“आध्यात्म-विद्या और भारतीय दर्शन के बिना विश्व अनाथ हो जाएगा”
श्रीराम पुकार शर्मा, हावड़ा। यह दिव्य अध्यात्म वाणी सम्पूर्ण विश्व में भारतीयता के शंखनाद करने वाले दिग्मंडल विजयी वेदान्त के विख्यात और प्रभावी आध्यात्मिक गुरु प्रातः वंदनीय परम पूज्य स्वामी विवेकानन्द जी की है, जो धर्म, दर्शन, इतिहास, कला, समाजविज्ञान, साहित्य, भारतीय शास्त्रीय संगीत के परम ज्ञाता थे। उन्होंने अपनी विविध क्रिया-कलापों के माध्यम से युवा वर्ग को उनके कर्तव्यों की ओर प्रेरित किया था। फलतः उनकी जयंती 12 जनवरी को प्रति वर्ष सम्पूर्ण भारत में ‘राष्ट्रीय युवा दिवस’ के रूप में मनाया जाता है।
“जब जब होई धर्म की हानि, बारहि असुर अधम अभिमानी। तब तब धर प्रभु विविध शरीरा, हरहि दयानिधि सच्जन पीड़ा”
उक्ति का चरितार्थ करते हुए गुलामी की जंजीरों में जकड़ी और सर्वत्र प्रताड़ना जनित अत्याचारों से आक्रांत भारतीय भूमि को बार पुनः जगत् गुरु के परम आसान पर प्रतिष्ठित करने के लिए और प्राणियों के कष्ट को हरने के लिए देव सदृश ही कोलकाता के उच्च न्यायालय प्रसिद्ध वकील ‘अटार्नी एट ला’ और पाश्चात्य सभ्यता के आग्रही विश्वनाथ दत्त और सनातन धर्मपरायण शिव उपासक भुवनेश्वरी देवी के समृद्ध आँगन में 12 जनवरी, 1863 (पौष पूर्णिमा के कृष्ण पक्ष सप्तमी) को एक दिव्य संतान का जन्म हुआ था। दत्त दंपति ने प्यार से उस बालक का नाम ‘नरेंद्रनाथ’ रखा।
नरेन्द्र बचपन से ही अत्यंत ही कुशाग्र बुद्धि के बालक थे। पर साथ ही साथ वे एक नटखट बालक थे। वे अपने साथी बच्चों के साथ और विद्यालय में अपने अध्यापकों के साथ अक्सर शरारत किया करते थे। प्रसिद्ध वकील पिता विश्वनाथ दत्त अँग्रेजी पढ़ाकर पाश्चात्य सभ्यता के ढर्रे पर नरेंद्र को चलाना चाहते थे। परंतु धर्मपरायण माता भुवनेश्वरी देवी को पुराण, रामायण, महाभारत आदि की कथा सुनने का बहुत शौक था। फलतः इनके आँगन में कथावाचक बराबर आते रहते थे।
घर में नियमपूर्वक रोज पूजा-पाठ, भजन-कीर्तन आदि भी होते रहते थे। मातृ धार्मिक प्रवृति का बालक नरेन्द्र के कोमल मन पर बचपन से ही मातृ-क्रिया कलापों का अतिशय प्रभाव पड़ा। फिर बालक के कोमल मन में बचपन से ही ईश्वरसत्ता के प्रति लालसा बढ़ी। कभी-कभी बालक के ईश संबंधित प्रश्नों के उत्तर उनके माता-पिता और कथावाचक पंडितजी तक के पास न हुआ करता था। नरेंद्र ने अपनी प्रारंभिक शिक्षा प्राप्त करने के लिए 8 वर्ष की आयु में “ईश्वर चंद्र विद्यासागर मेट्रोपॉलिटन संस्थान कोलकाता” में भर्ती हुए।
बाद में उच्च शिक्षा के लिए उन्होंने प्रसिद्ध ‘प्रेसीडेसी कॉलेज’ की प्रवेश परीक्षा में उच्चतम अंक प्राप्त किए। वर्ष 1881 में ललित कला की परीक्षा में स्वामी विवेकानंद सफलतापूर्वक उच्च अंकों के साथ उत्तीर्ण हुए और वर्ष 1884 में उन्होंने अपनी स्नातक की शिक्षा पूर्ण कर ली। धार्मिक प्रवृति के कारण ही है कि उन्होंने वेद, पुराण, महाभारत, रामायण, भगवत गीता, साहित्य, कला, उपनिषद, धर्म, राजनीति विज्ञान, सामाजिक विज्ञान और इसके साथ ही अनेक हिंदू धर्म के ग्रंथों का अध्ययन कर लिया था।
लगातार सीखने की इच्छा के कारण ही वह किसी भी क्षेत्र को छोड़ना नहीं चाहते थे, बल्कि वह हर क्षेत्र में अधिक से अधिक ज्ञान प्राप्त करना चाहते थे। तत्पश्चात उनकी रूचि विदेशी सभ्यता और संस्कृति को जानने को हुई, तब उन्होंने अमेरिका, फ्रांस, रूस, यूरोप, जर्मनी आदि विकसित देशों के महान दार्शनिकों की पुस्तकों का भी गहन अध्ययन किया।
नरेंद्र के मन में परमात्मा को पाने की प्रबल लालसा समयानुसार दीर्घतर ही होती गई, जिसके निवारण के लिए वे पहले ‘ब्रह्म समाज’ में गये, फिर कई अन्य स्थानों में भी भटकें। किन्तु उनके चित्त को संतुष्टि प्राप्त नहीं हुई। ऐसे ही समय में उनके पिता विश्वनाथ दत्त की मृत्यु हो गई। अब घर-संसार संचालन का भार उनके कंधों पर आ पड़ा। परंतु घर-संसार की विकट जिम्मेवारियाँ भी उन्हें ईश्वर प्राप्ति की लालसा से उन्हें दूर न कर सकी।
अपनी शिक्षा पूरी करने के बाद नरेंद्र दत्त एक सन्यासी जीवन धारण कर अपने गुरु के उपदेशों का प्रचार-प्रसार करने के लिए बेंगलुरु मठ से भारत के कोने-कोने में पैदल यात्रा पर निकल पड़े। अपनी यात्रा के दौरान उन्हें माउंट आबू में राजा अजीत सिंह मिले। राजा अजीत सिंह नरेंद्र दत्त की बातों से बहुत प्रभावित हुए और उन्होंने उन्हें राजस्थान में अपने महल खेतड़ी में आने का आग्रह किया। 4 जून 1891 को नरेंद्र दत्त राजा अजीत सिंह के महल पहुँचे।
धीरे-धीरे उन दोनों में गाढ़ी मित्रता हो गई। राजा अजीत सिंह ने नरेंद्र दत्त की विशेषताओं को देखते हुए उनका नाम विवेक + आनंद, अर्थात स्वामी विवेकानंद रखा अर्थात “बुद्धि” से सदैव आनंदित रहने वाला। अंततः नरेंद्र की ईश्वरीय खोज रामचन्द्र दत्त के परामर्श पर नवंबर, 1881 में दक्षिणेश्वर काली मंदिर के पुजारी परमपूज्य ठाकुर श्रीरामकृष्ण परमहंस की सानिध्यता में आकार पूर्ण हुई।
फिर मात्र 25 वर्ष की आयु में नरेंद्र अपने गुरु स्वामी रामकृष्ण परमहंस से प्रभावित होकर गेरुआ वस्त्र को धारण कर संन्यास ग्रहण कर लिया। गुरुदेव ने उन्हें नया आध्यात्मिक नाम स्वामी विवेकानन्द प्रदान किया। फिर गुरु की प्रेरणा से स्वामी विवेकानन्द पैदल ही पूरे भारतवर्ष की यात्रा की। वर्ष 1893 का साल स्वामी विवेकानन्द और भारत के भविष्य के लिए बाद ही महत्वपूर्ण वर्ष माना जाता है।
इसी वर्ष स्वामी विवेकानन्द ‘विश्व धर्म सम्मेलन’ में भाग लेने के लिए भारतीय सनातन प्रतिनिधि के रूप में अमेरिका के ‘आर्ट इंस्टीट्यूट ऑफ शिकागो’ में गए थे। उस समय पराधीन भारतवासियों को विदेशों में बहुत ही हीन दृष्टि से देखा जाता था, कोई महत्व न दिया जाता था। वहाँ कुछ धार्मिक विद्वानों ने बहुत प्रयत्न किया कि स्वामी विवेकानन्द को ‘सर्वधर्म संसद’ में बोलने का कोई मौका ही न मिले। परंतु एक सहृदय अमेरिकन प्रोफेसर के प्रयास से 11 सितंबर 1893 को उन्हें उस ‘विश्व धर्म संसद’ में बोलने के लिए केवल मात्र 2 मिनट का मौका प्रदान किया गया था।
अपने भाषण की शुरुआत स्वामी विवेकनन्द जी ने जैसे ही ‘‘मेरे अमेरिकी भाइयों एवं बहनों” से की। पूरा हाल ही दो मिनट तक उनके सम्मान में तालियाँ बजाता रहा। इसके पश्चात उन्होंने सनातन धर्म गत अपने विचार से संसद को अवगत करवाया। उनके विचार को सुनकर संसद के सभी विद्वान तथा श्रोतागण चकित रह गए।
तत्पश्चात अमेरिका के विभिन्न स्थानों पर स्वामी विवेकनन्द का भव्य स्वागत हुआ। फिर देखते ही देखते कुछ ही दिनों में वहाँ स्वामी जी भक्तों का एक विशाल समुदाय ही तैयार हो गया। तीन वर्ष तक वे अमेरिका में प्रवास किए और वहाँ के लोगों को भारतीय तत्वज्ञान की अद्भुत ज्योति को प्रदान करते रहे। उनकी वक्तृत्व-शैली तथा ज्ञान को देखते हुए वहाँ के मीडिया ने उन्हें ‘साइक्लॉनिक हिन्दू’ (तूफ़ानी हिन्दू) नाम प्रदान किया। वह घटना हम भारतीयों के गर्व और सम्मान की घटना के रूप में स्वीकार किया जाता है।
उन्हें पूर्ण विश्वास था कि पवित्र भारत-भूमि ही विश्व धर्म एवं दर्शन की पुण्यभूमि है। इसी भूमि पर दिग्गज आध्यात्म श्रेष्ठ महात्माओं व तत्वज्ञानी ऋषियों का जन्म हुआ है। वास्तव में भारत-भूमि ही संन्यास एवं त्याग की पवित्र-भूमि है। अमेरिकन में अनेक विद्वानों ने स्वामी विवेकनन्द का सादर शिष्यत्व ग्रहण किया। वे भारत के गौरव को देश-देशान्तरों में उज्ज्वल करने का सदा प्रयत्न किया। वेदान्त और योग को पश्चिम संस्कृति में प्रचलित करने के लिए अपना महत्वपूर्ण योगदान देना चाहते थे।
अतः उन्होंने अपने आराध्य गुरु परमपूज्य ठाकुर श्रीरामकृष्ण के नाम पर पश्चिम जगत में ‘रामकृष्ण मिशन’ की अनेक शाखाएँ स्थापित कीं। परंतु वे अपने आप को सदा गरीबों का सेवक ही मानते थे। स्वामी विवेकानन्द अपने सम्पूर्ण जीवन को ही अपने गुरुदेव परमपूज्य ठाकुर श्रीरामकृष्ण को समर्पित कर चुके थे। गुरुदेव के शरीर-त्याग के दिनों में अपने घर और कुटुम्ब की नाजुक हालत की चिंता किये बिना, स्वयं के भोजन की चिंता किये बिना उन्होंने गुरु-सेवा में सतत संलग्न रहे। गुरुदेव का शरीर अत्यन्त रुग्ण हो गया था।
शैय्या पर ही गुरुदेव का नित्य-क्रम हो जाया करता था। बिस्तर के पास रक्त, कफ आदि से भरी थूकदानी रहती थी। जिससे विवेकानन्द के कई गुरु-भाइयों ने घृणा से नाक-भौं सिकोड़ ली। यह देखकर स्वामी विवेकानन्द गुरुदेव की प्रत्येक वस्तु के प्रति प्रेम दर्शाते हुए उनके गंदे कपड़े, बिस्तर आदि की तथा बिस्तर के पास रक्त, कफ आदि से भरी थूकदानी की नित्य ही प्रेमपूर्वक सफाई किया करते थे।
गुरु के प्रति ऐसी अनन्य भक्ति और निष्ठा से ही स्वामी विवेकनन्द जी ने अपने गुरु के शरीर और उनके दिव्यतम आदर्शों की उत्तम सेवा कर दूसरों के लिए गुरु सेवा का आदर्श स्थापित किए और स्वयं के अस्तित्व को गुरुदेव के स्वरूप में पूर्ण विलीन कर सके। इस प्रकार उन्होंने समग्र विश्व में गुरु-भक्ति के अमूल्य आध्यात्मिक पुष्प-स्तवक की महक को फैलाया, जो आज हर शिष्य के लिए परम अनुकरणीय मंत्र है।
स्वामी विवेकनन्द को दमा और शर्करा के अतिरिक्त अन्य शारीरिक व्याधियों ने बहुत ही बुरी तरह से जकड़ रखा था, परंतु उन्होंने अपने दिनचर्या में कोई परिवर्तन न किया। जीवन के अंतिम दिन भी उन्होंने दो-तीन घंटे ‘ध्यान’ किया था। फिर बेलूर मठ में 4 जुलाई, 1902 को चुपके-चुपके वह दिन भी आया, जिस दिन उन्होंने ध्यानमग्न अवस्था में महासमाधि को वरण कर वापस सुरलोक गमन किया। उनके शिष्यों और अनुयायियों ने उनकी स्मृति में वहाँ एक छोटा-सा, परंतु एक भव्य मंदिर बनवाया और समूचे विश्व में विवेकानन्द तथा उनके गुरु रामकृष्ण के संदेशों के प्रचार के लिए 130 से अधिक केंद्रों की स्थापना की है।
विवेकानंद बड़े स्वपन्द्रष्टा थे। उन्होंने गुलाम भारत में एक नये समाज का स्वप्न देखा था, ऐसा समाज जिसमें धर्म या जाति के नाम पर लोगों में कोई विभेदता न हो। सर्वत्र ही समस्त चराचरों की वंदना हो। उन्होंने वेदांत संबंधित अपने सिद्धांतों को इसी रूप में रखा। वे सभी धर्मों का सम्मान करते थे। परंतु वह किसी भी तरह के आडंबर, कर्मकाण्ड या मूर्ति पूजा में विश्वास नहीं रखते थे। इसी तरह शिक्षा के क्षेत्र में स्वामी विवेकानन्द ने मैकाले द्वारा प्रतिपादित ‘बाबुओं’ को निर्माण करने वाली उस समय प्रचलित अेंग्रेजी शिक्षा व्यवस्था का विरोध किया।
वह देश भर में ऐसी शिक्षा व्यवस्था चाहते थे, जिससे बालक का पारिवारिक, आध्यात्मिक, सांसारिक सर्वांगीण विकास हो सके। जो शिक्षा जनसाधारण को जीवन संघर्ष के लिए तैयार नहीं कर सकती, जो चरित्र निर्माण नहीं कर सकती, जो समाज सेवा की भावना विकसित नहीं कर सकती, जो शेर जैसा साहस पैदा नहीं कर सकती, जो शिक्षा गुलाम बना सकती है, ऐसी शिक्षा से जगत को क्या लाभ? हमें तो ऐसी शिक्षा चाहिए, जिससे चरित्र का गठन हो, मन का बल बढ़े, बुद्धि का विकास हो और व्यक्ति स्वावलम्बी बन सके, जो लौकिक एवं पारलौकिक दोनों जीवन को सफल बनावे।
भारत में लगभग 50 फीसदी से भी अधिक आबादी युवाओं की है, ऐसे में युवाओं के कंधों पर ही हमारे देश का भविष्य निर्भर करता है। नए जोश, उत्साह और नवीन विचारों से परिपूर्ण युवा वर्ग में ही बेहतर भविष्य देने की क्षमता हो सकती हैं, जो किसी भी देश की आर्थिक, सामाजिक एवं सांस्कृतिक स्वरूप में परिवर्तन कर उसे वैश्विक शक्ति बना सकते हैं।
स्वामी विवेकानंद ने अपनी विचारधारा तथा क्रियाशीलता से देश के युवाओं को उनके कर्तव्यों के सम्पादन के लिए प्रेरित किया था। अतः वर्ष 1985 से उनकी जयंती 12 जनवरी के दिन को देश भर में “राष्ट्रीय युवा दिवस” के रूप में आयोजन कर देश की प्रगति एवं समृद्धि में युवाओं के योगदान को निश्चित करने की कोशिश की जाती है। नेताजी सुभाष चंद्र बोस ने विवेकानंद को “आधुनिक भारत का निर्माता” कहा था। उनके सम्मान में, भारत सरकार ने 1984 में उनके जन्मदिन को राष्ट्रीय युवा दिवस के रूप में घोषित किया।
श्रीराम पुकार शर्मा,
हावड़ा – 711101 (पश्चिम बंगाल)
ई-मेल सूत्र – rampukar17@gmail.com