छत्रपति शिवाजी महाराज जी की जयंती पर विशेष

श्रीराम पुकार शर्मा, कोलकाता । भारत-भूमि प्राचीन काल से ही वीर प्रसूता रही है, जिसके प्रायः हर क्षेत्र में ही समयानुसार वीर संतानों ने जन्म ग्रहण किया है। जब मुगल शक्ति अजेय बनी हुई भारत के मानचित्र पर सर्वत्र छाई हुई थी, उस समय उसकी अजेयता की दीवार को जर्जर कर और उसके शासक को धूल चटाते हुए ओजस्वी मराठा शक्ति गौरव के नायक ने न केवल शिवनेर की पहाड़ियों पर ही, बल्कि दूर-दूर तक मुगल साम्राज्य के कठोर सीने पर हिन्दू मराठा शक्ति के परिचायक केसरिया ध्वज को फहराया। उस महान वीर भारत पुत्र का ही नाम ‘छत्रपति शिवाजी’ अर्थात ‘शिवाजी शहाजी राजे भोंसले’ था, जिसके नाम को सुनकर तत्कालीन मुगल सम्राट औरंगजेब की भी रातों की नींद हराम हो जाया करती थी।

छत्रपति शिवाजी एक महान योद्धा और हिन्दू रक्षक मराठा क्षत्रप थे। शिवाजी ने उस समय वर्षों से पद-दलित हिन्दू समाज को नया स्वरूप प्रदान किया, जब वह मुगल शक्ति से आक्रांत होकर निस्तेज-सा हो चला था। ऐसे में आक्रांत और निराश हिन्दू समाज के लिए एक प्रबल सहारा बनकर उभरे शिवाजी राजे भोंसले। अगर वे उस समय हिन्दू समाज का सहायक न बने होते, तो आज हमारा देव व ऋषि-मुनियों का यह पावन हिन्दू-देश पूर्णतः मुगलिया देश ही हो गया होता, जैसे कि कई देश हो चुके हैं। यही कारण है कि शिवाजी को महाराष्ट्र प्रान्त में भगवान से किसी से भी तरह कम आदर-सम्मान प्राप्त नहीं है। वे तो हिन्दू गौरव के प्रतीक हैं।

शिवाजी बहुमुखी प्रतिभा के धनी थे। उनके चरित्र में बहादुरी, बुद्धिमानी, शौर्यता, कुशल प्रशासक, दयालुता आदि के अनगिनत दिव्य रत्न समाहित थे। उन्होंने तत्कालीन शासकों से लोहा लेने के लिए ‘गनिमी कावा’ (छापामार युद्ध) कूटनीति तैयार की थी, जिससे किसी भी विरोधी साम्राज्य पर अचानक इस तरह से आक्रमण कर दिया जाता था कि इसका उसे आभास तक भी न हो पाता और उसे संभलने का मौका भी न मिल पाता था। फिर वहाँ के शासक को अपनी गद्दी छोड़नी ही पड़ती थी। इसके लिए शिवाजी को इतिहास में हमेशा याद किया जाता है और याद किया जाता ही रहेगा।
भारत माँ के वीरपुत्र, हिन्दू गौरव व मराठा गौरव के संस्थापक छत्रपति वीर शिवाजी शाह भोंसले का जन्म 19 फरवरी 1630 को पुणे जिले के जुन्नार गाँव के शिवनेरी के किले में हुआ था।

शिवाजी की माता जीजाबाई बहुत ही धार्मिक प्रवृत्ति की महिला थी। जबकि उनके पिता शाहजी राजे भोसले अहमदनगर के सुल्तान की सेना की एक सैनिक के रूप में अपना जीवन प्रारम्भ करते हुए अपने कौशल और पुरुषार्थ के बल पर निजामशाही शासन के अंतिम वर्षों में ‘राजा-निर्माता’ जैसे प्रमुख पद की भूमिका का भी निर्वाहन किया था। उनकी माता जीजाबाई भगवान शिवाई की परम् आराधिका थी। अतः उन्होंने अपने नवजात पुत्र का नाम भगवान शिवाई के उपर ही ‘शिवा’ रखा था। उनकी माता अक्सर उन्हें रामायण व महाभारत सम्बन्धित वीरों और वीरता की कथाएँ सुनाया करती थीं, जिन्हें शिवा बहुत ध्यान से सुना करते थे। बचपन की यही मनन-भावना कालांतर में उन्हें एक प्रबल हिन्दू रक्षक के रूप में बलवंत किया और आजीवन हिन्दू धर्म तथा मराठा शक्ति को अक्षुण्ण बनाये रखने के लिए प्रयत्नशील रहें।

जब शाहजी भोसले 1636 में बीजापुर में नौकरी कर ली, तब उन्होंने अपने बेटे शिवा और पत्नी जीजाबाई को शिवनेरी किले की देख रेख करने वाले दादोजी कोंडदेव के नियंत्रण में छोड़ कर बीजापुर चले गए। शिवाजी को हिन्दू धर्म की शिक्षा और सैन्य सम्बन्धित घुड़सवारी तथा राजनीति की बारीकियों की शिक्षा गुरु दादोजी कोंडदेव से ही प्राप्त हुई थी। बंगलोर में 12 वर्ष की अवस्था में उनका विवाह ‘साईंबाई’ के साथ हुआ। बचपन से ही वीरता और साहसिकता शिवाजी के रग-रग में समाया हुआ था। मात्र 15 वर्ष की अल्पायु से ही उन्होंने बीजापुर राज्य पर धावा बोलना प्रारम्भ कर दिया था और एक छोटे से सैन्य हमला कर तोरन किले को भी जीत लिया था। इसके बाद तो उन्होंने कोंडाना और राजगढ़ किले को भी जीत कर उन पर भी अपना केसरिया झंडा फहरा दिया।

शाहजी भोसले पर शिवाजी को उसकाने के संदेह में तथा शिवाजी की बढ़ती शक्ति को नियंत्रित करने के लिए बीजापुर के तत्कालीन सुल्तान ने उन्हें कैद कर लिया। लाचारी में शिवाजी को अपने पिता को सुल्तान की कैद से छुडाने के लिए कोंडाना के किले को सुल्तान को वापस करना पड़ा। बाद में शाहजी ने बीजापुर के सुल्तान और शिवाजी के मध्य एक अस्थायी समझौता करा दिया, जिसके फलस्वरूप बीजापुर राज्य को छोड़कर शिवाजी को अब निश्चिन्त होकर मुग़ल साम्राज्य के भू-भागों पर आक्रमण करने का अवसर प्राप्त हो गया। सुल्तान की कैद से रिहाई के बाद शाहजी भोसले अस्वस्थ रहने लगे थे और 1964-65 के आस पास उनकी मौत हो गई।

इसके बाद शिवाजी का मराठा केसरिया विजय पताका बहुत द्रुतगति से पुरंदर और जवेली की हवेली पर भी फहरने लगा। शिवाजी की बढ़ती शक्ति से दक्षिणी मुगल साम्राज्य निरंतर क्षत-विक्षत होने लगा, जिससे तत्कालीन मुगल सम्राट औरंगजेब भी शिवाजी से सशंकित रहने लगा। उसने 1657 में शिवाजी के विरूद्ध शाइस्ता खान के नेतृत्व में एक विशाल सेना को भेजा, जिसने पुना को अपने अधिकार में ले लिया। पर एक रात बारात के वेश में शिवाजी ने अचानक शाइस्ता खान पर हमला कर दिया। हमला इतना प्रखर था कि हजारों मुग़ल सैनिक मारे गए। शाइस्ता खान प्राण बचकर भाग निकला, पर उसकी अँगुली शिवाजी के तलवार की भेंट चढ़ गयी। इसके बाद शिवाजी ने मुगल से 1664 में सूरत को भी छीन कर उस पर मराठा का केसरिया विजयी झंडा फहरा दिया।

अब तो दक्षिण में शिवाजी की शक्ति को नियंत्रित कर पाना किसी के वश में न था। बीजापुर के सुल्तान ने 1659 में शिवाजी को ज़िंदा या मुर्दा लेकर आने के लिए अपने एक समर्थ सेनापति अफजल खान के नेतृत्व में एक बहुत बड़ी सेना भेजी। अफजल खान को पहले से ही शिवाजी की शक्ति का आभास था। अतः उसने शिवाजी को प्रत्यक्ष नहीं, बल्कि कूटनीति से मारने की कोशिश, परन्तु शिवाजी भी पहले से तैयार थे और उन्होंने बड़ी चतुराई से अपने बघनखा के प्रहार से अफजल खान को ही वहीँ पर मार गिराया। फिर शिवाजी ने बीजापुर के सुल्तान पर भी आक्रमण कर उसे प्रतापगढ़ और कोल्हापुर के युद्ध में हरा दिया। बीजापुर से उनकी सेना को बहुत से शस्त्र और हथियार मिले, जिससे मराठा की सेना और ज्यादा ताकतवर हो गई।

अब औरंगजेब ने अपने बहादुर सेनापति राजा जय सिंह और दिलीर सिंह को शिवाजी के खिलाफ भेजा। जय सिंह ने उन सभी किलों को जीत लिया, जिनको शिवाजी ने मुगल से जीते थे और पुरन्दरपुर में शिवाजी को हरा दिया। इस हार के बाद शिवाजी को मजबूरन मुगलों के साथ समझौता करना पड़ा। पर औरंगजेब ने उनके साथ विश्वासघात किया और समझोते के विपरीत शिवाजी तथा उनके पुत्र शम्भाजी को आगरा के जेल में बंद कर दिया। लेकिन शिवाजी एक बार फिर अपनी चतुराई का प्रयोग करते हुए से अपने बेटे के साथ आगरा के किले से भाग निकले। और फिर तो शिवाजी ने नयी ताकत के साथ पुनः मुगलों के खिलाफ जंग छेड़ दी। इसके बाद औरंगजेब दुबारा शिवाजी न छेड़ा और उन्हें ‘दक्षिण मराठा शक्ति का स्वतंत्र राजा’ मान लिया।

इसके बाद सन् 1674 में शिवाजी ने अपना राज्याभिषेक करवाना चाहा, पर शिवाजी जाति के कुर्मी थे। अतः उन्हें शुद्र जाति का मान कर स्थानीय ब्राह्मणों ने उनका राज्याभिषेक करने से साफ़ ही मना कर दिया। अतः महाराष्ट्र के बाहर से ब्राह्मणों को बुलाकर उन्होंने अपना राज्याभिषेक करवाया। ऐसे विशेष अवसर पर उन्हें ‘छत्रपति’ की उपाधि से सम्मानित किया गया। लेकिन इसके 12 दिन के बाद उनकी माता जीजाबाई का देहांत हो गया, जिस कारण शिवाजी ने शोकावकाश के कुछ समय बाद अपना पुनः राज्याभिषेक कराया और महाराष्ट्र में हिन्दू राज्य की स्थापना की। इसके स्मरण हेतु शिवाजी ने अपने नाम का सिक्का भी चलाया।

शिवाजी ने अपना राष्ट्रीय ध्वज नारंगी (केसरिया) रखा था, जो हिंदुत्व का प्रतीक हैं, जिसे उनके आध्यात्मिक गुरु समर्थ रामदास जी ने प्रदान किया था। निरंतर अत्यधिक परिश्रम के कारण उनकी तबियत ख़राब रहने लगी थी। लगातार 3 हफ़्तों तक वे तेज बुखार से पीड़ित रहें। जिसके बाद अन्य दिव्यात्माओं की भाँति ही मात्र 50 वर्ष की अल्पायु में ही 3 अप्रैल 1680 को हिंदुत्व के प्रबल रक्षक मराठा-गौरव ‘छत्रपति शिवाजी’ इस इहलोक को छोड़कर परलोक गमन किये।
छत्रपति शिवाजी महाराज जयंती मनाने की शुरुआत वर्ष 1870 में पुणे में महात्मा ज्योतिराव फुले द्वारा की गई थी। उन्होंने ही पुणे से लगभग 100 किलोमीटर दूर रायगढ़ में शिवाजी महाराज की समाधि की खोज की थी। बाद में स्वतंत्रता सेनानी बाल गंगाधर तिलक ने ब्रिटिश शासन के विरूद्ध स्वतंत्रता आन्दोलन के दौरान लोगों को एक साथ लाने के लिए ‘शिवाजी महाराज जयंती’ मनाने की परंपरा को आगे बढ़ाया। उनकी वीरता और उनका योगदान देशवासियों को देश और जातीय हित हेतु हमेशा प्रेरित करता रहे, इसीलिए हर साल ही देश भर में “शिवाजी जयंती” मनाई जाती रही है।

श्रीराम पुकार शर्मा

श्रीराम पुकार शर्मा
ई-मेल सम्पर्क सूत्र – rampukar17@gmail।com

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