*लालटेन*
द्विमंजिला आलिशान मकान के भूतल का बड़ा-सा हॉल। इस समय उसकी दीवारें अस्तगामी सूर्य की मधुर रक्तिम किरणों से रक्ताभ हो गए थे। अभी हॉल तथा कमरों की बत्तियों को जलाने की कोई आवश्यकता तो न थी। पर घर की बारह वर्षीय बेटी ‘रूचिका’ एक पीतल की थाली में एक कपड़ा, सलाई की डिबिया और कुछ फूल लेकर मुख्य द्वार की ओर बढ़ी। मुख्य द्वार के पास ही बायीं दीवार से लगे एक सुंदर शोकेस पर अन्य वस्तुओं सहित उस पीतल की थाल को रखी दी।
कुछ ऊपर बने सुंदर काँच के पारदर्शी नकाशीदार शोकेस में रखे हुए एक पुराने लालटेन को आहिस्ते से निकाली। सावधानी से उसके शीशे को उतार कर उसे तथा पूरे लालटेन को कपड़े से साफ की। सूर्यदेव बहुत तेजी से अस्तगामी हो रहे थे अतः हॉल की लालिमा अब कुछ मद्धिम हो कर कुछ श्यामल हो चली थी। फिर रूचिका सलाई की एक कांठी निकाल सलाई पर घिसी, कांठी जल गई। उसी के सहारे उसने लालटेन की बत्ती को जलाई और उसके शीशे को बड़ी सावधानी से फिर चढ़ा दी।
लालटेन की पीताभ रौशनी अब पूरे हॉल में फैली गई। इस समय रूचिका के गौर चहरे का एक भाग लालटेन की पीताभ रौशनी में दीप्तमान हो रहा था। उसके कान से लटकते कर्णफूल के जड़ाऊ पत्थर और सुंदर वसन पर जड़े छोटे-छोटे रंगीन शीशे के टुकड़े लालटेन की रौशनी में झिलमिला रहे थे। उससे परावर्तित हो कर प्रकाश पुंज हॉल में जहाँ-तहाँ छोटे-छोटे टिमटिमाते तारों के रूप में प्रतिविम्बित होने लगे।
वह लालटेन पर कुछ पुष्प अर्पण कर सांध्य प्रकाश का अभिषेक की, फिर वह एक हाथ में लालटेन और दूसरे हाथ में पुष्पों युक्त उस पीतल की थाल को थामें ऊपर मंजिल की सीढ़ियों पर चढ़ने लगी और उसके साथ ही टिमटिमाते प्रकाश पुंज भी हॉल में अठखेलियाँ करते आगे बढ़ने लगे।
रमण बाबू हॉल के एक कोने से लगे कोंच पर आराम से बैठे एक पत्रिका देख रहे थे। सांध्य-बत्ती को हाथ जोड़कर सादर प्रणाम किये I तत्पश्चात रूचिका पर नजर पड़ते ही एक पल के लिए वे हतप्रद हो गए। रूचिका के रूप में उन्हें अपनी स्वर्गीय माँ का भान हो आया। सांध्य बेला में उनकी माँ भी इसी लालटेन को जलाकर गाँव के पैत्रिक मकान के दरवाजे पर कुछ देर खड़ी रहती, फिर आँगन और उससे सम्बद्ध कमरों में इसी तरह से प्रकाश को दिखाया करती थी।
माँ को गुजरे तो कोई बीसों वर्ष हो गए, पर आज रूचिका द्वारा सांध्य लालटेन जलाने के उपक्रम में विगत वर्षों की माँ से सम्बन्धित स्मृतियाँ उनके मस्तिष्क में एक-एक कर उभरने लगी। रमण बाबू को तो अपने पिता की स्मरण याद भी न रहा है। तब वे गाँव के ही विद्यालय में पांचवीं या छठी कक्षा में पढ़ते थे। उनके भैया विमल उसी विद्यालय में दशवीं कक्षा में पढ़ते थे। तभी उनके पिता पीलिया रोग से जद्दोजेहद करते अपनी जिम्मेवारियों को उनकी माँ के निर्बल कन्धों पर डाल कर गोलोक गमन किये।
माँ ने हाथों की चूड़ियाँ फोड़ीं और माथे के सिंदूर को मिटा कर परिस्थितिवश अपने मन को मजबूत कर अपने दोनों बेटों के सम्मुख आने वाली हर विपत्ति के सामने मजबूत ढाल बन कर खड़ी हो गई। कई बार उनके बड़े भैया विमल अपनी पढ़ाई छोड़कर कुछ काम करने का प्रस्ताव माँ के समक्ष रखे। पर हठी माँ, न मानी, वह तो अपने गोलोकवासी पति को वचन दी थी कि हर हॉल में बच्चों को शिक्षित कर मजबूत बनायेंगी।
अतः कठिन आर्थिक परिस्थिति में आपसी विचार-विमर्श कर माँ ने खेती की जमीनों को गाँव के ही एक महाजन के पास बंधक पर रख दी और बहुत ही सावधानी से पैसों को दांतों से पकड़ती घरेलू संसार रुपी रथ पर अपने बेटों को सवार कर स्वयं उसका प्रबल सारथी बन गई।
संध्या समय जब दोनों भाई कहीं से लौटते तो दूर से ही इसी जलते लालटेन को लटकाए अपनी माँ को घर के दरवाजे से कुछ आगे नीम के पेड़ के नीचे खड़ी उनके इंतजार करती हुई पाते थे। समय का चक्र परिवर्तित हुआ। विमल अपने कालेज की पढ़ाई पूर्ण कर पास के ही गाँव के विद्यालय में गणित के अध्यापक हो गए। रमण बाबू भी उच्च डिग्री हासिल की और पटना के सचिवालय आफिस में उच्च पद पर आसीन हो गए। माँ पर भी वृद्धा के लक्षण दिखने लगे थे। दोनों भाई अपनी माँ पर जान लुटाते थे।
माँ का विशेष आदेश था कि पर्व-त्यौहार के अवसर पर परिवार के सभी सदस्य इकट्ठे गाँव पर ही रहे। अतः रमण बाबू की अधिकांश छुट्टियाँ सपरिवार गाँव पर ही माँ तथा भैया की सानिध्यता में ही बीतता था। भैया-भाभी सहित पूरे परिवार का एक साथ खान-पान और रहना, दोनों भाइयों के लिए स्वर्गीय आनंद से कम न था। अब तो माँ भी नहीं रहीं, परन्तु उनके आदेशानुसार प्रचलित पारिवारिक परम्परा आज भी कायम है।
एक बार दशहरे की छुट्टियों में रमण बाबू गाँव पर आये थे। एक शाम को दोनों भाई किसी विशेष प्रयोजन से घर से निकले और देर तक न लौटे। आकाश में कुछ बादल छाये हुए थे। शाम तक हवाएँ कुछ तेज होकर बहने लगी थी चतुर्दिक अँधेरा फ़ैल चुका था। पर दोनों भाई अब तक न लौटे थे। रात में देर करने की इनकी आदत तो थी ही नहीं। बेचारी बूढी माँ व्यग्र थी। बहुएँ उन्हें समझातीं रहीं, पर माँ का मन कहाँ मानने वाला था? हाथ में जलते लालटेन को लिये घर से बाहर नीम के पेड़ के नीचे जा कर बेसब्री से खड़ी रही।
रह-रह कर आकाश में बिजलियाँ चमक जाती और वे दूर तक राह को पल भर के लिए आलोकित कर जाती थी पर, उस पर वे दोनों न दीखते। लगभग आधे घंटे सफरी-सी बेचैनी के उपरांत दूर से ही दोनों की काली परछाइयाँ और उनकी बातचीत की मद्धिम आवाजें सुनाई दी। बेचारी की बूढ़ी आँखें और मन को कुछ ढाढस बंधा, कुछ बूंदा-बंदी भी शुरू हो गई थी।
दोनों भाइयों को ऐसा ही पूर्वानुमान था कि उनकी वृद्धा माँ जलते लालटेन को हाथ में लिये उनकी राह देख रही होंगी। पर काम भी बहुत ही जरुरी था क्या करते? पास आते ही माँ ने प्यार भरी डांट सुनाई, – ‘यह समय हो रहा है, घर लौटने का? यहाँ तुमलोगों के इंतजार में मेरी आँखें फूटी जा रही हैं।’
‘माँ! पहले घर तो चलो घर चल कर बताता हूँ, देर क्यों हुई।’- दोनों भाई माँ को संग लिए आगे बढ़े, लालटेन की रौशनी से दोनों भाइयों की सम्मिलित लम्बी परछाइयाँ दूर तक जा रही थी। घर में प्रवेश करते ही भैया विमल अपने कंधे से लटकते बैग को उतार कर मेज पर रखें, उसमें से कुछ पुराने कागजात निकालें और माँ के चरणों पर रख दिए, माँ अचम्भित!
‘माँ! यह हमारी पैत्रिक सम्पति है, स्वर्गीय बाबूजी की सम्पति जिसे हमलोग वर्षों पहले बंधक रखे थे। उनका पूरा हिसाब चुकता कर ले आया हूँ। यह अब तुम्हारी सम्पति है लो, सम्भालो अपनी सम्पति को’ – माँ की अचम्भित जिज्ञासा भाव को विमल भैया ने बड़ी प्रसन्नता-पूर्वक समझाते हुए शांत किया, माँ का गला भर आया। कोई शब्द नहीं निकल पा रहे थे। सामने के ऊँचे तख्ते पर फूलों से सुसज्जित स्वर्गीय पतिदेव का चित्र आज मुस्कुराता जान पड़ा।
माँ उन पुराने खानदानी कागजात को उठाईं, उसे माथे से लगाईं और फिर उन्हें चित्र के सम्मुख उन्हें रख दी। फिर चित्र के सम्मुख गर्व से खड़ी हो गईं और शायद उन्हें सप्रेम उलाहना देती जान पड़ीं, – ‘जिम्मेवारियों से डर कर परलोक गमन करने वाले! देखो, अपने राम-लखन के समान बेटों को’ माँ ने प्यार से दोनों बेटों के माथे को चुमकर आशीर्वाद दी।
पटना वापस जाने वाली उनकी रेलगाड़ी रात को नौ-साढ़े नौ बजे की ही रहती थी। शाम होते ही मोटर गाड़ी द्वार पर आ गई थी। कुछ रात होते ही रमण बाबू घर से निकल पड़े। बहुत मना करने पर भी भैया विमल तथा परिवार के अन्य सदस्यों के साथ माँ भी इसी जलते लालटेन को अपने हाथ में लिये उन्हें विदा करने निकली। रमण बाबू अपनी माता के साथ-साथ उस नीम के पेड़ के नीचे तक पहुँचे, प्रणाम आदि कर मोटर गाड़ी में सवार हुए। गाड़ी आगे बढ़ चली, पर माँ लालटेन लिये वहीं तब तक खड़ी रही, जब तक गाड़ी उनकी आँखों से बिल्कुल ही ओझिल न हो गई।
रमण बाबू के लिए उनकी माता का अंतिम प्रत्यक्ष दर्शन यही था। उनके पटना जाने के कुछ दिन बाद ही एक रात्रि में माँ जो सोई, फिर न जागी दोनो भाइयों ने माँ की चिर विदाई सम्बन्धित समस्त क्रिया-कलापो को बड़ी ही भक्ति-भाव से निर्वाहन किया। गाँव में बिजली की पहुँच हो चुकी थी अतः अब गाँव में भैया विमल के पास व्यवहारिक दृष्टि से उस लालटेन का कोई औचित्य न रह गया था और पटना जैसे राजधानी शहर में रमण बाबू के लिए यही बात लागु होती थी, पर माँ से सम्बन्धित उक्त लालटेन तो दोनों भाइयों के लिए अनमोल वस्तु थी।
अतिशय मातृ-प्रेम के कारण दोनों उस मातृ-स्मृति से युक्त बेजान लालटेन पर अपना हक जमाते थे। पर हर बार की भांति विमल भैया को ही रमण बाबू के प्रेमपूर्ण जिद के समक्ष पराजित होना पड़ा और वह लालटेन अब रमण बाबू के पास अपनी माता की अमूल्य धरोहर सम्पति सदृश मौजूद है।
पटना में जब रमण बाबू ने अपना आलिशान मकान बनवाया, तो मुख्य द्वारा की बायीं ओर ही उस लालटेन को रखने के लिए बहुत ही सुंदर नकाशीदार एक विशेष शोकेश भी बनवाए। कई साथी-मित्रों ने विद्युत् प्रकाशों से जगमगाते राजधानी शहर पटना में उस पुराने लालटेन के अस्तित्व और उसके प्रति अतिशय लगाव को केंद्र कर उनपर पर व्यंग्य भी किये।
कुछ ने तो उसे नए घर पर पुराने पैबंद भी बताया पर ‘सुनिए सबकी, करिए मन की’ के सिद्धांत को अपनाते हुए रमण बाबू ने उस मातृ-स्मृति के आधार विरासतीय अमूल्य सम्पति लालटेन को न केवल अपने पास सुरक्षित ही रखा है, वरन् प्रतिदिन सांध्यकाल स्वयं अपने हाथों से उसे साफ कर पहले उसे जलाया करते, तब पाछे घर की अन्य बिजली की बत्तियाँ जलती थी। बिजली की बत्तियाँ मकान को प्रकाशित किया करती थी, जबकि वह लालटेन मन को प्रकाशित किया करता था।
इधर कुछ वर्षो से उस लालटेन की सेवा और जलाने का कार्य प्रेमवश रूचिका ने आने हाथों में ले ली है। अब तो उस लालटेन को जलाना उनकी पारिवारिक परम्परा में शामिल हो गया है। माँ तथा लालटेन सम्बन्धित अनगिनत चित्र रमण बाबू के मस्तिष्क में किसी चलचित्र की भांति अभी प्रदर्शित हो ही रहे थे, कि ‘पिताजी! आप कहाँ खोये हुए हैं?’ – रूचिका के शब्द उनके चंचल मन को स्वप्न लोक से भौतिक लोक में वापस ले आई।
देखा हॉल सहित सभी कमरों की बत्तियाँ जल चुकी है, रमण बाबू कुछ मुस्कुराते हुए बोले, – ‘तुम्हें देख, मैं अपनी माँ की यादों में खो गया था।’ रूचिका के मन में अपनी दादी माँ के प्रति प्रेम की भावना को देख कर रमण बाबू काफी संतुष्ट हैं। कल भी सांध्य बेला में फिर वह लालटेन जलेगा।