श्रीराम पुकार शर्मा : ‘खूब लड़ी मर्दानी वो तो झाँसी वाली रानी थी’ जैसी ओजपूर्ण कविता की अमर कवित्री सुभद्रा कुमारी चौहान को उनकी 117वीं गौरवमयी जयंती पर हम उन्हें सादर हार्दिक नमन करते हैंI सुभद्रा कुमारी चौहान और ‘खूब लड़ी मर्दानी’ दोनों ही एक-दूसरे के साहित्यिक पूर्वक बन गए हैंI ‘खूब लड़ी मर्दानी वो तो झाँसी वाली रानी थी’ (रानी लक्ष्मीबाई) काव्य-गीत देश की स्वतंत्रता संग्राम हेतु भारतीय जनमानस को उद्वेलित कर स्वतंत्रता संग्राम में भागीदार बनाने में बंगला के बंकिमचन्द्र चट्टोपाध्याय के ‘आनंदमठ’ की भाँति ही प्रबल भूमिका का निर्वाहन की हैI यह काव्य-गीत भी स्वतंत्रता संग्रामियों के कंठ का हार गया थाI इस एक ओज भरी रचना के तीव्र प्रकाश के पीछे सुभद्रा कुमारी चौहान की अन्य दूसरी रचनाएँ कुछ गौण-सी हो गई हैI इस कविता ने उन्हें हिंदी साहित्य में अमरत्व को प्रदान किया है।
सुभद्रा कुमारी चौहान का जन्म नागपंचमी के दिन 16 अगस्त 1904 को इलाहाबाद के पास निहालपुर गाँव के समर्थ ठाकुर रामनाथ सिंह के परिवार में हुआ था। चुकी पिता ठाकुर रामनाथ सिंह स्वयं एक शिक्षा-प्रेमी थे अतः उन्होंने अपनी ही देख-रेख में बालिका सुभद्रा की प्रारम्भिक शिक्षा प्रारम्भ करवाई। सुभद्रा बचपन से ही चंचल और कुशाग्र बुद्धि की थीI उनकी काव्य प्रतिभा बचपन से प्रकट होने लगी थी।
वह बातों ही बात में कविता लिख डालती थीI मात्र नौ वर्ष की गुड़ियों से खेलने वाली आयु में ही 1913 में सुभद्रा कुमारी चौहान की पहली कविता ‘सुभद्रा कुंवरि’ के नाम से ‘नीम के पेड़’ प्रयाग से प्रकाशित होने वाली ‘मर्यादा’ पत्रिका में प्रकाशित हुई थी। इस प्रकार सुभद्रा में कवयित्री-भाव का प्रादुर्भाव हो चूका था।
हिंदी साहित्य की दो प्रमुख शीर्ष कवयित्रियाँ सुभद्रा कुमारी चौहान और महादेवी वर्मा दोनों बचपन की सहेलियाँ रही थीं। लेकिन किसी कारणवश सुभद्रा कुमारी चौहान की स्कूली शिक्षा नवीं कक्षा के बाद छूट गई थी। सुभद्रा का स्वभाव बचपन से ही दबंग, बहादुर व विद्रोही रहा था, जिसके प्रभाव से वह निरंतर ही अशिक्षा, अंधविश्वास, जातिगत आदि सामाजिक रूढ़ियों के विरुद्ध अपनी भावनाओं को जब तब व्यक्त करती और संघर्ष करती रही थीI
1919 ई. में सुभद्राकुमारी चौहान का विवाह जबलपुर निवासी देश-प्रेमी और साहित्य-प्रेमी नाटककार ‘ठाकुर लक्ष्मण सिंह’ के साथ हुआI उनका व्यक्तित्व कर्तव्यों का समन्वय थाI अपने व्यस्ततम दिनचर्या में भी वे एक ओर तो सफल गृहस्थी जीवन को संचालित करती रहीं, अपने बच्चों सहित परिजन के जीवन को संवारती रहीं, तो दूसरी ओर उन्होंने अपने सामाजिक और देश के प्रति दायित्वों का भी समुचित पालन कीI
देश-सेवा की उनके मन में ऐसी प्रगाढ़ता थी कि वह विवाह के मात्र डेढ़ वर्ष बाद ही अपने पति के साथ सत्याग्रह आन्दोलन में शामिल हो गईं और उन्होंने विभिन्न जेलों में ही अपने जीवन के अनगिनत महत्वपूर्ण वर्ष गुज़ारे। 1920-21 में सुभद्रा कुमारी अपने पति के संग ही देश-हित के लिए अखिल भारतीय कांग्रेस कमेटी की सदस्य बन गईं और घर-घर में जाकर देश के लिए स्वतंत्रता के संदेश को पहुँचाई। देश और समाज के कार्यों के सम्मुख उन्होंने अपने व्यक्तिगत जीवन और पारिवारिक स्वार्थ को कभी प्रबल न होने दीI
गुमी हुई आजादी की कीमत सबने पहचानी थी,
दूर फिरंगी को करने की सबने मन में ठानी थी।
सुभद्रा कुमारी चौहान का व्यक्तिगत जीवन बड़ा ही त्याग और सादगी के परस्पर सुनहले धागों से बुना हुआ था। उनकी कथनी और करनी के बीच कोई अन्तराल न था। वह धनाढ्य परिवार से सम्बन्धित होने पर भी वह सदैव सफ़ेद खादी की बिना किनारी वाली धोती पहनती थीं।
चूड़ी भी न पहनती थी और बिंदी भी न लगाती थी। एक बार उनको सादा वेशभूषा में देख कर ही ‘बापू’ ने उनसे से पूछा, –
‘बेन! तुम्हारा ब्याह हो गया है?’
सुभद्रा ने कहा, – ‘हाँ!’ और फिर वह उत्साह से बतायी कि उनके पति भी साथ देश-सेवा के कार्य हेतु संग आए हैंI उत्तर सुनकर ‘बापू’ और ‘बा’ कुछ आश्वस्त हुएI पर प्रेमपूर्ण कुछ नाराजगी दिखाते हुए ‘बापू’ ने सुभद्रा से कहा, – ‘तो तुम अपने माथे पर सिन्दूर क्यों नहीं लगाती हो और हाथों में चूड़ियाँ क्यों नहीं पहनती हो? जाओ, कल से किनारे वाली साड़ी पहनकर आना।’
1922 का जबलपुर का ‘झंडा सत्याग्रह’ देश का पहला सत्याग्रह था और सुभद्रा जी की इसकी पहली महिला सत्याग्रही थीं। रोज़-रोज़ सभाएँ होती थीं और जिनमें सुभद्रा जी को देश और समाज के लिए बोलना ही पड़ता था। इसी प्रयास में वह अंग्रेजों के कोप-भाजन बनीं और कई बार जेल भी गईं। बाद में काफ़ी दिनों तक मध्य प्रांत असेम्बली की कांग्रेस की सदस्या भी रही थीं I परन्तु स्वतंत्रता संग्राम में सक्रिय भूमिका निभाते हुए, उन्होंने अपनी लेखनी को निरंतर चलाती रहीं और हिन्दी साहित्य को श्रीवृद्धि करती ही रहींI उनकी अधिकांश कविताएँ भारतीय जनमानस को राष्ट्रीय आन्दोलन के लिए अनुप्रेरित करने का कार्य करती रहीं –
आ रही हिमालय से पुकार, है उदधि गरजता बार बार
प्राची पश्चिम भू नभ अपार; सब पूछ रहें हैं दिग-दिगन्त
वीरों का कैसा हो वसंतI
जैसा कि पहले भी कहा गया कि सुभद्रा कुमारी चौहान अपनी कथनी और करनी में एकरूपता रखती थीI वह माता, पत्नी, बहन के साथ-साथ एक सच्ची देश सेविका के रूप में नारी-सशक्तिकरण की परिचायिका बनकर स्वतंत्रता आन्दोलन के लिए नारियों को भी आह्वान करती रहीं –
“सबल पुरुष यदि भीरु बनें, तो हमको दे वरदान सखी।
अबलाएँ उठ पड़ें देश में, करें युद्ध घमासान सखी।
हिन्दी विद्वजनों माना है कि ‘सूरदास’ के उपरांत शैशव वात्सल्य भाव की मासूमियत से परिपूर्ण जितनी सुन्दर रचनाएँ सुभद्रा कुमारी चौहान ने की हैं, वैसा आधुनिक खड़ी बोली में दुर्लभ ही हैI बचपन की जिन स्मृतियों को कवयित्री ने अपनी मधुरता से समन्वित की है, वह केवल कवयित्री तक ही सीमित नहीं रहकर सब की मधुर स्मृतियाँ ही हैं –
बार-बार आती है मुझको मधुर याद बचपन तेरी,
आ जा बचपन, एक बार फिर दे दो अपनी निर्मल शान्ति
व्याकुल व्यथा मिटाने वाली वह अपनी प्राकृत विश्रांति।
सुभद्रा कुमारी चौहान में भारतीय नारी की सहज शील और मर्यादा का समन्वय थाI वह अपनी लगभग हर सभाओं में सामाजिक उत्थान हेतु पर्दे का विरोध, रूढ़ियों के विरोध, छुआछूत हटाने के पक्ष में और स्त्री-शिक्षा के प्रचार के लिए बोलती रही थीं। वह स्त्री जाति की स्वतंत्रता के पक्ष में केवल खड़ी ही नहीं रहीं, बल्कि स्वयं उसका पालन भी की हैI
उन्होंने अपनी पुत्री की शादी में उसका ‘कन्यादान’ करने से साफ मना कर दी थीI उनका मानना था कि ‘कन्या’ कोई ‘दान’ की वस्तु नहीं है। यही कारण है कि उन्हें नारी समाज का पूरा विश्वास प्राप्त था। फलतः उनकी सभाओं में बड़ी संख्या में स्त्रियाँ बहुत ही बढ़-चढ़ कर भाग लेती थींI वह नारी शक्ति में माता, पत्नी, बहन के साथ-साथ एक सच्ची देश सेविका के भाव को स्थापित करती रही थीं।
15 फरवरी 1948 को सुभद्रा कुमारी चौहान नागपुर के एक कार्यक्रम से जबलपुर अपनी निजी वाहन से वापस लौट रही थीं। वह वाहन सड़क किनारे के एक पेड़ से जबरदस्त टकरा गई थी। इस दुर्घटना में उनकी मृत्यु हो गई थी।
मात्र 44 वर्ष आयु में ‘झाँसी वाली रानी’ की तेजस्विता गुण से सम्पन्न अमर कवित्री सुभद्रा कुमारी चौहान शायद ‘झाँसी की रानी’ को स्वयं ही देश की स्वतंत्रता का सगर्व संदेश कहने चली गई हों – ‘लो रानी, फिरंगी को खदेड़ कर आयी हूँ I’
पर ईश्वर के समक्ष तो वह नारी सुलभ संकोच के साथ ही पहुँची –
“मैं अछूत हूँ मन्दिर में आने का मुझको अधिकार नहीं है।
किन्तु देवता यह न समझना तुम पर मेरा प्यार नहीं है।”