श्रीराम पुकार शर्मा की कहानी : अतिथि देवो भवः!

श्रीराम पुकार शर्मा

अभी प्लेटफार्म से रेलगाड़ी सरकने ही लगी थी कि सफेद गोराई लिये सामान्य कद का एक विदेशी युवा यात्री ‘स्लीपर क्लास’ की बोगी में हाँफते और हड़बड़ाते हुए सवार हुआ। उसके पीठ पर एक बड़ा बैग था, एक हाथ में पानी का एक बोतल और दूसरे हाथ में भारत-भ्रमण सम्बन्धित एक पुस्तक थी।

गले से लटकते हुए ‘इयर फोन’, कमर के नीचे छींटदार रंगीन ‘बरमुडा’ और उसके ऊपर सुनहले रंग का ‘टी-शर्ट’ पहने हुआ था, जिस पर ‘Like a Bird’ लिखा हुआ था। बायीं कलाई में ‘स्मार्ट वाच’ जबकि दायीं कलाई में शायद पीतल या कांसा से बना एक मोटा कड़ा पहने हुए था। कुछ पल के लिए वह दरवाजे पर ही रूका रहा, वह तेजी से हाँफ रहा था। उसकी छाती ऊपर-नीचे होती हुई धौकनी बनी हुई थी। फिर वह आगे बढ़ा, परन्तु सीटों पर पर्याप्त यात्रियों को देख आगे बढ़ता ही गया।

नीचे के एक बर्थ पर एक युवक को लेटे हुए देख कर उससे आग्रह पूर्वक बोला, – ‘कैन आई सीट हियर फॉर अ व्हाइल?’ (क्या मैं यहाँ पर कुछ समय के लिए बैठ सकता हूँ। युवक अपने पैरों को समेट लिया और उसे बैठने का संकेत किया। ‘थैंक्स’ कहते हुए वह विदेशी यात्री अपनी पीठ से अपने बैग को उतार कर पहले उसे सीट पर रखा, फिर अपने बोतल के ढक्कन को खोल कर उससे दो-तीन घूँट पानी गटगटाया।

अब वह सीट पर रखे अपने बैग को उठाकर ऊपर के बर्थ की खाली जगह पर रख दिया, फिर वह सीट पर बैठ गया। उसके चेहरे पर पसीने की कुछ बूँदें चमक रही थीं, जबकि कुछ बूँदें उसके गालों पर से ढुलकते हुए उसके व्यवस्थित भूरे मोंछ के बालों में विलीन होते जा रहे थे। अपने बरमुडा के एक बड़े जेब से एक तौलीनुमा रुमाल निकाल कर चहरे पर उभर आये पसीने को पोंछा। फिर सीट पर अपनी पीठ को पीछे सटा दिया और कुछ पल के लिए अपनी आँखें बंद कर ली।

धीरे-धीरे उसकी स्थिति सामान्य हुई। अन्य यात्रियों के लिए वह विचित्र प्राणी सदृश आकर्षण का ही केंद्र बना हुआ था। धीरे-धीरे रेलगाड़ी अपनी तय गति के समकक्ष पहुँचने के प्रयास में अपनी रफ्तार को क्रमशः बढ़ाए जा रही थी और उसी के अनुकूल पटरियों और चक्कों के घर्षण से उत्पन्न संगीतमय ‘ठक-ठक’ की आवाजें पहले की अपेक्षा और तेज होती जा रही थीं, जबकि उनकी आवृति के अंतराल में क्रमशः ह्रास होती जा रही थी।

पर उसी के अनुकूल खिड़की से बिल्डिंग-मकान, मैदानों में खेलते बच्चें, पेड़-पौधें, दूर खेतों में घास चरते मवेशी, पास की सड़क पर चलते इक्के-दुक्के गाड़ियाँ आदि सब के सब बहुत ही तेज गति से बेहताश पीछे की ओर भागते नजर आ रहे थे। स्वयं अपनी गति का भान भले हो या न हो, पर दूसरों की गति का एहसास सबको हो जाया ही करता है। बातों के क्रम में पता चला कि उस विदेशी यात्री का नाम स्मिथ ‘वाल्टर’ है और वह कैलिफोर्निया के ‘रीफर सिटी’ का रहने वाला है। वह एक सप्ताह पूर्व ही “भारत के अतिथिदेव भवः” प्रकल्प से प्रभावित होकर भारत-भ्रमण की चाहत में सबसे पहले कोलकाता पहुँचा था।

कोलकाता के कुछ महत्वपूर्ण दर्शनीय स्थलों के परिभ्रमण के उपरांत वह पर्वतीय रानी ‘दार्जिलिंग’ की सुंदर और शीतल वादियों को भी आत्मसात किया। अब आज वह अति प्राचीन शिव की नगरी काशी-वाराणसी के परिदर्शन की अभिलाषा में इस रेलगाड़ी में सवार हुआ है। वेदों के पालक ऋषि-मुनियों, साधू-संतों, महापुरुषों और पवित्र गंगा-यमुना से सिंचित भारत-भूमि के परिदर्शन सम्बन्धित स्मिथ वाल्टर का अनुभव बहुत अच्छा नहीं रहा है।

‘वसुधैव कुटुम्बकम’ की माला जपने वालों में से ही किसी ने उसका दामी कैमरा चुरा लिया। इस रेलगाड़ी में सफर हेतु तत्काल आरक्षित टिकट दिलाने के नाम पर भी किसी तथाकथित ‘ट्रेवल एजेंट’ ने भी उसका जेब काफी हल्का कर दिया। तृतीय श्रेणी वातानुकूल के स्थान पर उसे ‘स्लीपर क्लास’ का टिकट थमा दिया और वह भी ‘वेटिंग लिस्टेड सीट’ का, ‘कन्फर्म’ नहीं। पर घुमक्कड़ी में इन बातों का कोई मतलब ही नहीं रह जाता है। लुटाने और ठगाने का ही पर्याय है, ‘पर्यटन’।

यायावर स्मिथ वाल्टर भी इन बातों को भूल कर एक अजनबी देश में चतुर्दिक अपरिचित और स्व-भाषाविहीन लोगों के बीच भी प्रसन्न वदन बैठा हुआ था। अपनी सीट पर उसे बैठा कर अपनी सज्जनता को प्रदर्शित करने वाला युवा सह यात्री शायद बंगाली था। उसने उससे पूछ ही लिया, – “तुम्हारा बर्थ कौन-सा है? आई मीन योर बर्थ नम्बर?”
“दिस इज माय टिकट।”, – उसने बहुत ही भोलेपन से कहा और अपना टिकट उसे थमा दिया।
उस सह यात्री ने टिकट को ध्यान से देख कर कहा, – “तुम्हारा बर्थ कन्फर्म नहीं है। आप टी. टी. से मिलो, वह बर्थ देगा।”
“व्हाट? आई कैन नॉट अंडरस्टैंड।” – स्मिथ वाल्टर कुछ असमंजस में कहा।

“योर सीट इज नॉट कन्फर्म, यू हैभ नॉट गिवेन एनी सीट।” – उसने बहुत ही इत्मिनान से कहा और स्मिथ वाल्टर के टिकट को लौटा दिया। फिर उसके चहरे पर कुछ चतुराई झलकने लगी, कुछ गम्भीर होकर कहा, – “आई कैन गिभ यू माय ओन सीट, आई हैभ सम अदर बर्थ आल्सो, बट इन अदर कम्पार्टमेंट। बट यू हैभ टू पे इट्स चार्ज, दैट इज अबाउट फाइभ हंड्रेड रुपीज।”
“ओ. के. आई विल पे” – और विश्वासी स्मिथ वाल्टर चमड़े के अपने छोटे से बैग से पाँच सौ रूपये का एक नोट निकला, उसे उलट-पुलट कर बारीकी से देखा, फिर उसे दे दिया।

युवा सहयात्री उस नोट को अपने पाकेट के हवाले कर अपना सामान एकत्रित कर अपने बड़े से बैग में रखा और “बाय! बेस्ट आफ योर जर्नी” – बोलकर पता नहीं, तुरंत ही वह कहाँ चला गया? पर स्मिथ वाल्टर अब बहुत ही इत्मिनान से उस ‘लोअर बर्थ’ पर अर्ध लेटन अवस्था में पसर गया और भ्रमण सम्बन्धित अपनी पुस्तक को देखने लगा। यात्रीगण अब सोने की तैयारी करने लगे थे। स्मिथ वाल्टर भी अपनी रंगीन चादर को अपने ‘लोअर बर्थ’ पर बिछाया और एक खुबसूरत तकिये को बैग से निकाल कर उसमें अपने मुँह हवा भरा फिर वह उसे अपने माथे के नीचे लेकर लेट गया। ऊपर से एक छींटदार चादर ओढ़ लिया।

गाड़ी अपनी रफ्तार में थी, एक-दो नए आये यात्रीगण बोगी में आवागमन कर रहे थे। एक-एक करके बोगी की अधिकांश बत्तियाँ भी बुझ गईं। केवल कुछेक नीली रंग की बत्तियाँ ही अपनी नीलाभ चंद्रिमा से अँधेरे को दूर कर रही थीं। खुली खिड़कियों से हवा के झोकें और उनके साथ चक्कों तथा पटरियों के घर्षण की संगीतमय आवाजें ही इस रात्रि की सन्नाटे को तोड़ने का जबरन प्रयास कर रही थीं। कभी-कभी गाड़ी के ‘हॉर्न’ की ‘पो …’ ध्वनि सुनाई दे देती थी।

“ओ भाई! यह बर्थ छोड़ो। यह मेरा बर्थ है, ओ भाई” – एक आगन्तुक अधेड़ यात्री उस विदेशी यात्री को हिलाने-डुलाने लगा। स्मिथ वाल्टर भी कुछ हैरानी से उठा। “यह मेरा बर्थ है, छोड़ो। हम आराम करेंगे।” – उस अधेड़ यात्री अपने कंधे से एक बड़ा बैग लटकाए खड़ा था। देखो एस-3 का बर्थ संख्या 33 मेरा है। तुम्हारा बर्थ नम्बर क्या है?” आगन्तुक यात्री अपने कंधे से लटकते हुए बैग उतार कर उसे बर्थ के नीचे घुसेड़ते हुए बोला।

स्मिथ वाल्टर बेचारा कहे तो क्या कहे? फिर भी उसने कहा, – “आई हैभ नॉट अलौटेड कंफर्म बर्थ। बट सम वन हैज़ गीभेन मी दिस बर्थ एंड आई हैभ पैड हिम रुपिज फाइव हैंडेड अगेंस्ट दिस बर्थ।”
“सुनो भाई! यह देखो मेरा टिकट। धनबाद से कानपुर तक का है। यह बर्थ मेरा है और तुम मेरे इस बर्थ को छोड़ो, नहीं तो मैं टी.टी. से शिकायत करता हूँ।”

बेचारा स्मिथ वाल्टर क्या करता? पराया देश, पराये अनजान नियमों के पचड़े में पड़ कर वह अपनी यात्रा को जटिल नहीं बनाना चाहता था अतः वह बर्थ से बेमन उठा, और अपनी चादर आदि को समेटने लगा। खिड़की से लगे ‘साइड बर्थ’ का एक यात्री जो पचास-पचपन से कम का न होगा, उनकी बातों से कुछ परेशान होकर जाग चुका था। उसने उस आगन्तुक यात्री से बोला, – भाई साहब! इसने सचमुच इस बर्थ के लिए पहले वाले यात्री को पांच सौ रुपये प्रदान किये हैं। उसने बताया था कि यह उसी का बर्थ है।

इसका मतलब यह हुआ कि इस भोले-भाले विदेशी यात्री को उसने ठगा है, धोखा दिया। कैसे-कैसे लोग होते हैं। यह बहुत ही बुरा हुआ। अब बेचारा यह विदेशी क्या करे? इसका तो हम भारतीयों पर से विश्वास ही उठ जायेगा।” – वह कुछ चिंतित हो गया। “टेक योर सीट।” – स्मित वाल्टर ने उस आगन्तुक यात्री से कहा और आने-जाने की गली में आकर खड़ा हो गया।

इस समय ‘साइड बर्थ’ वाले यात्री के मस्तिष्क में विचारों का बवंडर चल रहा था। वह उठा और स्मिथ वाल्टर को बहुत प्रेम से सम्बोधित करते हुए कहा, – “डोंट बी सैड, सीट हियर विथ मी, आई नो व्हाट हैपेण्ड विथ यू। कम एंड सिट हियर, दिस इज माय सीट, नो बॉडी थ्रिव यू।” थैंक्स! बट आई एम् क्वाईट वेल” – उसने जवाब दिया। “आई एम नॉट अ चिटर लाइक दैट यंग फेलो, आई एम अ टीचर, यू कैन बिलिभ मी।” – उस यात्री ने कहा और उसे अपने पास बैठा लिया।

“थैंक्स सर” – स्मिथ वाल्टर आभार व्यक्त किया और उस अध्यापक यात्री के साथ ही उसके बर्थ पर बैठ गया। गाड़ी रात्रि के सन्नाटे को चीरती हुई हवा से बातें कर रही थी, दूर आकाश में श्वेत चन्द्रमा भी समगतिमान था। कुछ ही समय के उपरांत दोनों यात्री भी ऊँघने लगे।“ डियर, माय बॉय, यू स्लीप हियर” – अध्यापक ने उससे कहा। पर स्मिथ न माना, उसे पता था कि इस सज्जन ने उस पर एहसान किया है। वह मानवता की परिधि को लाँघना नहीं चाहता था, पर अनुभवी अध्यापक महोदय स्मिथ वाल्टर की मनःस्थिति को समझ गए।

अतः थोड़ी ही देर के बाद उन्होंने कहा, – “आई एम जस्ट कमिंग, टिल यू कैन स्लीप हियर” और उत्तर की बिना प्रतीक्षा किये ही वह वहाँ से वाशरूम की ओर चल दिए। स्मिथ कुछ देर तक बर्थ पर ओठंग कर बैठा रहा, फिर धीरे-धीरे उसे नींद आ गयी। और अनायास ही वह बर्थ पर लेट गया, तत्पश्चात अध्यापक महोदय लौट आये और स्मिथ को जरा-सा भी विचलित किये बिना ही बर्थ के नीचे रखे अपने बैग से कुछ कपड़े निकाले, फिर दोनों ओर के बर्थों के बीच की खाली जगह में एक कपड़े को बिछा कर ऊपर से एक दूसरी चादर ओढ़ कर संतुष्टि के साथ सो गए।

जोरदार गड़गड़ाहट की आवाज से स्मिथ वाल्टर की नींद टूटी, देखा गाड़ी कोई चौड़ी नदी को पार कर रही थी। दूर-दूर तक बालू और दूर के किनारे में पानी दिखाई दे रहा था, सुबह की स्वर्णिम रोशनी में सब कुछ स्वर्णाभ दिख रहा था। शरीर को थोड़ी एंठन देते हुए उसने बोगी में अपने आस-पास नजर दौडाई। देखा अधिकांश लोग अभी सोये हुए ही हैं फिर उसकी नजर पास के फर्श पर सोये अपने सहयात्री अध्यापक महोदय पर पड़ी।

उसे बड़ा ही आश्चर्य हुआ, बर्थ से उठ कर उन्हें जगाना चाहा, पर कुछ सोच कर न जगाया। वह वाशरूम की ओर चला गया। थोड़ी देर में जब वह लौटा, तो देखा, अध्यापक महोदय अपने बर्थ पर एक किनारे बैठे हैं, और उनके सामने ही कागज की दो प्लेटों में नमकीन सहित कुछ बिस्कुट तथा कागज के दो कपों में चाय रखे हुए है। “कम एंड टेक टी विथ मी, आई एम वेटिंग फॉर यू” – अध्यापक महोदय ने उसे आते ही प्रसन्नतापूर्वक कहा और उसे बैठने का इशारा किया।

स्मिथ बर्थ पर बैठ गया और भाव-विभोर होकर कहा, – “बट व्हाई यू स्लेप्ट आन द फ्लोर सर, दिस इज योर बर्थ।” “फारगेट इट, माय सन, यू आर माय गेस्ट एंड लाइक माय सन, इट इज नॉट फेयर, दैट माय गेस्ट सन स्लीप आन द फ्लोर एंड आई स्लीप आन द बर्थ,नाऊ टेक टी विथ मी” – और अध्यापक महोदय बिस्कुट वाली एक प्लेट को उसकी ओर बढ़ा दी।

“थैंक्स सर” – उसने प्रसन्नतापूर्वक दाएँ हाथ से एक बिस्कुट को उठा कर मुँह में रख लिया, जबकि बाएँ हाथ में चाय के कप को थामे उसे अपने होठों से सिरोका। अब इन अतिथि और आतिथेय की क्रिया-कलापों में कोई अजनबीपन न रह गया, उन दोनों के अतः स्नेह की निर्मल धारा को भाषागत और प्रांतरगत भिन्नता भी न रोक पाईं। अब वह अपने मोबाइल पर कुछ काम करने में लग गया।

कोई घण्टे भर बाद ही ‘पंडित दीनदयाल उपाध्याय स्टेशन’ में गाड़ी प्रवेश करने लगी, अब स्मिथ को अध्यापक महोदय के स्नेही जंजीर से मुक्त होना ही पड़ेगा। यहाँ से कोई अन्य गाड़ी द्वारा उसे काशी-वाराणसी जाना पड़ेगा, लेकिन अब वह अपनी अगली अनजान यात्रा के लिए पूर्णतः आश्वत है। उसके स्नेही अभिभावक तुल्य अध्यापक सहयात्री ने उसे अग्रीम यात्रा सम्बन्धित सारी योजनाएँ बता चुके हैं। यहाँ तक कि रहने के लिए किसी होटल या फिर धर्मशाला में नहीं, वरन उन्होंने अपने ही एक रिश्तेदार के पास व्यवस्था कर दी है, जो उसे काशी-वाराणसी सहित आस-पास के अन्य दार्शनिक स्थलों का भी सुरक्षित पूर्ण परिदर्शन करवाएगा।

अब गाड़ी प्लेटफोर्म पर आकर खड़ी हो गई। अध्यापक ने देखा कि उनकी बोगी के बाहर ही चार रेलवे फ़ोर्स के जवान मुस्तैदी के साथ खड़े हैं और उनके साथ ही रेलवे का कोई बहुत बड़ा अधिकारी भी है, जो अब उनकी बोगी में प्रवेश किया और ठीक उनके ही बर्थ के सम्मुख आकर खड़ा हो गया। अध्यापक महोदय कुछ समझ पाते कि बड़े अधिकारी ने उस विदेशी यात्री से पूछा, – “सर, यू आर मिस्टर स्मिथ वाल्टर? एंड ही इज योर फेलो पेसेंजर?”

“यस सर, आई एम स्मिथ वाल्टर एंड ही इज माय फेलो लवली पैसेंजर, आई हैभ प्राउड आफ माई दिस इंडियन लवली फेलो पैसेंजेर” – स्मिथ ने बड़ा ही गर्व से कहा।
वह बड़ा अधिकारी अध्यापक महोदय की ओर हाथ बढ़ाया और कहा, – सर! मिस्टर स्मिथ वाल्टर ने अपने ‘ई-मेल’ के माध्यम से रेलवे मंत्रालय को अपने साथ घटी दुर्भाग्यपूर्ण घटना और आपके विशेष आतिथेय के बारे में सूचित किया है, धन्यवाद सर, आप जैसे लोगों के कारण ही हमारे देश की मान-प्रतिष्ठा बची हुई है। मैं आपको सल्युट करता हूँ। कृपया आप मेरे साथ आइए”।

“श्रीमान, मैंने तो अपने देश की मान-मर्यादा को बचने का बस एक उपक्रम मात्र ही किया है। इस विदेशी यात्री के माध्यम से हमारे देश की इज्जत-गरिमा विदेशों में जायेगी, लेकिन अब मुझे संतुष्टि है कि अब यह स्मिथ वाल्टर अपने ठगी सम्बन्धित दुर्भाग्यपूर्ण घटित घटना को भूल कर हमारे देश से अपना एक अच्छा अनुभव लेकर अपने देश जायेगा।” – अध्यापक महोदय ने बहुत ही सरलतापूर्वक कहा।

“पर आप हमारे साथ तो आइये, रेलवे मंत्रालय आपका स्वागत करना चाहता है आइये।” “पर मुझे तो कानपुर जाना है।” “ठीक है, आपकी आगे की यात्रा की सारी व्यवस्था की जिम्मा अब रेलवे बोर्ड की है, आप यात्रा की चिंता न करें।” आगे-आगे वह बड़ा अधिकारी, उसके पीछे स्मिथ वाल्टर और अध्यापक महोदय। फिर उनके पीछे उनके सामानों को लिये हुए रेलवे फ़ोर्स के जवान, अब तक प्लेटफॉर्म पर भीड़ लग चुकी थी। गाड़ी से नीचे उतारते ही अध्यापक महोदय के गले में फूलों की माला, दनादन कई कैमरें एक साथ चमक उठे, उनके जीवन में ऐसा सम्मान पाने का यह पहला मौका ही तो था।

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