अशोक वर्मा “हमदर्द” की कहानी : अछूत कन्या

।।अछूत कन्या।।
अशोक वर्मा “हमदर्द”

समाज में फैली छुआछूत और नशाखोरी की समस्या पर करारी चोट

आज अविनाश काफी खुश था, कारण कि आज झुमकी उससे मिलने वाली थी। महीनों लग गए थे झुमकी को राजी करने में। यही वजह थी कि अविनाश आज शाम ढलने के इंतजार में था। अविनाश जहां गांव के एक रईस खानदान का इकलौता वारिस था वहीं झुमकी गांव के एक छोटी जाति से ताल्लुकात रखने वाले की बेटी थी। कुछ दिन पहले वह शहर से गांव आई थी। उसकी सुंदरता की चर्चा थी। खड़े नयन नक्श वाली गजब की रूपवती थी। यही कारण था कि गांव के छोरे उस पर फ़िदा रहते थे। ऐसे तो झुमकी का लालन-पालन उसके चाचा के यहां बड़े शहर में हुआ था। वह वही से इंटर तक पढ़ाई कर अपनें गांव आ गई थी, अब यहीं उसके लिए उसके घर वाले एक अच्छे वर की तलाश में थे। इधर अविनाश गांव के ही एक स्कूल से नवमी तक पढ़ा था। वह अपनें पिता के साथ खेती-बाड़ी में हाथ बंटाता था।

एक दिन झुमकी पर नजर पड़ी तो वह देखता रह गया। तव्वजो पाकर झुमकी भी शरमा कर रह गई। एक दिन शाम को दोनों गांव से दूर एक पेड़ के नीचे मिले। ये इन दोनों की पहली मुलाकात थी। अविनाश घंटों झुमकी की जुल्फों से खेलता रहा, बातें होती रहीं।अचानक दोनों की तंद्रा भंग हुई, रात गहरा रही थी। झुमकी बोली, अविनाश काफी वक्त हो गया है घर वाले परेशान हो रहे होंगे अब चलें? अविनाश झुमकी के गालों को दोनों हाथों से पकड़ कर चूम रहा था और झुमकी आंखें बंद किए सिसकियां भर रही थी।वादा करो, कल फिर मिलोगी। अगर ना कही तो मैं यहां से जानें नही दूंगा।झुमकी को बाहों में समेटे अविनाश शरारत से बोलता जा रहा था। नहीं अविनाश, ऐसे रोज-रोज मिलना ठीक नही है। किसी ने भी देख लिया तो पूरे गांव में हंगामा हो जायेगा। बापू तो मुझे मार ही डालेंगे! यह शहर थोड़े ही है।

अविनाश झुमकी के हाथों को अपनें हाथों में लेकर बोला, हमारे रहते भला तुम्हें कोई कुछ कह सकता है? वह डर कर बोली, अगर बस्ती के लोगों ने हमें गांव से निकाल दिया या बापू पर जुर्माना लगा दिया तो? अविनाश ने मुस्कुराते हुए कहा, झुमकी मेरे रहते तुम्हे या तुम्हारे परिवार को ऐसा कुछ भी हुआ तो मैं तुम्हें दुल्हनियां बना कर शहर चला जाऊंगा और वहीं अपना दुनियां बसा लूंगा। तभी टार्च की रौशनी अपनी तरफ आती देख दोनों घबरा गए और पेड़ की ओट में छुप गए। शायद कोई राहगीर था। उन दोनों की सांसें थम सी गई थीं। राहगीर के जाते ही दोनों को राहत मिली। बचाते-बचाते दोनों अपनें घर लौट आए। तब से दोनों के मिलने-जुलने का सिलसिला जारी रहा। अब तक दोनों के बीच दूरी नही रह गई थी। दोनों एक हो चुके थे। कानों-कान यह चर्चा गांव के छोकरों के बीच आ गई थी। मगर दोनों किसी की परवाह किए बगैर छिपते-छुपाते एक-दूसरे से मिलते रहे।

अविनाश के पिता को भी इनके संबंधों की खबर लग चुकी थी। इकलौता बेटा होनें के कारण वह जो कुछ भी करता, उसके पिता राम संजीवन सिंह उसे नजरंदाज कर देते। लेकिन वह नही चाहते की किसी दलित लड़की के साथ उनके बेटे का संपर्क रहे। वह अब अविनाश का व्याह रचा देना चाहते थे। एक दिन अविनाश की शादी तय कर दी गई, लड़की अच्छे खानदान से थी। सब ठीक-ठाक देख कर अविनाश अपनें पिता की बातों को टाल न सका। झुमकी को जब इस बात का पता चला तो वह कुछ देर बुत बनी खड़ी रही, वह खुद को ठगा महसूस कर रही थी। वह बस दो शब्द अविनाश से पूछना चाह रही थी कि आखिर तुमने मेरे साथ ऐसा क्यों किया। साथ जीने-मरने का तुम्हारा वह वादा कहां गया? इधर अविनाश झुमकी से नजरें चुराने लगा था। एक तो गांव की लोक-लाज, दूसरे गरीबी, ऐसे में झुमकी क्या कर सकती थी। वह अब बुझी-बुझी रहनें लगी। एक दिन अविनाश झुमकी के घर पहुंचा और उसके पिता को अपनें तिलकोत्सव में आने का न्यौता दिया और उसने साथ में झुमकी को लाने के लिए भी कहा था।

आज अविनाश का तिलकोत्सव था। सारे रिश्ते-नातेदार उसके घर आए थे। जब झुमकी और उसके पिता पहुंचें तिलकोत्सव का कार्यक्रम चल रहा था। झुमकी भीड़ में जाकर गांव की रश्मों को देखना चाह रही थी। मगर उसके पिता को यह बात अच्छी तरह मालूम थी कि झुमकी का लोगों के बीच जाना अच्छा नहीं रहेगा। कारण, गांव और शहर की मानसिकता में काफी अंतर है। आज भी भारत के गांवों में जाति, भेदभाव, उच्च-नीच और अमीर-गरीब की बातें कायम है। वह बार-बार झुमकी का हाथ पकड़ कर पीछे की तरफ खीच रहे थे। तभी झुमकी बोली, क्या हुआ है बापू, सारे लोग रस्म तो देख रहे है। अगर मैं भी अंदर जाकर देखूं तो क्या बिगड़ जायेगा? तभी पिता ने झुमकी से कहा, तुम नही जानती बेटा, गांव के ऊंची जाति के लोग हमें अछूत कहते हैं, लोग हमसे दूर ही रहते हैं। हम लोगों के स्पर्श से इनका जाति-धर्म भ्रष्ट हो जाता है। तभी मासूम झुमकी सोचने लगी कि अगर मेरे स्पर्श मात्र से लोग अछूत हो जाते है तो अविनाश मुझे इतने दिनों से क्यों स्पर्श करता रहा?वह हमेशा क्यों कहता रहा कि झुमकी तुझे छूने से जो खुशी हमें मिलती है, वह कहीं नहीं मिलती। क्या अविनाश इतने दिनों से मुझसे छल कर रहा था? झुमकी इसी सोच में डूबी थी कि तिलकोत्सव की रस्म खत्म हो गई।

अब खानें की रस्म शुरू होने वाली थी।अविनाश के पिता हाथ जोड़कर ब्राह्मणों से बोल रहे थे- ब्राह्मण देवता आप सब भोजन कर लीजिए। फिर सारे लोग भोजन करेंगे। झुमकी सोच रही थी कि गजब का नियम है। ये ही गांव वाले शहर जाते है तो इनके नियम कायदे कहां चले जाते है? शहर में तो सारे लोग भेद-भाव मिटाकर एक साथ भोजन करते है। वहां खाने पर कोई किसी की जाति पूछ कर नही बैठता। वह अभी सोच ही रही थी कि ब्राह्मण भोज समाप्त हो गया अविनाश के पिता हाथ जोड़कर ब्राह्मणों से बोल रहे थे- देवतागण कोई गलती हुई हो तो क्षमा कर दीजिएगा। ब्राह्मण अपनें पेट पर हाथ फेरते हुए एक-एक कर चल पड़े थे। तभी अविनाश के पिता की नजर झुमकी के पिता पर पड़ी और वह बोले- अरे महंगू तूं मुंह क्या देख रहा है? जा पत्तल उठा और भी लोग खानें पर बैठेंगे। जी मालिक। महंगु झुमकी को वहीं खड़ा कर पत्तल उठाने लगा।

झुमकी को आज गांव की ऊंची-नीची सोच का पता चल गया था। तभी अविनाश झुमकी को देख कर उसके करीब आ गया और बोला, महंगू , इधर गांव के ऊंचे वर्ग के लोग खा रहे है। तुम इधर झुमकी को लेकर अपनें लोगों के साथ बैठकर खा लो। इधर झुमकी को बाप का पत्तल उठाना, बेटे की उम्र के अविनाश का उसे “तुम” कहकर संबोधन करना विचलित कर रहा था।वह बार-बार बोल रही थी, बापू मुझे नही खाना, घर चलिए। तभी अविनाश झुमकी से बोला, बिना खाए जानें की ज़िद क्यों कर रही हो? तुम्हारे बस्ती के लोग उधर बैठ रहे है, तुम भी उनके साथ बैठकर खा लो। झुमकी झुंझलाते हुए बोली, मैं क्या जमीन पर बैठ कर खाऊं? क्या मैं कुर्सी पर बैठ कर नही खा सकती? मुझे भी इन लोगों के साथ जमीन पर बैठ कर खाना होगा? अगर यहां ऐसा नियम था तो मुझे क्यों बुलाया? अविनाश ने कहा, तूं नही जानती झुमकी, तुझे अगर कुर्सी पर बैठाकर खिला दूं तो पूरी ऊंची जाति के लोग उठकर चले जाएंगे।

आखिर क्यों? झुमकी ने अविनाश से पूछा, क्या मैं इंसान नही हूं? अरे मैं तो इन ऊंची जाति की बहू-बेटियों से कहीं अच्छी हूं जो अंगूठा लगाती है। मैं पढ़ी-लिखी हूं। झुमकी की आवाज कोई सुन न ले, इसलिए अविनाश बोल पड़ा, झुमकी अपनी जुबान पर लगाम लगाओ।
सच कड़वा होता है न अविनाश? इस लिए तुम तिलमिला गए हो। मैं अभी भी सच बोल रही हूं। कुर्सी पर खाना मेरे जैसे को ही शोभा देता है और नीचे बैठकर खाना उन गंवारों को जो ऊंची जाति से तो हैं, लेकिन निरक्षर है। अविनाश तिलमिलाता हुआ बोला, झुमकी हद में रहो।
आज मेरे खुशी का दिन है नहीं तो…!
नहीं तो क्या? अगर खिलाना है तो इज्जत से कुर्सी पर बैठाकर खिलाओ, नहीं तो बताना होगा कि मैं नीचे बैठ कर क्यों खाऊं? इधर महंगू अपनी बेटी को डांट रहा था। झुमकी ये बाबू साहब है इनके मुंह नही लगते। वर्षों से जो समाज का नियम है, उसे तो मानना ही पड़ेगा।

इतने में अविनाश बोल पड़ा, जानते हो महंगू, शहर क्या चली गई गांव के सारे नियम-कानून ही भूल गई। मैं नही मानती ये नियम जिसके आंख में किच्ची, पैर में बिवाई, मुंह से दुर्गंध, अंगूठा छाप, मगर जाति से ऊंची ऐसे लोगों को मैं अपनें सर पर बिठाऊं, गजब का नियम है। चुप रहो झुमकी बहुत जुबान चल रही है तेरी? हां… हां, मुझे बता दो कि अलग-अलग लोगों के लिए अलग-अलग ये नियम क्या ठीक है? और मैं… झुमकी कुछ बोलने ही जा रही थी कि अविनाश बीच में ही बोल पड़ा, तुम सुनना चाहती हो न कि तुम सबके साथ क्यों नहीं खा सकती, तो सुनो, इसलिए कि तुम अछूत हो।

यह सुनकर झुमकी के पैर तले की जमीन ही खिसक गई। आज उसे पछतावा हो रहा था। वह अविनाश के सामने बुत बनकर रह गई। झुमकी अपनें बापू का हाथ पकड़कर आंखों में आसूं लिए घर की ओर तेजी से चल पड़ी थी और अपनें बापू से पूछ रही थी- बापू आप और आपका समाज इतने अपमान के बाद भी इन लोगों का भोजन ग्रहण क्यों करते है? बापू अछूत तो हम उन्हें मानते है, जो साइबर युग में भी अपनी झूठी शानों-शौकत में पड़े हुए है। शहरों में यहां तक कि विदेशों में जाकर ये नीच कहे जाने वाले काम बड़ी खुशी-खुशी करते हैं और गांव में आकर ये बाबू साहब या मालिक कहलाते है। थूकती हूं ऐसे लोगों की सोच पर। आज समाज का कुरूप देखकर और अपनें साथ हुए छल से झुमकी एक पल भी गांव में नहीं रहना चाहती थी। वह ठान चुकी थी कि घटिया सोच रहने वाले लोगों को, समाज को आईना दिखाना है। उसने दोबारा अपनी पढ़ाई शुरू करनें का फैसला लिया और बापू को मजबूर होकर उसे शहर भेजना पड़ा। उसने वहां डुमरांव कॉलेज में दाखिला ले लिया था। दोगुनी लगन से पढ़ाई में मेहनत शुरू कर दी और एक दिन झुमकी की मेहनत रंग लाई। वर्षों की कड़ी मेहनत के बाद उसका चुनाव हो चुका था। वह एस.पी. बन गई थी।हर तरफ नीची कही जाने वाली जात की लड़की के एस.पी. बनने के चर्चे थे।

उधर, गांव में भी समय ने कई करवटें बदली थी। अविनाश की शादी को कई वर्ष गुजर गए थे। उसके चार बच्चे भी हो गए थे। अविनाश को शराब, गांजा, ड्रग्स की लत लग गई थी। बेटे के गलत रास्ते पर चलने के गम में पिता राम संजीवन सिंह की हार्ट अटैक से मौत हो गई थी। बहु और बेटे के सामने बूढ़ी मां दासी की तरह जिंदगी गुजारने को मजबूर थी। धीरे-धीरे जमीन जायदाद बिक चुकी थीं। अविनाश शाम को नशा करके आता और पत्नी व बच्चों के साथ मारपीट करता। परिवार में कलह होने लगा था। बच्चे भूख से रोते-बिलखते तो थोड़ी देर को अविनाश विचलित होता, लेकिन उस विचलन को दूर करने के लिए भी शराब का ही सहारा लेता। नशे में आकर वह सब कुछ भूल जाता। पत्नी अपनें किस्मत पर रो रही थी, लेकिन मजबूर थी। आज घर में कोई पैसा नहीं था। वह दिन भर इधर-उधर भटकता फिर रहा था। क्योंकि जब तक ड्रग्स या शराब गले से नीचे न उतार ले, उसे कहां चैन मिलता था।

वह ड्रग्स बेचने वाले के सामने गिड़गिड़ाता रहा, भाई मुझे थोड़ी सी दे दो। सिर्फ आज दे दो, कल सारा पैसा चुका दूंगा। अब मेरे पास कुछ नही बचा है। कहो तो अपनी बीबी…तभी ड्रग सप्लायर ने उसे जोरदार तमाचा मारा, साले मानता हूं कि मेरा धंधा ऐसा है, मगर किसी की इज्जत को मैं अपनी इज्जत समझता हूं। तभी अविनाश रो कर बोल रहा था, क्या करूं भैया अब मुझ से रहा नही जाता। स्प्लायर उसे घूर रहा था और कुछ सोच रहा था। मेरा माल कानपुर पड़ा है, उसे ला दो मैं तुम्हें ड्रग्स और पैसा दोनों दूंगा, सप्लायर ने उससे कहा तो वह एक दम तैयार हो गया। वह खुशी-खुशी घर पहुंचा और अपनी पत्नी से कहा कि उसे एक नौकरी मिल गईं है, जिसकी वजह से बीच-बीच में कानपुर जाना पड़ेगा। यह सुन कर पत्नी काफी खुश हो गई। उसे लगा कि अब उसके बुरे दिन समाप्त होने वाले है। अविनाश कानपुर के लिए निकल गया।

रात को सवा सात बजे थे कि पुलिस मुख्यालय में एक फोन आया- मैडम, पावर हाउस के पास ड्रग्स रैकेट के लोग ड्रग्स की बड़ी खेप के साथ पहुंच रहे है। वहां से पूरे भारत में ड्रग्स सप्लाई होगा, उसके बाद फोन कट गया। झुमकी उसी मुख्यालय में बतौर एस.पी. तैनात थी। उसने बिना वक्त गवाएं, दल-बल के साथ पूरे पॉवर हाउस को घेर लिया। अपने को घिरा देख ड्रग्स सप्लायर गोलीबारी करने लगे। अविनाश तो भौचक्का रह गया, उसकी समझ में नहीं आ रहा था कि यह क्या हो रहा है। वह वहां से भागने की कोशिश कर रहा था कि तभी पुलिस की ओर से चल रही दो गोलीयां उसकी पीठ और सिर में लगी वह वहीं ढेर हो गया। बाकी लोग भागने में कामयाब हो गए थे। झुमकी जब लाश के पास पहुंची तो दंग रह गई। वह सोचने लगी, गांव से इतनी दूर अविनाश तस्करी के धंधे में? ऐसी क्या मजबूरी थी? वैसे अविनाश की मौत से झुमकी का मन कुछ हल्का हो गया था। अविनाश के साथ जुड़ा कलंक उसकी मौत के साथ धूल गया था।झुमकी अभी सोचों में गुम थी तब तक एक सिपाही ने कहा, अच्छा हुआ साला मर गया पता नहीं कितनों का घर संसार बर्बाद करता। झुमकी सिर हिलाकर मन ही मन सोच रही थी कि सबसे पहले तो इसने मेरे ही जीवन में जहर घोला था। सिपाही लाश को गाड़ी में डाल पोस्टमार्टम के लिए ले गए। झुमकी ने किसी को यह नही बताया कि वह इस तस्कर को जानती है।अविनाश की जेब से मिले ड्राइविंग लाइसेंस से उसकी शिनाख्त हुई और उसके घर खबर भिजवा दी गई।

दूसरे दिन अविनाश की पत्नी रोते-बिलखते कानपुर पुलिस मुख्यालय पहुंची। उसके पास बिल्कुल पैसे नही थे, जिससे वह लाश को अपनें साथ गांव ले जा सके। झुमकी को उसके पत्नी पर दया आ रही थी।उसने लाश को गांव भिजवाने की व्यवस्था कर दी। गांव वालों ने मिलकर उसका अंतिम संस्कार कर दिया।जिसके पास लाश को गांव लाने के लिए पैसे नहीं थे, वह मृत्युभोज कहां से देती? ग्रामीणों को तेरहवीं पर पुड़ी-कचौड़ी खाने को नहीं मिली थी।कई दिन तक गांव में इस बात की चर्चा रही। गांव वाले चाहते थे कि जो थोड़ी-बहुत जमीन अविनाश के नाम की बची है, उसे बेच कर उसकी पत्नी गांव वालों को मृत्युभोज पर बुलाए।लेकिन अविनाश की पत्नी जानती थी कि यह जमीन का टुकड़ा बिक जाने से उसका रहा-सहा सहारा भी छीन जायेगा और बच्चे भूखे मर जायेंगे। झुमकी का प्रमोशन हो गया था। लाल बत्ती की गाड़ी उसे मिल गई थी। हर तरफ उसकी बहादुरी भरे कारनामों की चर्चा थी एक कड़क पुलिस ऑफिसर के रूप में। वह कुछ दिन की छुट्टी पर अपनें गांव आई तो सभी दंग थे।

झुमकी ने अपने घर से सीधे अविनाश के घर का रुख किया। उसे बराबर अविनाश की पत्नी की दुर्दशा का ख्याल आ रहा था। उसे वह भी याद आ गया जहां एक दिन उसे जमीन पर बैठ कर खाना खाने के लिए कहा गया था। आज उसके लिए अविनाश की पत्नी कुर्सी लेकर आई थी और अपने आंचल से पोछकर झुमकी मैडम को बैठने के लिए कह रही थी। झुमकी को अविनाश के चार बच्चों को देखकर दया आ रही थी। मां भी बिस्तर पर पड़ी कराह रही थी। चारो तरफ मक्खियां भिनक रही थी, तभी अविनाश की पत्नी ने कहा, दीदी आप मेरे घर आई हैं, मगर मेरे घर कुछ भी खाने को नहीं है जो आप को दे सकूं।मैडम हम तो भूखे रह लेते हैं, मगर बच्चों का भूखा रहना हमसे नही देखा जाता। हम तो किसी के घर काम भी नही कर सकते। क्योंकि ऊंची जाति की मुहर हमारे सिर पर लगी है। गांव के कई लोग मदद को आगे आते हैं, लेकिन उनकी मंशा ठीक नही दिखती। मैडम रुकिये, मैं तो बस बोलती ही जा रही हूं और दौड़कर अविनाश की पत्नी घर के अंदर से एक ग्लास में जल भर कर लाई, लीजिए मैडम। केवल जल ही पी लीजिए। प्रकृति ने कुछ चीज बिन पैसे मुहैया कराई है। अगर यह भी खरीदना होता तो मैं आपको ये न दे पाती। तभी झुमकी के बोल फूट पड़े, आप चिंता न करें, सब ठीक हो जायेगा। बच्चे हैं बड़े होकर कुछ तो करेंगे।

भूख से ये बचेंगे तब न कुछ करेंगे मैडम। आप कहें तो मैं आप के साथ शहर जा सकती हूं और आपके घर झाड़ू-पोछा कर के कुछ पैसे बच्चों के लिए कमा लूंगी। कम से कम कुछ तो होगा, जिससे हमारे बच्चों को सुखी रोटी तो नसीब होगी। मैं तो पढ़ना लिखना भी नही जानती। घर वाले झूठी शानों-शौकत में घर की देहरी भी पार नहीं करने देते थे। आप पढ़-लिखकर कहां से कहां तक पहुंच गई। अविनाश की पत्नी अपनें परिवार की झूठी शान पर रो रही थी। शराबी पति ने जमीन, जायदाद यहां तक कि पत्नी के जेवर तक बेच दिए। शहर कमाने के बहाने गया और लाश होकर लौटा, वह रोये जा रही थी। तभी झुमकी ने उसे ढांढस बंधाया- आप चिंता न करें। हर महीने मैं कुछ रुपए आपके बच्चों के लिए भेज दिया करूंगी। मगर एक काम जरूर कीजिएगा, मैं दलित बस्ती में एक अंग्रेजी माध्यम स्कूल खोलने जा रही हूं, उसमें अपनें बच्चों को पढ़ने जरूर भेजिएगा। गांव वालों के लाख मना करने के बाद भी बच्चों को अच्छी शिक्षा दीजिएगा। अब आपका दिन केवल आपके बच्चों की शिक्षा पर ही बदलने वाला है। झुमकी ने अपनें पास से पांच पांच सौ के दस नोट निकले और अविनाश की पत्नी को थमा दिए।एक मोबाईल फोन देने का आश्वासन दिया, ताकि उसके सुख-दुख की खबर ले सके।

अशोक वर्मा “हमदर्द”, लेखक /कवि

कुछ दिन बाद स्कूल बन कर तैयार हो गया। आज शुभारंभ होने वाला था।इधर अविनाश के बच्चे जब उस स्कूल में जा रहे थे तो ऊंची जाति के लोग आपस में चर्चा कर रहे कि अगर इसका बाप होता तो ये बच्चे दलितों के साथ बैठ कर पढ़नें को मजबूर न होते।तभी अविनाश की पत्नी तेज आवाज में कह रही थी, शर्म नहीं आती आप लोगों को? मेरा मर्द भी तो ऊंची जाति का ही था। मगर कर्म उसका नीच था। आप लोग भी तो ऊंची जाति से है। अगर आप लोग अपनें भविष्य के लिए एक स्कूल बनवा दिए होते तो क्यों बच्चे शिक्षा से वंचित रहते। ऊंच-नीच कर्म से होता है। इतने दिनों से मैं अपनें बच्चों के साथ भूखे मर रही थी, किसी ऊंची जाति वालों ने मेरी सुध न ली। अगर भूख की वजह से मैं गलत रास्ते पर चल निकलती तो आप लोग पंचायत कर मुझे दंडित करते क्योंकि आप लोगों के नजर में गलती सिर्फ औरतों का ही होता है। अरे हमारे बच्चों को मना करनें से अच्छा है कि आप लोग भी अपनें बच्चों को इस अंग्रेजी माध्यम के स्कूल भेजें। बच्चों का ही नहीं, पूरी ऊंची जाति का भविष्य सुधर जायेगा। वरना सभी का हाल किसी न किसी रूप में मेरे पति अविनाश जैसा ही होगा। आप लोगों को तो झुमकी मैडम के पैर पखारने चाहिए, जिसे आप सब ‘अछूत’ कहते है, उस बिटिया के चलते आपके गांव में लाल बत्ती की गाड़ी दिखाई दी। शिक्षा की रोशनी गांव आई। आपके गांव की दूर-दूर तक चर्चा हो रही है। यह तो हमारे गांव के लिए गर्व कि बात है। व्यंग करनें वालों को उनका जवाब मिल गया था। सभी सिर झुकाए कार्यक्रम में शामिल होने के लिए चल पड़े थे – विद्या सर्वे धनं प्रधानम।

(सूचना : यह कहानी पूरी तरह कॉपी राईट के अधीन है। लेखक की अनुमति के बिना यदि इस कहानी को तोड़-मरोड़ कर किसी भी रूप में अगर कोई पेश करता है तो यह कानूनन अपराध होगा।)

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