अशोक वर्मा “हमदर्द” की कहानी : सत्कर्म

अशोक वर्मा, कोलकाता। आज फिर अजय सर की पत्नी ने पूरे घर को अशांत कर रखा था। कुछ महिलाओं ने उनसे कहा था की घर पर अगर हमेशा ब्राह्मण को बुलाकर पूजा पाठ करवाया जाए तो घर में तरक्की और लक्ष्मी का वास होता है। इधर अजय सर इन सब बातों से बिल्कुल अलग विचार रखते थे। अजय सर शुद्र परिवार से थे, मगर उनके विद्वता के आगे बड़े-बड़े विद्वान भी इनका लोहा मान लेते थे। उनके पढ़ाए हुए बहुत सारे बच्चे अच्छे ओहदे पर चले गए थे। गांव से दूर के लोग इनकी बहुत इज्जत करते थे किंतु अपनें ही गांव में ऊंची जाति के लोग इनका तिरस्कार करते थे। वो केवल इसलिये की वो शुद्र परिवार में जन्में थे। फिर भी अजय सर इन सब बातों का परवाह नहीं करते, उन्हें पता था की भारत में ये छुआछूत आम बात है, हम तो क्या सावित्रीवाई फूले, बाबा साहब अम्बेडकर जैसे मनीषियों को लोग नही छोड़े तो मैं क्या हूं। आज अजय सर अपनें पत्नी को धर्म के बारे में समझा रहे थे।

वो कह रहे थे की धर्म बहुत ही गूढ़ विषय है यह केवल मात्र पूजा पाठ और ब्राह्मण दक्षिणा देने से मनुष्य धारण नही कर सकता। धर्म एक ऐसा भाव है जो पशु को मनुषत्व एवं मनुष्य को देवत्व में उन्नत कर सकता है। धर्म का अर्थ शास्त्र पाठ, तत्व की बातें या मतवाद नही, धर्म का अर्थ आदर्श स्वरूप होने की चेष्टा करना है। मनुष्य के लिये उसका चरित्र ही वास्तविक शक्ति है। आध्यात्मिकता का अर्थ है उस चरित्र शक्ति को अर्जन करना, पवित्र और निःस्वार्थ होने की चेष्टा करना, जिसमें ही समस्त धर्म है। मनुष्य चाहें वो किसी जाति-धर्म मज़हब का हो उसे सच्चा सुख या सच्चा धर्म तभी प्राप्त होगा जब वो अपनें या अपनें परिवार, अपनें धर्म अपनी जाति के अलावा भी दूसरे की चिंता करे। इसे ही समीचीन धर्म या सच्चा धर्म कहते है। मनुष्य को केवल इसके स्वरूप को समझने की जरूरत है। ऐसे भी किसी महात्मा ने कहा है — देशयामी समीचीनं,धर्म कर्म निवहर्णम।
संसार दुखतः सत्वांनयः धरत्युतमे सूखे।।
अर्थात जीवन मात्र को सांसारिक दुःख व कर्म बंधन से छुटकारा दिलाकर सर्वोत्कृष्ट सुख की प्राप्ति करा दे वही धर्म है।

जहां मानव संसार के तमाम प्राणी सहित मानव कल्याण में आने वाले समस्त उपयोगी वस्तु अथवा संतति के प्रति श्रद्धा और भक्ति ला दे वही धर्म है। अजय सर पाषाण, अग्नि, वनस्पति सहित तमाम विषयों को धर्म से जोड़ कर अपनें पत्नी को समझा रहे थे। तभी उनकी पत्नी ने खीझते हुए कहा, आप तो ऐसा भाषण दे रहे है जैसे मानो पंडित हो गये है। हम कुछ नही जानते हर हालत में इस बार पूर्णिमा के दिन घर पर हवन यज्ञ, पूजा पाठ होनी चाहिए और हां इस बार इक्कीस ब्राह्मणों को भी भोजन कराना है वो भी दक्षिणा सहित। आप अपना तैयारी कर लीजिएगा, तभी अजय सर ने मजाकिया अंदाज में अपनी पत्नी से कहा, क्यों इक्यावन दरिद्र नरायणों को भोजन कराने से और उन्हें यह दक्षिणा देने से लक्ष्मी खुश नहीं होगी? तुम कहो तो अपनें बस्ती के दीन हीन लोगों को बुला लूं जिसे पुड़ी-कचौड़ी कभी नसीब नही होती। इतना सुनते ही अजय सर की पत्नी चिल्लाने लगी, हां-हां इन्ही लोगों को बुला लीजिए मैं चली अपनें मायके, जहां मेरे बात की कद्र नहीं मैं वहां एक पल भी नही रह सकती। तभी अजय सर ने हाथ जोड़कर कहा, अरे भाग्यवती जैसी आप की इच्छा मैं तो आपके हुक्म का गुलाम हूं और दोनों खुश हो गए।

कई दिन गुजरने के बाद पूर्णिमा आने वाला था उसके पहले ही अजय सर गांव से कुछ दूर दूसरे गांव पहुंचे जहां उनके पुरोहित रहते थे। वहां जानें के बाद बाहर एक खटिया पर बैठे उनके पुरोहित ने कहा, आओ आओ मास्टर बहुत दिन बाद आए हो घर में कोई मंगल कार्य होने वाला है क्या? तभी अजय सर ने उन बूढ़े ब्राह्मण पुरोहित का पैर छुना चाहा, तभी ब्राह्मण ने पैर पीछे कर तपाक से बोला, दूर से ही प्रणाम करो, बोलो क्या बात है? अजय सर घबड़ा गए थे यह अपमान देखकर फिर भी उसने कहा पंडित जी हमारे यहां सत्यनारायण की कथा पूर्णिमा को है, आप को चलना होगा, तभी ब्राह्मण पुरोहित ने आवाज लगाई, रामदीन वो रामदिन अरे भाई एक बिठई लाओ, लोग आए है बैठेंगे। तभी अजय सर ने कहा नही पंडित जी हम खड़े रह लेंगे कोई बात नही, हां पूर्णिमा इस मंगलवार को है, आप सुबह दस बजे तक आजाइएगा और साथ में इक्कीस और ब्राह्मण देवता को भी ये खबर दे दीजिएगा। उस दिन का भोजन मेरे घर पर है, तभी खटिये पर बैठे ब्राह्मण ने अजय सर से कहा, मास्टर मेरी तो उम्र हो गई कहीं आने जाने में मुझे बहुत तकलीफ होती है अब ये सब काम मेरा बेटा करवाता है बैठो अभी वो आ जायेगा।

इधर अजय सर को ये पता था की ये बूढ़ा ब्राह्मण मेरे घर का पानी नहीं पीता तो वो खाना कैसे खाएगा। अभी सोच ही रहे थे की ब्राह्मण का बेटा मार्कण्डेय आ पहुंचा। उसने अजय सर को देखते प्रणाम किया। एक शुद्र को ब्राह्मण का प्रणाम कहना उस बूढ़े ब्राह्मण को काफी तकलीफ दे गई, मगर वो कुछ कह नही पाए अतः उसने अपनें बेटे से कहा मार्कण्डेय मंगलवार को पूर्णिमा है उस दिन मास्टर के घर पर पूजा करवाना है तुम चले जाओगे।तभी अजय सर ने कहा ये मेरा पढ़ाया हुआ छात्र है पढ़ने में बहुत कमजोर था। हमनें इसे पढ़ाने का बहुत प्रयास किया था मगर इसने तो नही पढ़ने की ठान ली थी, खैर! मार्कण्डेय तुम और भी इक्कीस ब्राह्मणों को अपनें साथ लेकर आओगे। मेरी पत्नी चाहती है की पूर्णिमा के दिन इक्कीस ब्राह्मणों को हम अपने यहां भोजन कराकर वस्त्र और दक्षिणा देकर पुण्य का लाभ कमाऐं। तभी मार्कण्डेय ने कहा, ठीक है देखते है सबको खबर दे देंगे, आप चिंता न करें।

अजय सर वहां से चल पड़े थे। मगर उन्हें बुरा लगा था इस बात का की इतने बड़े खटिया के रहते अलग से हमें नीचा बैठाने के लिये बिठई मंगाई जा रही थी। एक बार उस ब्राह्मण ने अपनें साथ बैठने को इस लिए नही कहा की साथ बैठने से उसका जाति छोटा हो जाता, किंतु उस व्यक्ति ने मेरे बारे में ये नही सोचा कि मैं शुद्र होते हुए ब्राह्मणों के कार्य को करता हूं। शिक्षा का विस्तार कर के न जानें कितने रत्न पैदा किये है, अरे इन लोगों ने तो अपनें स्वार्थ के लिए मनुस्मृति का भी गलत व्याख्या किया और उसे गलत तरीके से प्रचारित किया जहां ब्राह्मणों को जन्मना नहीं कर्मणा माना गया है। गज़ब की ये परंपरा बना दिये है। अगर मेरे पत्नी अपनें हठ पर कायम नही होती तो इन जैसे गवारों को हम सर पर नही उठाते, जो चंद संस्कृत के श्लोकों की वजह से हमें अपनें पैर पर गिराते है और अनपढ़ होने के बाद भी यह धर्म भीरू समाज इन्हे पूजते है। जब बाजार से खरीदे पुस्तकों को पढ़कर ही सत्यनारायण की पूजा करवानी है तो मेरा तो उच्चारण भी उन मार्कण्डेय जैसे कमजोर छात्र से अच्छा होगा जिसे क्लास में हिंदी भी शुद्ध पढ़नें नही आती थी। मगर क्या कहूं, मेरी पत्नी कहती है की ब्राह्मण के मुंह से निकाला हर शब्द शुद्ध होता है वो शब्द गलत ही क्यों न हो।

अजय सर सोचते सोचते घर पहुंच गये थे। तभी उनकी पत्नी ने बड़े ही खुशी से पूछा, ब्राह्मण देवता को बोल दिए सब ठीक ठाक है न, दो दिन बचे हैं बस तैयारी में लग जाइए, कोई चीज छूटे नहीं इसका ख्याल रखिएगा और हां आप तमाम ब्राह्मणों के लिए के लिए एक गंजी और एक गमछा जरूर दीजिएगा। अर्थ सहित वस्त्र दान का भी यहां नियम बनता है। अजय सर मन ही मन यहां गुस्सा रहे थे। मगर वो क्या कर सकते थे। देखते ही देखते पूर्णिमा का दिन आ गया। सुबह से ही लोग साफ सफाई में लग गये। उतने लोगों के भोजन की व्यवस्था के लिए हलवाई बुलाया गया था। बड़े धूम धाम से पूजा की तैयारी हुई थी। मार्कण्डेय पंडित ठीक समय से पूजा स्थल पर पहुंच चुके थे। उनके साथ आठ दस छोटे छोटे बच्चे थे और एक-एक कर के और आ रहे थे। पूजा आरंभ हो गई थी। अजय सर और उनकी पत्नी दोनों पूजा पर बैठे थे। औरतें, बच्चे, बूढ़े सभी हाथ जोड़कर पंडित जी की बातों को सुन रहे थे। बड़ा ही मनोरम दृश्य था। अजय सर को भी ये वातावरण काफी लुभा रहा था। वो कह रहे थे की सही ही कहा जाता है की जहां पूजा पाठ होती है वहा का वातावरण शुद्ध हो जाता है।

पंडित जी परंपरा को निभाते हुए लीलावती और कलावती सहित सेठ की पुरानी घटना को बड़े ही शान से सुना रहे थे। बीच-बीच में घंटी और शंख ध्वनि से वातावरण खुशनुमा बन रहा था। इसी बीच बस्ती के एक शिक्षित नौजवान ने बीच में ही पंडित जी से एक प्रश्न कर डाला। पंडित जी आप तो ये घटना बता रहे है, हम लोगों को वो कथा बताइए जिसे न सुनने से लीलावती कलावती और सेठ को मुसीबत का सामना करना पड़ा था। तभी पंडित जी ने कहा हिसाब में रही यजमान ज्यादा बुद्धिमान मत बनो, दो अक्षर क्या पढ़ गए धर्म का मजाक उड़ा रहे हो, अनर्थ हो जायेगा। तभी उस लड़के ने विनम्रता पूर्वक हाथ जोड़कर कहा, ब्राह्मण देवता मेरा उद्देश्य धर्म को धारण करने का है किन्तु जब तक मैं उस रहस्य को नहीं जानूंगा या फिर मेरे शंका का समाधान नहीं होगा तब तक मैं और मेरा मन विचलित रहेगा। मुझे माफ कीजियेगा मैंने आप से सच जानने की कोशिश की थी।

तभी अजय सर की पत्नी ने श्रद्धापूर्वक हाथ जोड़ कर कहा, देवता अनर्थ की बात मत कीजिए हम लोगों का क्या दोष, फिर उस लड़के से भी आग्रह किया बेटे पंडित जी जो कहते है उसे सुनों, हमारे पूर्वज भी इसी कथा को सुनते-सुनते परलोक सिधार गये है। इसके ऊपर कोई भी बात करनी ठीक नहीं है। इधर अंतिम अध्याय चल रहा था, आरती का समय आ गया।अतः आरती के बाद लोग खुल्ले पैसे थाली में डाल कर आरती लेकर अपनें सर पर स्पर्श करा रहे थे। तभी दक्षिणा के लिए मार्कण्डेय पंडित ने कहा, मास्टर जी अब अंतिम विधा है दक्षिणा एवं ब्राह्मण पूजन की, तभी अजय सर ने 251रूपये सहित वस्त्र लाकर अपनें शिष्य यानी मार्कण्डेय के हाथों में रखना चाहा, किंतु मार्कण्डेय ने उसे स्वीकार नहीं किया और अजय सर से कहा सर हम आपके शिष्य विद्यालय में थे, यहां हम आपके पुरोहित बन कर आए है, यह दक्षिणा आप को मेरे पैर पर रख कर हमसे आशीर्वाद लेना होगा, तभी यह यज्ञ पूरा होगा अन्यथा यह अधूरा ही रहेगा।

अपनें छात्र के इस बात पर अजय सर को सांप सूंघ गया हो, कुछ क्षण के लिये वो धर्म संकट में पड़ गए थे और अंततः उन्होंने फैसला किया की मैं यहां इस मिथक को तोड़ूंगा। अगर ऐसा होता है तो एक शिक्षक का अपमान होगा, जो अपनें ही विद्यालय के एक छात्र के सामने हारेगा जिसे अपनी मातृभाषा का भी शुद्ध उच्चारण करने में कठिनाई होती है अतः अजय सर ने स्पष्ट रूप से यह कह दिया की ऐसा कभी नहीं होगा। आपने जो मेरे यहां परिश्रम किया मैं उसका पारिश्रमिक दे रहा हूं फिर पर पर क्यों गिरूं। अगर संस्कृत के चंद शब्द को पढ़ कर आप ज्ञानी बनें हुए है तो उन शब्दों का ज्ञान भी हमनें ही करवाया है जिसके बदले हमनें केवल अपनें राष्ट्र, धर्म, समाज और सत्कर्म करनें की वचन मांगी थी। जिससे केवल हमारा ही नही तुम्हारा और तुम्हारे कुल को भी गौरव हासिल होता। मगर तूने तो मुझे उलझन में ही डाल दिया।

तभी अजय सर की पत्नी ने कहा क्या हुआ है हम इनके पैर पर सर पटक लेंगे। तभी अजय सर ने अपनें पत्नी को जोर से डांटा और कहा चुप हो जा तुम, अब ये मामला गुरू शिष्य का है। हम तो धर्म के स्वरूप को धारण करने के लिये इतना बड़ा कार्यक्रम किये हैं। किंतु मैं नहीं चाहूंगा की एक शिक्षक का अपमान कर ये अधर्म करूं। यह वाद विवाद देख कर सारे ब्राह्मण एक-एक कर यह कहकर चले जा रहे थे की हम लोगों को ऐसे भी इनके घर का भोजन नहीं करना था क्योंकि ये शुद्र के घर का भोजन था, धर्म संकट तो हम लोगों के साथ था।प्रभु जी हम लोगों को बचा लिये। मार्कण्डेय पंडित ने साफ साफ नही कहा था की दलित बस्ती में कथा और भोजन करना है अन्यथा हम लोग कभी नही आते। इधर जब अजय सर की पत्नी ने अपनें पति का अपमान और शुद्र होने के कारण और उस समस्त शुद्र का अपमान होता देखी तो वो बिफर गई और जोर जोर से चिल्लाने लगी। उसकी श्रद्धा ने दम तोड दिया था।

वो कह रही थी अब बहुत हो चुका है अब ऐसा नहीं होगा, केवल शुद्र होने के कारण हम लोगों का अपमान नही कर पायेगा, अब हम लोगों को अपनें अपमान के प्रति सजग रहना होगा। किताब पढ़ कर ही जब पूजा करना है तो हमारे बच्चे ही हमारा पूजा कराएंगे, ईश्वर ने तो हम सब को केवल मनुष्य बनाकर भेजा है जाति का भेद तो यहां आकर हुआ है। मास्टर जी ठीक कह रहे थे की हमारा धर्म परोपकारी धर्म है ये किसी का पेटेंट किया हुआ नहीं है। हमारा धर्म जब पूरे विश्व के कल्याण की कामना करता है तो फिर यहां उच्च नीच बड़ा छोटा का भेद कहां। धर्म के ये ठेकेदार हमें अंधकार में रख कर हमारा शोषण करते है। बाप के उम्र के लोगों को भी ये लोग बच्चों के पैर पर गिरवाते है, तर्क ये की ब्राह्मण के बच्चे भी ईश्वर तुल्य होते है गज़ब की विडम्बना है।आज अजय सर की पत्नी काफी जज्बात में आ गई थी।

सारे ब्राह्मण एक-एक कर चल दिए थे। अजय सर और उनकी पत्नी बस्ती के दीन-हीन व्यक्तियों को सम्मान पूर्वक बुलाकर उन्हें बड़े ही प्रेम से खाना खिला रहे थे और जाते वक्त उनके हाथ में गंजी गमछा और कुछ रूपये दक्षिणा स्वरूप दे रहे थे। यह पाकर ये दीन हीन दिल से आशीर्वाद दे रहे थे। आज अजय सर बहुत खुश थे क्यों की आज उनके पत्नी को धर्म के सही स्वरूप का दर्शन हो गया था। आज सही मायने में धर्म को इस परिवार ने धारण किया था। इसलिए की इस सत्कर्म से दिल को काफी सुख मिला था। ऐसे भी जिस कार्य को करने में सुख की अनुभूति हो और समाज को भी इसका सुख मिले वही पुण्य और और धर्म है। जिसका एहसास आज अजय सर और उनके पत्नी को हो गया था।

अशोक वर्मा “हमदर्द”, लेखक

अशोक वर्मा “हमदर्द”
43, आर.के.एम. लेन चापदानी
पोस्ट – वैद्यवाटी, जिला – हुगली
पिन -712222 (पश्चिम बंगाल)

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