अशोक वर्मा “हमदर्द” की कहानी : हां मैं मनुवादी हूं

अशोक वर्मा “हमदर्द”, कोलकाता। युवा ओजस्विता राष्ट्रीय ओजस्विता है जहां दूसरों का हित सोचने से स्वभाव सुधरता है। अपनें कर्तव्य का पालन करते हुए दूसरों के अधिकार की रक्षा करने वाला हीं कर्मयोगी बनता है जो किसी भी एक जाति से परे होता है। शाम का समय था अजय हताश निराश अपनें दरवाजे के चौखट पर बैठा था क्योंकि उसके मां की तबियत काफी खराब थी। बहुत दिन से वो बिस्तर पर थी उसकी सेवा अजय की पत्नी सरोज बड़े ही निष्ठा भाव से कर रही थी। ऐसे तो अजय और उसकी पत्नी दोनों ग्रेजुएट थे किंतु नौकरी के अभाव में वो खेती का काम करता था। विनोवा भावे के भूमिदान आंदोलन में कुछ जमीन दान के रूप में अजय के पिता जी को सरकार की तरफ से मिला था, जो अजय का सहारा था। बाकी के समय में वो अपनें मुहल्ले के बच्चों को मुफ़्त शिक्षा देता। इधर सरोज भी अपनें घर में दलित बस्ती के बच्चियों को मुफ़्त शिक्षा देती। वो अपने मायके से अंग्रेजी माध्यम से उच्च शिक्षा प्राप्त कर आई थी।

गांव के अन्य जातियों की बच्चियां उनके घर इसलिए नही आती की वो एक दलित घर की महिला थी, शहर में तो ये भेदभाव प्रायः खत्म है किंतु शहर में रहने वाले वही लोग जब अपनें गांव पहुंचे है तो उनकी ये भेदभाव वाली मानसिकता जीवित हो जाती है। अजय और सरोज चाह कर भी शहर नही जा सकते थे क्योंकि मां की जिम्मेवारी इन दोनों पर ही थी, अजय अपनें मां बाप का एकलौता संतान था।अगर वो नौकरी की तलाश में किसी दूसरे राज्य में चला जाता तो उसके मां को कौन देखता। अजय अपनें गांव के दक्षिण टोला में रहता था इसलिये की वो दलित था चाह कर भी वो गांव के बीच में रहने का उसका अधिकार नहीं था, क्योंकि आदिकाल से उच्च नीच का भेद दिखाकर लोगों पर अपना वर्चस्व बनाया गया था एक वर्ग के द्वारा। अजय बस्ती में बच्चों को मुफ्त की शिक्षा बांटता था क्योंकि उसे पता था की शिक्षा ही एक ऐसा माध्यम है जिसे ग्रहण कर हमारे बस्ती के लोग अभाव और कुरीतियों के दलदल से निकल पाएंगे।

अशोक वर्मा “हमदर्द”, लेखक

वो हमेशा भीम राव अंबेडकर जी के उस मुहावरा को बच्चों के सामने परोसते जिसमें कहा गया था की शिक्षा उस शेरनी के दूध के समान है जो पियेगा वही दहाडेगा, किंतु अजय का अपने बस्ती के बच्चों को शिक्षित करना गांव के दबंगों को अच्छा नहीं लगता था। उन्हें पता था की अगर बस्ती के ये बच्चे पढ़ लिख कर आगे बढ़ जाएंगे तो हम लोगों के यहां काम कौन करेगा, अतः वो लोग दलित बस्ती के लोगों को भड़काते थे और लोगों से ये कहते थे की अजय जो शिक्षा की घुंटी बच्चों को पिला रहा है इससे बच्चे बड़े होकर न खेती करेंगे न मजदूरी, नौकरी मिलने से रही। अजय को खुद देख लो पढ़ लिख कर क्या कर रहा है। आखिर उसे भी तो खेती ही करनी पड़ रही है। अगर तुम लोग नही समझे तो भूखे मरेंगे तुम्हारे बच्चे, हम लोगों का क्या बाप दादा की संपत्ति है चल जायेगी, नही तो कोई न कोई काम करने वाला तो मिल ही जायेगा।

इनके बहकावे का असर था की कुछ दलितों ने तो अपने बच्चो को पढ़ने तक पर भी पाबंदी लगा दी और अजय को भला बुरा कहने से भी नही चूकते। किंतु अजय इन सबों का परवाह किए बगैर अपनें मिशन में लगा रहा। समय बीतता चला गया आज अजय की मां ने दम तोड दिया था, उनके मरने के बाद अजय ने उनके कर्मकांड की तमाम व्यवस्थाएं की और नदी के तट पर दाह संस्कार के लिए पहुंचे। किंतु उनके मां के अंतिम संस्कार में केवल दलित बस्ती के लोग ही थे। अजय सोच रहा था की एक मैं हूं जिसे जब भी किसी के मृत्यु की खबर मिलती मैं स्वतः लोगो के यहां पहुंच जाता बिना किसी की परवाह किये हुए, कारण की इस पृथ्वी पर जन्म के बाद का सबसे बड़ा सच यह है की उसे एक न एक दिन मरना है ये सोच कर भी तो लोग आ सकते थे।

तभी अजय की तंद्रा भंग हुई और वो बड़बड़ाने लगा, ये कैसे हो सकता था की कोई सवर्ण मेरे मां के अंतिम यात्रा में आ जाता। जहां दलित बस्ती के लोग गांव के बीच से अपनें अपनों का शव को नही ले जा सकते है वहां साथ चलने का तो सवाल ही नहीं उठता।अजय यह सोच रहा था की एक तरफ तो लोग हमें हिंदू कहकर अपना हर कार्य करवा लेते है किंतु ये कैसी विडम्बना है की कुछ लोग भेद डाल कर हमें दूर रहने पर मजबूर करते है। कुछ देर बाद अजय के द्वारा मां का अंतिम संस्कार की क्रिया पूरी की गई और सब लोग घर की तरफ लौटने लगे, किंतु अजय के मन में वो बात घर कर गई थी जब घाट पर ब्राह्मण ने पूछा था की बेटा तुम्हारा नाम और जाति क्या है। उस समय अजय ने हाथ जोड़ कर कहा था की महाराज मेरा नाम अजय अंबेडकर है और मेरी जाति हिंदू है।

तभी ब्राह्मण ने कहा बेटा तुम्हारी वो जाति क्या है जिसके वंशज हो तुम। तभी अजय ने झुंझला कर कहा था की कभी आपलोग किसी मुसलमान की जाति पूछे है की वो धुनिया है, पठान है, शेख है, सैयद है जब भी आप उसका जाति पूछे होंगे तो वो केवल यही कहा होगा की हम मुसलमान है और आप चुप हो गए होंगे। रही सवाल आपके अनुसार तो हम दलित है और हमारे वंशज सनातनी थे और हम वैदिकधर्म के अनुयायी है, अब बताएं क्या करना है? यह सुन कर ब्राह्मण का मिज़ाज तन गया था किंतु उसने कुछ कहने से परहेज किया और शव को एक तरफ ले जाकर रखने की बात कही। अजय को बुरा लगा था वो उस पुरोहित के मंशा को भांप गया था वो सोच रहा था की मरने के बाद भी भेदभाव, फिर भी अजय इसका जिम्मेदार हिंदू समाज या कहे तो हिंदू धर्म को नही दे रहा था न हीं धर्म के संविधान के रचैता मनु महाराज को।

उसे पता था की ये जाति भेद तो ब्राह्मणों की देन है, जिन्होंने मनुस्मृति के भी काफी खंडों में मिलावट की है और गलत ढंग से लोगों के सामने परोसा है। घाट से लौटने के बाद अगली सुबह आगे के कर्मकांड के लिए चंदन पंडित के यहां पहुंचा किंतु चंदन पंडित ने यह कह कर अजय के यहां जाने से मना कर दिया की आज से सारा कार्य नाई करवाएगा, क्योंकि ब्राह्मण का कार्य अंतिम दिन का होता है। वो भी घर पर नहीं गांव के बाहर पीपल पेड़ के नीचे, तभी अजय ने बीच में हीं पंडित की बातों को काटते हुए कहा, पंडित जी कुछ कार्य घर के आंगन में भी होते है जहां ब्राह्मणों को बैठा कर भोजन कराया जाता है, फिर मेरे यहां यह कार्य किस दिन संपन्न होगा। यह कहकर अजय चंदन पंडित के उत्तर का इंतजार करनें लगा, तभी ब्राह्मण ने कहा- अजय मैं अपनें सिद्धांत को नही बदल सकता जो मेरे बाप दादा ने हमें सिखाया है, हम उस मार्ग पर चल कर तुम्हारे यहां भोजन नहीं कर सकते, अगर कर लिए तो अनर्थ हो जायेगा। हमारे समाज के लोग हमें अपनें बिरादरी से दूर कर देंगे।

अजय को यह बात लग गई, उसने ब्राह्मण से कहा की देवता हम लोग क्या एक गोबर से भी गये गुजरे है जहां एक तरफ आप गोबर से गणपति बनाकर उसे पूजते है और दूसरी तरफ पंचतत्व से बने भगवान का अनादर करते है, आपके इस विभेद वाली नीति के चलते आज मैं प्रतिज्ञा करता हूं की आज के बाद मेरे यहां पूजा पाठ हर कर्मकांड तो होगी, किंतु मेरे और मेरे चाहने वालों के यहां ब्राह्मण नही आएंगे। सारा कार्यक्रम हम और हमारे लोग पुस्तक की मदद से खुद करेंगे। इसलिए की मैं सच्चा मनुवादी हूं जिन्होंने कहा था की “जन्मना जायते शुद्रः, कर्मणा द्विज उच्च्येत” अर्थात जन्म से सभी शुद्र होते है और कर्म से ही वो ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र बनते है। मनुवाद के अनुसार बस ज्ञान बोध की आवश्यकता है। अब जरूरत नहीं आप जैसे सोच वाले लोगों की, आप क्या मुझे अछूत समझेंगे आपकी सोच के लिए मैं आपको अछूत की श्रेणी में रखता हूं। कह कर अजय वहां से चल दिया था।

वहां से लौटने के बाद अजय नाई की सहायता से सारा कर्म काण्ड खुद किया और गरुण पुराण का पाठ भी किया जहां ज्यादातर दान पुण्य की बात कही गई थी। अजय ने दान पुण्य को महादलितों को देने का आग्रह वहां बैठे लोगों से किया न की ब्राह्मणों को। गांव के दलित बस्ती के लोग एक तरफ जहां खुश थे वहीं गांव के कुछ लोग कानाफूसी कर रहे थे। उन्हें लग रहा था की ऐसा कर के अजय ब्राह्मणों का अपमान कर रहा है। आज तेरहवीं था अजय ने भोज का व्यवस्था न कर के उसी पैसों से बच्चों के लिए पुस्तक, कॉपी, कलम वितरित किया साथ ही साथ वस्त्रहीन असहाय बच्चों में वस्त्र। इस काम में अजय की पत्नी भी बढ़चढ़ कर हिस्सा ली और लोगों से आग्रह किया गया की मौत पर मौज करनें वालों से दूर रहे और अपने परिजनों के मृत्यु उपरांत उनके नाम से पांच वृक्ष लगाएं और असहाय लोगों में यथा समर्थ उनके अभाव की वस्तु का वितरण करे। इतना करने के बाद दोनों पति पत्नी अपनें मां के नाम पर वृक्ष लगाने चल पड़े।

अजय को लग रहा था की इस कार्य से उसकी मां काफी प्रसन्न होगी और होती क्यों नही ऐसे होनहार बेटे को जो जन्म दिया था।किंतु एक कहावत है की मनुष्य हमेशा अपनों से ही हार जाता है यह सब गांव के ब्राह्मणों से देखा नही गया तो वो लोग दलित बस्ती के कुछ लोगों को ठीक कर उनके माध्यम से दलित बस्ती में एक अफवाह फैला दिया की अजय की मां का ब्राह्मणों के हाथ से कर्मकांड न होने के कारण उसकी आत्मा गांव में घूम-घूम कर रो रही है। उसे मुक्ति चाहिए, वो इस योनि बंधन से मुक्त होना चाह रही है। यह बात गांव में आग की तरह फैल गई और गांव के दलित बस्ती के लोग चंदन पंडित के दरवाजे पर आकर अनुनय विनय करने लगे। कहने लगे की महाराज आप किसी तरह इस आत्मा को मुक्ति दिलाईए नही तो हम लोगों का रहना मुश्किल हो जायेगा। अफवाह का बाजार गर्म था अब कही न कही से लोग कहने लगे की अजय की मां मेरे सपने में आई थी तो कुछ का कहना था की हमने तो साक्षात रोते हुए देखा है।

बात अजय के भी कान में उड़कर आ रही थी वो भी लोगों के इस रवैया से परेशान था। उसे पता था की हमारा समाज जो सैकड़ों वर्षों से अंध विश्वास में पड़ा है इतनी जल्दी कैसे ठीक हो सकता है। अजय ने एक रास्ता निकाला वो अपने एक दोस्त को तांत्रिक के रूप में स्थापित कर अपनें घर पर एक पूजा का आयोजन किया। उस दिन बस्ती के काफी लोग जुटे थे अजय के घर पर, पूजा आरंभ हुई तभी अजय के पत्नी के ऊपर अजय के मां की आत्मा आ गई, जो पहले से स्क्रिप्टेड था। लोगों में हलचल सी मच गई, लोग हाथ जोड़ कर उस आत्मा से चले जाने का आग्रह करने लगे तभी तांत्रिक ने एक घड़े में उस आत्मा को बंद करने का अभिनय किया। लोगों को लगा की आज से ये आत्मा किसी को परेशान नहीं करेगी और मिट्टी के घड़े के मुंह को मिट्टी की लेप से बंद कर दिया गया। कुछ क्षण बाद अजय की पत्नी सरोज शांत हो गई और पानी पीकर घर के अंदर चली गई। यह सब देख कर बस्ती के लोगों को शांति मिली और विश्वास हो गया की अब ये आत्म हम लोगों को तंग नहीं करेगी क्योंकि अब वो तांत्रिक के पास कैद हो चुकी थी।

चंदन पंडित का यह चाल नहीं चल पाया, वो अब दूसरी तरकीब खोज रहा था। समय बीतता चला गया किंतु चंदन पंडित प्रतिशोध की अग्नि में जल रहा था फिर वो कहने लगा की इस गांव में अनर्थ होने वाला है क्योंकि कुछ लोगों ने ब्राह्मण का अपमान किया है, जिससे ब्रह्मा नाराज है वो इसकी सजा गांव वालों को देंगे या तो इस अजय को गांव निकाला करो या फिर दैविक सजा भोगनें को तैयार रहो। लोग अब अजय से कतरानें लगे थे लोगों को ये लग रहा था की अगर हम लोग अजय से किसी प्रकार का रिश्ता रखेंगे तो भगवान नाराज़ हो जायेंगे। अब तो लोग अपनें बच्चों को भी अजय के पास पढ़ने को नही भेज रहे थे। अजय को पता था की सब उसी चंदन पंडित का किया धरा है अतः अजय ने भी यह प्रण कर लिया की वो भी चंदन पंडित और तमाम पंडितों के मति भेदन को उजागर करेंगे। इधर गांव के ही दलित बस्ती में रहने वाले लंकेश राज जो दलित उत्थान पार्टी का मुखिया था को चंदन पंडित ने मिला लिया और अजय पर पूजा-पाठ, धर्म-कर्म, आडम्बर का आरोप लगाकर उसे मनुवादी विचारधारा से पोषित बताकर दलितों को भड़काना शुरू किया।

अब तो अजय दोनों तरफ से पीस रहा था उसे पता था की मैं अकेला नहीं जो सच्चाई के रास्तों पर चल कर परेशान हूं मेरे जैसे तमाम लोग है जिन्हें इन खास वर्ग के लोगों द्वारा परेशान किया जाता है। शाम का समय था चारों ओर अंधेरा फैला हुआ था अजय अपनी खेत की तरफ से आ रहा था, तभी उसने देखा एक पेड़ की ओट में कुछ लोग बैठ कर अजय की ही बात कर रहे थे। अजय जैसे ही अपना नाम सुना उसके कान खड़े हो गए वो छुपकर सुनने लगा। लंकेश से चंदन पंडित कह रहा था लंकेश हम जानते है तुम दलितों का मसीहा बनकर ईसाई मिशिनरी के लिए काम करते हो, मैं चाहता हूं की कुछ दिन तुम मेरे लिए काम करो, तुम्हारा जो भी बनता है मैं दूंगा। मैं चाहता हूं की न मैं खाऊंगा न खाने दूंगा। जब तक इस बस्ती के लोग हिंदू बनकर रहेंगे तब तक अजय का सिक्का चलता रहेगा। मैं चाहता हूं की तुम इन ईसाइयों से मिलकर सबको ईसाई बनाने के लिए जोर लगा दो, जिसमें मेरा भी योगदान रहेगा।

इस सब बातों को सुनकर पहले तो लंकेश राज चौका फिर सहज हो गया वो सोचने लगा की आखिर चंदन पंडित को मेरे धर्मान्तर वाले मुहिम का पता कैसे चला, खैर! जो भी हो लंकेश राज का यह मिशन चंदन पंडित का साथ मिलने के कारण और सहज हो गया और वो राजी हो गया। किंतु इन सारी बातों को अजय अपनें मोबाइल में रिकार्डिंग कर रहा था। तभी लंकेश राज ने चंदन से कहा यह सौदा बहुत महंगा होता है इसके लिए काफी लोगों को लगाना पड़ता है जो लोगों के भीतर जाकर लोगों का ब्रेनवास करे अतः इस काम के लिए मेरा डिमांड पूरा करना होगा, आप मेरी मांग पूरा कीजिए मैं आपका काम पूरा कर दूंगा कुछ देर बाद चारों उठ कर चल दिए और अजय सोचता रह गया की मनुष्य क्या पैसों के लिए इतना गिर सकता है।

दो तीन दिन बाद दलित बस्ती में एक मीटिंग हो रही थी और लंकेश राज उस मीटिंग का नेतृत्व कर रहा था। वो माइक से बोल रहा था की हम हिंदू होते हुए भी हिंदू नही रह गये है अगर हम हिंदू होते तो ब्राह्मण हमलोगों के यहां भोजन क्यों नही करते, इसी का नतीजा है की अजय के मां की आत्मा आज भी एक घड़े में बंद है। आप सोचिए अगर आपको कोई किसी घर में बंद कर दे तो आप परेशान हो जाते है वो तो पूरी तरह बंद है जिसका प्रभाव हम गांव वालों पर पड़ेगा। हम सारे दलित भाइयों को एक जुट रहने की आवश्यकता है मेरा मानना है की अगर ऐसा भेदभाव होता रहा तो हम लोग सामूहिक धर्मांतर कर लेंगे। तभी भीड़ चिल्लाने लगी और लंकेश को लग गया की मेरा निशाना सही जगह लगा है। आप लोग सुन लीजिए यहां पंडित भी है और मेरी बातों को सुन रहे है उन्हे मंच पर आना होगा और कहना होगा की मैं आप लोगों के साथ सामूहिक भोजन करूंगा अन्यथा हम सब दूसरा धर्म अपना लेंगे।

तभी चंदन पंडित भीड़ से ही चिल्लाने लगा ऐसा कभी नही होगा, हम ब्राह्मण कभी तुम्हारे लोगों के साथ बैठ कर भोजन नहीं करेंगे, जिसको जो धर्म अपनाना है अपना ले हम लोगों का कुछ नही जाता। तभी मंच पर बैठे एक ईसाई ने खड़ा होकर कहा पंडित जी आप मत अपनाइए इन्हें, मैं इन लोगों के साथ खड़ा हूं मैं इन लोगों को गले लगाऊंगा। मेरे धर्माचार्य इनके साथ सामूहिक भोजन करेंगे मेरे यहां कोई उच्च नीच नही होता आप लोग मेरे साथ रहने को तैयार है। तभी सभी लोग हाथ उठाकर चिल्लाने लगे हां-हां हम लोग तैयार है। तभी अजय ने उठ कर आवाज लगाई और मंच पर चढ़ कर माइक को पादरी के हाथ से छीन लिया। भाइयों एवम बहनों आप लोगों को किसी धर्म में जाने की आवश्यकता नहीं है दुनियां का सबसे उदार धर्म है मेरा जहां केवल अपना और अपने भारत की बात नही बल्कि पूरे वसुधैव की बात की जाती है जहां का मूल मंत्र ही वसुधैव कुटुंबकम् है जो पूरे विश्व को बंधुत्व के साथ रहने की बात करती है।

रही बात पंडित की जो आपके यहां खाते नही तो सुनिए ये पंडित ही नहीं, पंडित तो वो है जिसके अंदर पांडित्य हो जो व्यसन से दूर मांसाहार भोजन न करता हो। जो काम, क्रोध, मद, लोभ से दूर मानव कल्याण की बात करता हो। जिसके अंदर किसी प्रकार का जाति भेद न हो। जो लोगों के बीच शिक्षा बांटता हो, पंडित मैं हूं, पंडित वो व्यक्ति है जो विद्या दान देता है। आज के ये पंडित केवल लीलावती, कलावती और सेठ की घटना के अलावा आप को क्या दिये। एक समय था जब हम विद्यालय जाते थे और शिक्षकों को पंडित जी और गुरु जी कहते थे चाहें वो किसी जाति का क्यों न हो। हमारे मनु महाराज ने तो अपने मनु स्मृति में एक एक कदम पर जन्मना जाति को गलत ठहराया है और जाति को कर्मणा माना है। यह आप लोगो को तभी पता चलेगा जब आप लोग उच्च शिक्षा प्राप्त कर मनु स्मृति को पढ़ेंगे और उसका सही अर्थ समझेंगे। उसमें भी मिलावट की गई है जो कुछ स्वार्थियों की देन है जो मुगलों और अंग्रेजों से लाभ लेने के लिए ऐसा किये और हम हिंदू बंटे।

आज आपलोग जिसे अपना हमदर्द समझ रहे वो वो भी विदेशी पैसों से पोषित है। जिसे जाति और जाती में भेद नहीं दिखता जो संकर और शंकर को एक जैसा समझता है और लिखता है। वो भी आप लोगों को मनुस्मृति को गलत ठहराता है। तभी लंकेश चिल्लाने लगा आप लोग इस व्यक्ति की बातों में न आएं, यह व्यक्ति मनुवाद से पोषित है यह आप लोगों को अपनें तरीके से रखना चाहता है आप लोग इसके झांसे में न आवे। तभी अजय ने चिल्लाकर कहा की हां हां मैं मनुवादी हूं किंतु आप एक बात बताओ, अगर आप अंबेडकर जी को मानते हो तो एक बात बताओ अगर आपकी मुहिम और आप जैसों की मुहिम अंबेडकर जी की राह पर है तो लोग हिंदू धर्म छोड़ कर बौद्ध धर्म क्यों नही अपनाते। ये दलित ईसाई धर्म क्यों अपना रहे है और आप तमाशबीन बन कर देखते हो, है इसका उत्तर? इसलिए की आप जैसे लोग ईसाई मिशनरियों द्वारा पोषित हो, जो भौतिक सुख सम्पदा से भरपूर होकर लोगों को क्रिश्चियन बनाने में सहयोग करते है जिसका प्रमाण मेरे पास है।

दूसरी तरफ संस्कृत के चंद श्लोक पढ़ने वाले लोग भी उतना ही दोषी है जिनकी जाति दलितों के यहां भोजन करने से चली जाती है। बहुत दिनों से सुन रहा हूं मेरे मां की आत्मा घूम रही थी, अब नही घूमती इसलिए की मैंने उस आत्मा को एक घड़े में कैद कर लिया है जैसा की आप लोगों ने देखा। यह सब झूठ था कोई आत्मा नही थी न ही सरोज पर मेरी मां की आत्मा आई थी। किंतु आप लोगों का विश्वास, मनुष्य जैसा सोचता है उसे वैसा ही दिखता है। इन्हीं भूत प्रेतों की कहानी सुनकर आप लोगों को भ्रम में रखा गया और कुछ लोगों को रोजगार मिला। यह तब तक चलता रहेगा जब तक आप और आपके बच्चे शिक्षित नहीं होंगे। यह सब एक सुनियोजित चक्रांत के तहत होता है, जो लोग अपनें स्वार्थ के लिए बनाते है और आपके पैसों से हर वो सुख भोगते है जिसकी कल्पना भी आप नही कर सकते। ऐसे तमाम बाबा है कुछ माताएं है जिनका अरबों का जागीर खड़ा है। आपके पैसों से और उनके कुछ पैसों से इस चंदन और लंकेश जैसे लोग पलते है और उनका मिशन कामयाब होता है।

अजय की तमाम बातों में सच्चाई थी लोग बड़े गंभीर होकर सुन रहे थे, तभी फिर एक बार चंदन खड़ा होकर आग में घी का काम करना चाहा वो बोल रहा था तुम लोग जितना ज्ञान दे दो, हम लोग इन दलितों के यहां खाने से रहे जिसको धर्म बदलना है बदले हम लोगों को इस से कुछ जाने का नही। तभी अजय ने कहा मुझे पता है न तो लंकेश को इन दलितों से प्यार है न हीं आपको। एक तरफ जहां आप अपने आप को श्रेष्ठ साबित करनें के किये बदले की भावना से ये सब कर रहे है वहीं लंकेश राज को लाखों करोड़ों का फंड चाहिए जो मिशनरियों द्वारा मिलता है। इस बात को सुनकर लंकेश चिल्लाने लगा, इतना बड़ा इल्जाम मत लगाओ तुम नही जानते मेरे एक आवाज पर तुम्हारी बोलती बंद हो जायेगी। तभी भीड़ से लंकेश राज के लोग भी से चिल्लाने लगे। अजय बस उन नौजवानों से इतना ही कह रहा था की मेरे मित्रों तुम और तुम्हारा अस्तित्व अमरबेल की तरह है जो परजीवी होता है। इसका जीवन किसी दूसरे के जीवन पर आश्रित होता है। जिस पेड़ को लेकर यह जीवित रहता है अगर वो खत्म हो गया तो अमरबेल का जीवन भी खत्म हो जाता है।

तुम सब नौजवान हो अपनें पैर पर खड़ा होना सीखो और पढ़ो तथा बाबा साहेब आंबेडकर के पथ पर चलो। कुरीति का त्याग करो, सनातन धर्म का नही, वैदिक सनातन धर्म को जानों जहां पूरी दुनियां के लोग हमसे जुड़ रहे है। सब राम कृष्ण के पीछे पागल है रूस में तो एक लहर सी चल पड़ी है क्या वो तुम लोगों से कम पढ़े लिखे है और तुम लोग अपने सनातन धर्मों को छोड़ने का चक्रांत चला रहे हो। अगर मेरी बात समझ में ना आए तो आप लोगों की आखें खोलने के लिए कुछ बातें सुना रहा हूं अजय अपनी मोबाईल को निकाला और लंकेश राज और चंदन पंडित के चक्रान्त को माइक के सामने रख कर सुना दिया। पब्लिक भड़क गई लोगों के समझ में आ गई की आज जो भी लंकेश जैसे लोग हम सबों के हित की बात करते है वो कहीं न कही छलावा होता है वो हमें भ्रमित कर के अपना उल्लू सीधा करते है।

पब्लिक की आवाज में लंकेश राज और चंदन की आवाज दब गई थी। अजय दोनों को हॉस्पिटल पहुंचाने की तैयारी कर रहा था। कुछ दिन बाद अजय कुछ लोगों की सहायता से गांव से दूर गुरुकुलम नाम से एक शिक्षालय का निर्माण करा रहा था, जहां जातिगत भेद भुलाकर कोई भी हिंदू संस्कृत का ज्ञान लेकर कर्मकांड की जानकारी ले सकता था जैसे भारत में कई संस्थाएं इस कार्य में जुटे हुए हैं। पूरे गांव में अजय जैसे लोग हिंदू धर्म तो नही छोड़े किंतु अपना कर्मकांड वो खुद करते है जहां जन्मना पंडितों की आवश्यकता नहीं है। सब स्वतंत्र है अपने विद्या से अपने कर्म काण्ड को करने के लिए। कहा गया है की हमारे विचार जीतनें स्पष्ट होंगे, ईश्वर को हम उतना ही स्पष्ट समझ सकेंगे क्योंकि आत्मज्ञान के लिये मस्तिष्क का स्वच्छ होना जरूरी है जो जाति से नही हमारे कर्म से हमें प्राप्त होता है।

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