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दक्षिण अफ्रीका में प्रयोगात्मक सत्याग्रह में सफलता प्राप्त कर स्वदेश लौटे बैरिस्टर मोहनदास करमचन्द गाँधी जी को ‘महात्मा गाँधी’ बनाने का बहुत कुछ श्रेय अगर किसी को दिया जाता है, तो वह गजब व्यक्तित्व के धनी है, बिहार के चम्पारण खंड के अंतर्गत बेतिया जिला के ‘सतवारिया’ गाँव के अपढ़, पर जिद्दी ‘राज कुमार शुक्ल’ जी को। गाँधी जी 21 वर्षों तक दक्षिण अफ्रीका में रहकर 1915 में स्वदेश लौटे, तो वे भारत के बारे में ज्यादा कुछ नहीं जानते थे। जितना जानते थे, वह किताबी और श्रवण मात्र ही थाI
उन्होंने अपने राजनीतिक गुरु गोपालकृष्ण गोखले की सलाह पर पूरे देश का भ्रमण किया, ताकि वे आगे की अपनी राजनीतिक और सामाजिक गतिविधियों को सही गति दे सकेI दिसंबर 1916 के कांग्रेस के लखनऊ अधिवेशन में गाँधी जी की मुलाकात चम्पारण के सीधे-सादे पर बहुत ही जिद्दी व्यक्तित्व ‘राज कुमार शुक्ल’ से हुई, जिसने उनकी राजनीति की दिशा बदलकर रख दीI राज कुमार शुक्ल ने अपने इलाके के किसानों की पीड़ा और अंग्रेजों के शोषण से गाँधी जी को अवगत करवाया और उनसे इसे दूर करने का आग्रह भी कियाI लेकिन गाँधी जी पहली मुलाकात में राज कुमार शुक्ल से प्रभावित नहीं हुए थे।
अतः उन्होंने उसे टाल दिया थाले किन इस जिद्दी किसान ने उनका पीछा ‘कानपुर के अधिवेशन’ में भी किया और फिर साबरमती तक एक निष्ठा से पीछा करते हुए जा पहुँचा। बार-बार उनसे चम्पारण में आकर वहाँ के किसानों के दुःख-दर्द को दूर करने का आग्रह करते ही रहा। परिणाम यह हुआ कि गाँधी जी चम्पारण में किसानों से मिलने के लिए राजी हो गए। अंतत: गाँधी जी 10 अप्रैल को कलकत्ता से पटना पहुँचे और उसके अगले दिन मुजफ्फरपुर पहुँचे, जहाँ उनका स्वागत मुजफ्फरपुर विश्वविद्यालय के प्रोफेसर जेबी कृपलानी और उनके छात्रों ने किया।
मुजफ्फरपुर में ही गाँधी से राजेंद्र प्रसाद की पहली मुलाकात हुईI यहीं पर उन्होंने राज्य के कई बड़े वकीलों और सामाजिक कार्यकर्ताओं के सहयोग से आगे की रणनीति तय की, पर राज कुमार शुक्ल जी ने मुजफरपुर में ही गाँधी जी को छोड़कर चंपारण में आवश्यक तैयारियाँ करने जा पहुँचेI
इसके बाद कमिश्नर की अनुमति लेकर गाँधी ने 15 अप्रैल 1917 को चंपारण की धरती पर अपना पहला कदम रखा। यहाँ उन्हें राजकुमार शुक्ल जैसे कई अन्य किसानों का भरपूर सहयोग मिलाI पीड़ित किसानों के बयानों को उन्होंने कलमबद्ध कियाI गाँधी जी को इस वृहत कार्य में जल्दी सफलता का कोई भरोसा न थाI दक्षिण अफ्रीका में अपने अजमाए गए ‘सत्याग्रह और अहिंसा’ नामक अस्त्रों का गाँधी जी ने भारत में पहला प्रयोग कियाI इसका परिणाम यह हुआ कि निहत्थे किसानों के चार महीने के आन्दोलन के सम्मुख अंग्रेजी सरकार को अंततः झुकना पड़ा। इस तरह यहाँ पिछले 135 वर्षों से चली आ रही नील की खेती धीरे-धीरे बंद हो गईI साथ ही नीलहे किसानों का शोषण भी हमेशा के लिए खत्म हो गयाI
इस तरह गाँधी का बिहार और चंपारण से नाता हमेशा-हमेशा के लिए जुड़ गयाI इसी चम्पारण की धरती पर उन्होंने यह भी तय किया कि वे आगे से केवल एक कपड़े पर ही गुजर-बसर करेंगेI चम्पारण आंदोलन के बाद उन्हें ‘महात्मा’ की उपाधि से विभूषित किया गयाI इस आंदोलन ने ही देश को एक नया नेता और नई तरह की राजनीति अस्त्र-शस्त्र प्रदान कियाI जिसके बल पर क्रूर और अत्याचारी अंग्रेज सरकार से कई लड़ाइयाँ लड़ी गईंI उनमें सफलताएँ भी प्राप्त हुईंI फिर केवल भारत ही नहीं, वरन विश्व को भी एक महान व्यक्तित्व और अपनी लड़ाई लड़ने के लिए ‘सत्य और अहिंसा’ जैसे कभी मंथर न पड़ने वाले अस्त्र-शस्त्र के साथ ही एक नया जीवन आदर्श भी प्राप्त हुए हैंI
महात्मा गाँधी जी अपनी आत्मकथा ‘सत्य के प्रयोग’ में ‘नील का दाग’ अध्याय में लिखे हैं, – ‘लखनऊ कांग्रेस में जाने से पहले तक मैं चंपारण का नाम तक न जानता थाI नील की खेती होती है, इसका तो ख्याल भी न के बराबर थाI इसके कारण हजारों किसानों को कष्ट भोगना पड़ता है, इसकी भी मुझे कोई जानकारी न थीI’…….. राजकुमार शुक्ल नाम के चंपारण के एक किसान ने वहाँ मेरा पीछा पकड़ा।
वकील बाबू (ब्रजकिशोर प्रसाद, बिहार के तत्कालीन नामी वकील) आपको सब हाल बताएंगे, कहकर वे मेरा पीछा करते जाते और मुझे अपने यहाँ आने का निमंत्रण देते जातेI….. इस अपढ़, अनगढ़ लेकिन निश्चयी किसान ने मुझे जीत लियाI’ परन्तु भारतीय स्वतंत्रता संग्राम के इतिहास में जो स्थान ‘राज कुमार शुक्ल’ को मिलनी चाहिए थी, वह उन्हें नहीं प्राप्त हुईI हम आज उनकी 146 वीं जयंती (23 अगस्त, 1875) पर सादर शत्-शत् नमन करते हैं।
स्त्रोत – गूगल
प्रस्तोता – श्रीराम पुकार शर्मा