बच्ची के नब्ज को टटोला, कान पर आला चढ़ाया, बच्ची की छाती और पीठ पर उसे इधर-उधर घुमाया। फिर निराश होकर अपने कान से आला उतारते हुए कहा, – “देर हो गई, अब कुछ नहीं किया जा सकता है।”

‘देर हो गई’ बड़ा ही सरल कथन था, पर किसी कठोर चट्टान की भांति उमापति और कमला के कलेजे पर लगा। उमापति इस हृदयाघात को तो मन भारी कर सह भी गया, पर मातृ हृदया कमला के लिए यह क्षण असहनीय हो गई। वह एक बार जोर से चीखी, – ‘कुसुम’… फिर कटे हुए किसी पेड़ के समान अपनी निष्प्राण कुसुम के शरीर पर ही सदा के लिए गिर पड़ी। उसकी भी आँखें खुली की खुली ही रह गई। डॉक्टर तुरंत ही अपने आला को ठीक करते हुए कमला के शरीर पर फेरा। फिर कान से आला को हटाते हुए कहा, – ‘अफ़सोस! यह भी अब न रहीं।’

‘देर हो गई’ और ‘अफ़सोस’ की वे नरम पर बज्र-सी घातक आवाजें आज फिर से उमापति के कानों में गूँजने लगीं। पत्र पर उसे कई बच्चें एक साथ तड़पते जान पड़े। उसे लगा कि उसकी फूल-सी कुसुम भी उन्हीं में से एक है और चिल्ला कर ‘पापा’-‘पापा’ की रट लगाये जा रही है, मन तड़प उठा।
मन ही मन उसने कुछ दृढ़ निश्चय किया, – ‘अबकी देर नहीं करूँगा। इन्हें जरुर बचाऊँगा।’ मन की बात बाहर आ गई, – ‘मालिक! आप टैंकर को फूल करवाइए, मैं टैंकर को समय से पहले लखनऊ के उस अस्पताल में पहुँचाऊँगाI आक्सीजन के बिना मैं किसी को भी न मरने दूँगा।’ – वह अधीर हो उठा।

‘लेकिन तुम थोड़ी देर पहले ही अंबिकापुर से टैंकर लेकर लौटे हो। राउरकेला से लखनऊ लगभग 900 किलोमीटर की दूरी है। जाने में कम से कम बीस-बाईस घंटें तो जरुर ही लगेंगे और शरीर को आराम भी तो चाहिए, इसके लिए भी कम से कम चार से पाँच घण्टें तो और चाहिए ही। तुम किसी भी तरह से कल शाम तक वहाँ नहीं पहुँच पावोगे।’ – मालिक श्याम बिहारी पाण्डेय ने उसे समझाते हुए कहा।

‘मालिक! आप समय बर्वाद न करें। आप मेरे टैंकर को फूल करवाने की बात सोचें और मेरा यह टैंकर हर हालत में कल दोपहर के पहले तक लखनऊ के उस अस्पताल में पहुँच जायेगा, यह मेरा वादा है। यह मेरी दिवंगत बेटी कुसुम की कसम है। हाँ, यदि आपको कोई इंकार हो, तो बोलिएI मैं किसी और के टैंकर को भाड़े पर लेकर आज अभी ही निकलता हूँ।’ – उमापति ने अपने दृढ़ इच्छाशक्ति से उन्हें अवगत करवाया।

‘भाई उमा! यह तुम क्या कह दिए। मैं तो स्वयं चाहता हूँ कि किसी तरह से उस अस्पताल में आक्सीजन पहुँचे, पर तुम्हें मैं कैसे भेजूँ? अभी तुम अंबिकापुर से लौट ही रहे हो और फिर 900 किलोमीटर का सफ़र।’
‘मालिक! आप निश्चिन्त रहें, अस्पताल तक टैंकर को मैं समय से पहले ही पहुँचाऊँगा। हो सकता वापसी में कुछ समय ज्यादा लग जाय और हाँ, एक बात और, अस्पताल में आक्सीजन पहुँचाने के लिए मैं आपसे कोई मेहनताना न लूँगा। अब आप मेरे टैंकर को जल्दी फूल करवाइए। तब तक मैं आता हूँ।’ – और उत्तर की प्रतिक्षा किये बिना ही अपने चहरे पर संतुष्टि-भाव लिए उमापति वहाँ से निकल गया।

जब तक उमापति लौटा, तब तक उसका खलासी शंकर उसके बताये सभी सामानों के साथ प्रस्तुत थाI इधर उसका प्यारा टैंकर तीन-साढ़े तीन घण्टों में फूल आक्सीजन गैस के साथ ही आफिस के सामने तैयार था। टैंकर के अग्र भाग में एक बड़ा-सा बैनर लगा थाI जिस पर लिखा हुआ था, – “जीवन रक्षक आक्सीजन वाहन को रोके नहीं, कृपया इसे रास्ता देवें।” उसके ऊपर ही स्थानीय DM की ओर से प्रदत्त ‘लालबत्ती’ जल रही थी। इन सबका मायने उमापति भली-भांति समझता है। पास के मैकेनिक भी गाड़ी का पूरा निरिक्षण कर उसे ओ.के. कर चुके थे। गाड़ी लौटते ही गाड़ी मैकेनिक अपने रूटीन के अनुसार उसे पूरी तरह से निरीक्षण कर लिया करते हैं। खलासी शंकर गाड़ी के सामने के हुड पर खड़े होकर एक कपड़े से उसके शीशे को साफ़ कर रहा था। अपने उस्ताद को आते देख वह उतर कर कर गाड़ी के सामने खड़ा हो गया।

‘क्यों शंकर! तैयार हो न? तीन-चार दिन का चक्कर है, समझे?’ – मजाकिया लिहाज में उमापति ने कहा। उसके लिए शंकर ही संगी-साथी, सेवक, भाई-बन्धु सब कुछ था। शंकर भी उसे केवल अपना उस्ताद ही नहीं, बल्कि अपना सबकुछ मानता था। दिन के दो बज गए थे। मालिक श्याम बिहारी पाण्डेय फूलों की एक माला लिये आफिस से निकले और उसे उमापति के गले में डाल दिया। उमापति वहाँ उपस्थित सबको हाथ जोड़कर नमस्कार किया और टैंकर के ड्राइविंग सिट पर बैठ गया। दूसरी खिड़की से उसके पथ के साथी-सहायक शंकर भी आकर बैठ गया। उमापति बाएँ पैर के पंजे को कलच पर और दाएँ पैर को एसलेरेटर पर रखा और चाबी लगाकर गाड़ी को स्टार्ट किया। टैंकर गाड़ी हन-हना कर हर्षनाद करने लगी। कुछ क्षण के लिए उमापति अपनी आँखों को बंद कर अपनी ‘कुसुम’ सहित ईश्वर को स्मरण किया और अपने बाएँ हाथ से गाड़ी को गियर में डाला। भारी-भरकम गाड़ी आगे सरकी, फिर तो पलक झंपते ही वह हाईवे पर सुंदरगढ़ की ओर ‘लालबत्ती’ जलाए सरपट दौड़ी चली जा रही थी।

कब वह सिंगिबहार, कुंकुरी, बागीचा, बतौली पार कर गयी, पता ही नहीं चला। सही बात तो यह है कि शहरों और नगरों पर ध्यान ही किसे था? ध्यान में तो विलखते कोरोना मरीज हैं। दिन की उष्णता अब कुछ पहाड़ी और वनस्थली शीतलता में परिणत हो गई। पर इन सब में मन को उलझाना ही नहीं है। पश्चिम का अग्निगोलक गगनमंडल को सिंदूरी करते विराम हेतु कब का लुप्त हो चूका था। गाड़ी अब अंबिकापुर में प्रवेश कर रही थी। इसके दरमियान गाड़ी कहीं नहीं रुकी। शंकर दो बार अपने उस्ताद को जबरन बिस्कुट खिलाना और पानी पिलाना भी चाहा, पर आदेश हुआ, -‘तुम खाओ।’ उमापति के लिए तो अभी ‘राम काजु कीन्हें बिनु मोहिं कहाँ विश्राम’ही था।

शंकर आज तक अपने उस्ताद को वह इस रूप में न देखा था। बाहर से स्थिर मूर्तिमान, पर अंदर से अति व्यग्र शायद गाड़ी भी अपने चालक की मनोदशा को समझ गयी है। आज वह भी अपनी चरम शक्ति सहित दूरी को मापने में लगी हुई हैI प्रतिपल अन्य गाड़ियाँ पीछे छूटती जा रही हैं। किलोमीटर घड़ी का काँटा 70 के नीचे झुकना अपमान बोध हो रहा है। खिड़की के बाहर अब रात्रि की पहाड़ी शीतल हवाएँ ‘फांय-फांय’ कर गुजरने लगी। देखते-देखते ही प्रतापपुर पीछे चला गया। फिर चोपन का आबादी अंचल भी पार कर सोन नदी के पीपलघाट पुल को पार कर गई। शंकर ने मोबाइल पर देखा रात्रि के दस बजे हैं। उस्ताद के लिए कहीं से चाय-पानी का व्यवस्था करता, तो उनके सेहत के लिए अच्छा रहता। पर पूछे कैसे? उस्ताद को उसके ध्यान से विचलित नहीं कर सकता है। मारकुंडी के घुमावदार मार्ग पर भी गाड़ी अपनी पूर्व रफ़्तार पर ही कायम रही। फिर रोबर्ट्सगंज भी आया और पीछे चला गया।

उमापति को एहसास हुआ कि अपने लिए न सही, पर गाड़ी के लिए तो कुछ खुराक चाहिए ही, अतः एक पेट्रोप पंप को देखकर उसने अपने सहायक शंकर से कहा, – ‘शकर! इस पेट्रोल पम्प पर तेल लेने के लिए पाँच-दस मिनट के लिए रुकेंगे, उससे अधिक नहीं। तब तक तुम अपने हाथ-पैरों को ठीक कर लेना और टायरों की हवा भी चेक कर लेना। इसके बाद गाड़ी लखनऊ ही रुकेगी।’ गाड़ी पेट्रोल पम्प में प्रवेश की। गाड़ी की लालबत्ती और आक्सीजन टैंकर को देख कर उसके कर्मचारी दौड़े आये, साथ में उसका मैनेजर भी आया। उमापति के बोलने के पहले ही मैनेजर ने अपने कर्मचारियों को गाड़ी का टैंक फूल करने का आदेश दिया। एक दूसरे कर्मचारी को पास के होटल से गरमा गरम चाय लाने को कहा। इधर शंकर हाथ में एक स्क्रूव ड्राईवर लिये गाड़ी के सभी टायरों को ठोक बजाकर चेक कर लिया।

‘उस्ताद! जरा उतर कर घूम-टहल लो। पैर और शरीर सीधे कर लो। कुछ आराम मिल जायेंगे।’ – शंकर ने अपनी स्थिति के अनुभव के आधार पर ही कहा। पर उमापति के लिए अपने संकल्प को पूर्ण करने के पूर्व आराम हराम ही है, हाँ मैनेजर के आग्रहपूर्ण चाय को स्वीकार कर लिया। तेल के लिए पैसे पूछने पर मैनेजर मुस्कुराते हुए कहा, – ‘मालिक का आर्डर है, जीवन बचाने के लिए आक्सीजन ले जाने वाली गाड़ियों से पैसे न लेना। भाई साहब! आप ख़ुशी से जाओ पैसे बहुत कमा लेंगे, पहले लोगों की जान बचाओ’ – मैनेजर हाथ जोड़ लिया।

प्रतिउत्तर में उमापति अपने हाथ जोड़ दिए। तब तक शंकर भी गाड़ी में बैठ चूका था, गाड़ी आगे बढ़ गई। अब शुष्क चट्टानी अंचल की मनोरम चाँदनी में विविध स्वरूपों को धारण किये हुए विविध चट्टान विचित्र लगने लगे थे। लगता है कि मिर्ज़ापुर अभी दूर है। पर नहीं, अब वह दूर कहाँ? वह भी पहुँच ही गया। रात्रि के प्रथम प्रहर में पानी के ऊपर से बहती शीतल बयार का स्पर्श हुआ। अरे, यह तो दूर-दूर तक विस्तृत अंचल में पसर कर लेटी हुई शांत पवित्र गंगा नदी है। इसका तन इस समय चाँदी-सा चमक रहा है। मातृ गंगा को भी विदित है कि पल भर का भी विलम्ब अपने भीष्म पुत्र के दृढ़ संकल्प को खंडित कर डालेगा। अतः अपने चाँदी से उज्ज्वल करों से ‘विजयी भवः’ का आशीर्वाद देते हुए उसे चुपचाप जाने दी। गाड़ी गम्भीर रात्रि में सुनशान ‘शास्त्री पुल’ को पार कर गई, जिस पर दिन के समय गाड़ियों की लम्बी लाइनें हुआ करती है।

फिर गोपीगंज, हंडिआ, उन्चाहर होते हुए अब गाड़ी रायबरेली पहुँच गई। सड़क कई जगहों पर बहुत ही खराब है। मजबूरन रफ़्तार को कुछ कम करनी पड़ी, उमापति बहुत ही व्यग्र होने लगा है। शंकर की आँखें भी नींद से बोझिल हो रही हैं, पर वह जबरन पलकों को उठाये हुए है। चतुर और अनुभवी उस्ताद सब कुछ समझ रहा है। उसका भी मन कर रहा है, कि कहीं किसी ढाबे में एक कप चाय के लिए रुकते, सारा शरीर ही अकड़-सा गया है, पर जिम्मेवारियाँ उसे इसकी इजाजत नहीं दे रही हैं। अब पूर्व में कुछ हलकी सिंदूरी आभास होने लगी है। सारी रात भर का जागरण, भोर बेला में परास्त-सी हो जाती हैI हिम्मत नहीं हो रहा है, पर उसके कानों में अनगिनत ‘कुसुमों’ के ‘पापा-पापा’ की पुकार उसे प्रतिपल नवीन ऊर्जा-शक्ति प्रदान कर रही है। कैसे उन्हें मौत के मुँह में जाने दे? प्राण रहते वह अब ऐसा तो नहीं होने देगा। इन्हीं विचारों में खोये और शंकर से बातचीत करते हुए बछरावां भी पार कर गया। अब तक चारों ओर स्वर्णिम प्रकाश फ़ैल गया। सड़क पर छोटी-छोटी गाड़ियों के साथ लोगों की भी संख्या बढ़ने लगी है। सावधानी बरतना जरुरी है। इच्छा के विपरीत उसे गाड़ी की रफ़्तार को अब कम करना ही पड़ा रहा है। पर उस्ताद उमापति को शंकर की हालत पर भी दया आ रही है। वह बेचारा गत परसों से आराम नहीं किया है। अंबिकापुर से लौटते ही उसे भी अपने साथ नाथ लिया।

‘शंकर! तू स्लीपर पर जाकर कुछ देर आराम कर लो, शरीर अकड़ गया होगा।’ – उस्ताद ने कहा। सही बात तो यह है कि शरीर तो उस्ताद का ही अकड़ ही गया है।
‘नहीं उस्ताद, मैं ठीक हूँ। न हो तो, थोड़ी देर के लिए ही सही, गाड़ी को किनारे कर आप आराम कर लो। तब तक मैं गाड़ी के हवा-तेल चेक कर लूँगा।’ – शंकर ने अपने उस्ताद के प्रति भक्ति और कर्तव्य को प्रदर्शित किया।
‘तब रहने दे। घन्टे भर में तो मोहनलालगंज पहुँच जायेंगे, फिर वहाँ से लखनऊ है ही कितनी दूर पर, जरा सा भी आराम शरीर को जकड़ लेगा फिर देर हो जाएगी। चलो, लखनऊ अस्पताल में पहुँचकर ही चाय-पानी और आराम के बारे में सोचेंगे।’ – उस्ताद तो जान बुझकर शंकर को बात-चित में उलझाए रख कर अपनी उनींदी आँखों को जबरन खोले रखना चाह रहा है। मोहनलालगंज की भीड़-भाड़ को पार किया। पर यह क्या, कुछ आगे ही दो पुलिस गाड़ी और कई पुलिस कर्मी दिखाई दिए, जो दूर से ही उसकी टैंकर गाड़ी को रोकने के लिए इशारा कर रहे हैं। ‘लो अब क्या हुआ? मुझे जल्दी पहुँचना है और ये अनावश्य देर ही कर देंगे।’ – उमापति शंकर की ओर देख कर बडबडाया। संभवतः पहली बार किलोमीटर की घड़ी में काँटा क्रमशः नीचे उतरते हुए तीस-बीस-दस और पुलिस कर्मियों के पास पहुँचते ही पाँच के भी नीचे पहुँच गई। उमापति गाड़ी में से ही जोर से चिल्लाया, – ‘साहब आक्सीजन है। राउलकेला से ला रहा हूँ, लखनऊ के जनरल हॉस्पिटल में ले जाना है। आप लोग रोकिये नहीं, जल्दी पहुँचाना है।’

‘हमलोग तुम्हारे आने का ही इन्तजार कर रहे हैं। गाड़ी को रोको नहीं, आगे बढ़ाओ। हम तुम्हारी रक्षा करते हुए साथ चलेंगे।’ – शायद वह इंस्पेक्टर रैंक का होगा, वह आगे बढ़कर जल्दी से सामने वाली पुलिस गाड़ी में सवार हुआ। उसके साथ तीन और पुलिस कर्मी भी सवार हुए और सायरन बजती हुई गाड़ी आगे चल पड़ी। उमापति ने अपनी भरी भरकम टैंकर गाड़ी को उनके पीछे लगा दी। जबकि दूसरी पुलिस गाड़ी में बाकी के पुलिस कर्मी सवार होकर टैंकर गाड़ी के पीछे-पीछे रक्षक बनकर चलने लगें।

“बस हमलोग अपनी मंजिल पर पहुँच गये हैं। थोड़ी देरी में ही हम जेनरल हॉस्पिटल में होंगे। शंकर, जरा देख तो कितना समय हो रहा है?” – पास में ही रखे पानी के बोतल से पानी लेकर अपने चहरे पर छींटें मारा और फिर अपनी तौली से उसे पोंछते हुए कहा ‘उस्ताद, नौ बजने को आये हैं।’ – मोबाइल में देख कर कहा। मुख्य सड़क की दायीं ओर किसान पार्क की हरियाली और उससे सम्बन्धित शीतल हवा खिड़की के माध्यम से गाड़ी के केबिन में प्रवेश करने लगी। पर उसके प्रति अभी किसी को कोई आसक्ति नहीं है। यहाँ तो चिंता मरीजों के लिए ‘जीवन रक्षक वायु’ को तत्काल पहुँचाने की है।

दोनों की आँखें लाल-लाल हो चुकी हैं, पर कर्तव्यबोधता उन्हें जबरन खोले हुई है। बायीं ओर की बड़ी-बड़ी इमारतें शायद खड़ी होकर इन्हें धन्यवाद ज्ञापन कर रही हैं। पुलिस लाइन भी पार हो गई। आगे की पुलिस-गाड़ी सायरन बजाती भीड़ को दूर करती SGPGI चौक से बायीं ओर मुड़ी, उसके पीछे उमापति ने भी टैंकर को मोड़ा। सामने ही जनरल हॉस्पिटल का विशाल गेट दिखाई दिया। उस गेट पर पहले से ही खड़े अनगिनत लोगों ने तालियों की गड़गड़ाहट से टैंकर सहित इनका स्वागत किया और दोनों ओर से टैंकर पर फूल बरसने लगे। यह सिलसिला अस्पताल के आक्सीजन गैस केबिन तक चलता ही रहा। गाड़ी गैस केबिन में ही रुकी और ठीक तभी अस्पताल की बड़ी घड़ी सुबह के 10 बजने की सूचना दी।

शंकर कुछ कागजात लेकर खिड़की से उतरा। पहले से ही मौजूद एक अधिकारी गाड़ी का तथा शंकर द्वारा प्रदत्त कागजातों का मुआयना किया और फिर उसके इशारा पाते ही वहाँ मौजूद टेकनीशियन एक मोटी पाईप के जरिये टैंकर को कनेक्ट कर दिया। शंकर तो बड़ी सरलता के साथ गाड़ी से उतर गया था, पर उमापति तत्काल न उतर पाया। उसके दोनों पैर पत्थर जैसे कठोर होकर सूज गए थे। बहुत कोशिश करने पर वह किसी तरह गाड़ी से उतरा, पर अपने पैरों पर खड़ा न हो पाया और वह बालू भरे किसी बोरे की भांति ‘लद’ से गिर पड़ा। उठने की उसकी हर कोशिशें नाकाम सिद्ध हुई। उस अधिकारी के इशारे को पाकर अस्पताल के दो कर्मचारी पहिये वाले ‘स्ट्रेचर’ ले कर आये और उमापति को सहारा देकर उसपर लिटाये। फिर उस अधिकारी के पीछे-पीछे उमापति को अस्पताल के एक विशेष कमरे में ले जाया गया, जहाँ अस्पताल का CMO ने स्वयं ही फूलों की एक माला उसके गले में डालकर उसका स्वागत किया।

आक्सीजन के टैंकर को ले आने वाले ‘देवदूत’ की एक झलक पाने के लिए अनेक लोग उस कमरे के बाहर इकट्ठे दिखाई दिए। उनकी आँखों में प्रसन्नता के आँसू झलक रहे हैं। उनके आँसू की प्रत्येक बूँदें इस ‘देवदूत’ को दुआ दे रही हैं। उमापति को आँसुओं से डबडबाये उन अनगिनत अनजान आँखों के बीच ही अपनी दिवंगत लाडली ‘कुसुम’ और दिवंगत पत्नी ‘कमला’ की प्रसन्न और संतुष्ट आँखों के मौजूद होने का आभास पा रहा है।

श्रीराम पुकार शर्मा

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