अशोक वर्मा “हमदर्द”, कोलकाता। बाबूजी की आंखें बूढ़ी हो गई थीं, लेकिन दिल में एक सपना हमेशा से जवान था- अपनी बेटी अनुराधा को उसकी मांग में सिन्दूर भरते हुए देखना। अनुराधा उनकी इकलौती बेटी थी। मां बचपन में ही गुजर गई थी और बाबूजी ने मां और बाप, दोनों की जिम्मेदारी निभाई। उनके पास ज्यादा कुछ नहीं था, लेकिन जो भी कमाते, उसमें से थोड़ा-थोड़ा बचाते थे, सिर्फ उस एक दिन के लिए जब अनुराधा की विदाई होगी।
अनुराधा पढ़ने में तेज थी, संस्कारों में रची-बसी और बाबूजी की आंखों का तारा थी। समय के साथ अनुराधा बड़ी हुई और बाबूजी ने उसकी शादी के लिए अच्छे परिवार की तलाश शुरू कर दी। लेकिन ये इतना आसान नहीं था। अच्छे रिश्ते ढूंढना मुश्किल था, और जब कोई मिल भी जाता, तो दहेज की मांग ने बाबूजी को चिंता में डाल देता।
बाबूजी की मेहनत से जुटाई हर छोटी रकम, जिसे उन्होंने अनुराधा की शादी के लिए बचाया था, अब नाकाफी लगने लगी। समाज का रिवाज, दहेज की भारी मांगें और अनुराधा के भविष्य की चिंता ने बाबूजी के दिल को तोड़ दिया। पर बाबूजी हार मानने वालों में से नहीं थे। वो अपनी मेहनत से एक-एक पैसा इकट्ठा करते रहे। अपने खर्चे काटे, रात-रात जागकर काम किया, ताकि अनुराधा के लिए एक सम्मानजनक रिश्ता तय कर सके।
आखिरकार, एक दिन ऐसा आया जब बाबूजी को एक अच्छा रिश्ता कानपुर में मिल गया। लड़के का परिवार भी अच्छा था और वे दहेज नहीं चाहते थे। लड़के के पिताजी और उनके परिवारजन बहुत ही सभ्य थे, बाबूजी की आंखों में खुशी के आंसू थे। उन्होंने सोचा, “बस अब राधा की मांग में सिन्दूर भरते हुए देख लूं, फिर मुझे और कुछ नहीं चाहिए।”
शादी की तैयारियां शुरू हो गईं। बाबूजी ने अपनी जिंदगी भर की कमाई खर्च कर दी। अनुराधा के लिए सबसे अच्छे कपड़े, गहने और बाकी सब इंतजाम किए। वो दिन भी आ गया, जब अनुराधा दुल्हन बनकर मंडप में बैठी। बाबूजी की आंखों में आंसू थे, लेकिन ये खुशी के आंसू थे। पंडित जी ने लड़के से कहा, “अब अपनी दुल्हन की मांग में सिन्दूर भरो।”
जब लड़के ने सिन्दूर की चुटकी अनुराधा की मांग में भरी, बाबूजी की आंखों से आंसुओं की धार बह निकली। वो आंसू सिर्फ खुशी के नहीं थे, वो आंसू उन सभी त्यागों, संघर्षों, और बलिदानों के थे जो उन्होंने अनुराधा के इस एक पल के लिए किए थे।
लोग कहते हैं, एक चुटकी सिन्दूर की कोई कीमत नहीं होती। लेकिन उस एक चुटकी सिन्दूर में बाबूजी की जिंदगी भर की मेहनत, प्यार, और बलिदान की कीमत छिपी थी। अनुराधा की मांग में सिन्दूर भरते देख, बाबूजी ने एक गहरी सांस ली और सोचा, “अब मैंने सब कुछ पा लिया।”
अंततः बाबूजी का दिल भर आया था, लेकिन उनके चेहरे पर एक सुकून भरी मुस्कान थी, क्योंकि उन्होंने अपने जीवन का सबसे बड़ा सपना पूरा कर लिया था।
शादी के बाद की रस्में पूरी हो चुकी थी और अब अनुराधा की विदाई का समय आ गया था। हर किसी की आंखें नम थी, पर सबसे ज्यादा दर्द बाबूजी के दिल में था। अनुराधा की मां के गुजरने के बाद, उन्होंने अनुराधा को अपने सीने से लगाकर पाला था, उसकी हर जरूरत को पूरा किया था। आज जब वो जा रही थी, बाबूजी को ऐसा महसूस हो रहा था कि उनकी ज़िन्दगी का सबसे बड़ा हिस्सा उनसे छिन रहा है।
अनुराधा अपने बाबूजी से लिपट कर रो रही थी। “बाबूजी, मुझे आपसे दूर जाने का बिल्कुल मन नहीं है। आप कैसे रहेंगे? मैं कैसे रहूंगी?” बाबूजी की आंखों में भी आंसू थे, लेकिन उन्होंने अपने दर्द को छुपाने की कोशिश की। बिटिया, उन्होंने कांपते हुए हाथों से अनुराधा के आंसू पोछे, “अब तुम्हारी एक नई दुनिया है। वहां तुम खुश रहो, यही मेरी सबसे बड़ी खुशी है।”
अनुराधा का दिल टूट रहा था। उसने कभी नहीं सोचा था कि उस एक चुटकी सिन्दूर के बाद उसकी ज़िन्दगी इतनी बदल जाएगी। अब वो बाबूजी के पास नहीं रहेगी, उनके साथ बैठकर रात के खाने के बाद कहानियां नहीं सुनेगी और न ही वो उनकी बीमारी में दवा लेकर उनके पास दौड़ेगी। उसका नया घर, नए लोग और नई जिम्मेदारियां थी।
विदाई की घड़ी आई। अनुराधा को ससुराल ले जाने के लिए कार तैयार थी। बाबूजी ने अनुराधा को उसकी नई ज़िन्दगी के लिए विदा किया, लेकिन जब कार आगे बढ़ने लगी, बाबूजी की आंखें उसे तब तक देखती रहीं जब तक वो ओझल नहीं हो गई। अनुराधा की आंखों से बहते आंसू कार की खिड़की से बाहर गिरते रहे, जैसे वो अपने पीछे अपनी पुरानी ज़िन्दगी को छोड़कर जा रही हो।
बाबूजी अकेले घर लौट आए। घर अब सूना लगने लगा था। वो बिस्तर जिस पर अनुराधा सोती थी, वो किताबें जो उसने पढ़ी थीं, और वो खिलौने जिनसे वो खेलती थी- सब जगह उसकी यादें थीं, पर वो खुद नहीं थी। बाबूजी का मन उन चीज़ों में अटका रहता, लेकिन अब उनका कोई मोल नहीं था।
कुछ दिनों बाद, अनुराधा का फोन आया। उसने बाबूजी से पूछा, “आप कैसे हैं, बाबूजी? आपका ख्याल कौन रखता है?”
बाबूजी ने हंसते हुए कहा, “बिटिया, अब मैं बूढ़ा हो गया हूं। खुद का ख्याल रखना सीख लिया है। तू बस खुश रह, यही मेरे लिए सबसे बड़ी दवा है।”
लेकिन अनुराधा जानती थी कि बाबूजी अकेलेपन से जूझ रहे थे। वो भी वहां ससुराल में खुद को अधूरा महसूस कर रही थी। उसका दिल हर पल बाबूजी के पास रहने को करता था, लेकिन नई ज़िम्मेदारियों ने उसे बांध रखा था। एक दिन बाबूजी ने एक पत्र लिखा, जिसमें उन्होंने अपने दिल की सारी बातें राधा को बता दीं। “बिटिया, मैंने अपनी पूरी जिंदगी तेरे लिए जी है, और अब जब तू खुश है, मैं चैन से मर सकता हूं। लेकिन बस एक आखिरी इच्छा है- जब मेरा वक्त आए, तू मेरे पास हो।”
वक्त बीतता गया और एक दिन अनुराधा के पास खबर आई कि बाबूजी की तबियत बहुत खराब है। वो सब कुछ छोड़कर दौड़ी-दौड़ी उनके पास पहुंची। बाबूजी अब कमजोर हो चुके थे, लेकिन उनकी आंखों में वही प्यार था। अनुराधा ने उनके पास बैठकर उनका हाथ थामा।
“बाबूजी, आप मुझे छोड़कर मत जाइए,” अनुराधा ने रोते हुए कहा।
बाबूजी ने मुस्कुराते हुए कहा, “बिटिया, मैं तुझे कभी नहीं छोड़ूंगा। मैं हमेशा तेरे साथ रहूंगा।”
उनकी आंखों में संतोष था और धीरे-धीरे उन्होंने आखिरी सांस ली। राधा ने बाबूजी को आखिरी विदाई दी, लेकिन इस बार सिन्दूर की नहीं, बल्कि उस सच्चे प्यार की जो उन्होंने अपनी पूरी जिंदगी अनुराधा के लिए न्यौछावर कर दी थी। अनुराधा को एहसास हुआ कि वो एक चुटकी सिन्दूर, जो उसकी मांग में भरी गई थी, बाबूजी के लिए सिर्फ एक रस्म नहीं थी। वो उनकी जिंदगी का मकसद थी, जिसे पूरा करने के बाद अब वो सुकून से जा सके थे।
अंतत: बाबूजी की आखिरी विदाई ने अनुराधा को इस बात का एहसास दिलाया कि उनके जीवन का हर पल, हर बलिदान, सिर्फ उसके लिए था। उनके जाने के बाद भी, वो उनके प्रेम और त्याग के साए में जीती रहेगी।
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