“एक पूत भारतमाता का, कंधे पर था झंडा,
पुलिस पकड़ कर जेल ले गई, बाकी बच गया अंडा !”
श्रीराम पुकार शर्मा, हावड़ा । तत्कालीन परिवेश में ऐसी सरकारी विरोध की बातें कर पाना कोई सरल कार्य न था, कोई बेफिक्री कबीरी स्वभावी व्यक्ति ही कह सकता है। हकीकत में यह उद्गार रहा है हिंदी कविता साहित्य में पूरी भारतीय काव्य-परंपरा और भारतीय जन-जीवन को जीवंत रूप को चित्रित करने वाले काव्य-चितेरे ‘नागार्जुन’ या कहे, तो ‘बाबा नागार्जुन’ का। नागार्जुन सही अर्थ में भारतीय धूल-मिट्टी से सने हुए खेत-खलिहान से लेकर गली-कूचों के जनकवि थे, जिनके साहित्यिक सर्व अंगों से देशी सोंधी मिट्टी की महक आती है। साधारण जन के बीच के लंबे जन-आंदोलन के अडिग सिपाही बनाना, जन अनुभूतियों से प्राण रस ग्रहण करना और चतुर्दिक सर्व उत्थान के सामाजिक सपनों को देखना, ये त्रिगुणात्मक स्वरूप बाबा नागार्जुन के व्यक्तित्व तथा कृतित्व में समाहित थे।
बहुत दिनों के बाद कबीरी बेफिक्री पीढ़ी के वंशज के रूप में कवि नागार्जुन दिखाई पड़ते हैं। नागार्जुन का जन्म बिहार प्रांत के मधुबनी ज़िले के ‘सतलखा गाँव’ की शस्य श्यामल धरती पर 30 जून, सन् 1911 (ज्येष्ठ मास, पूर्णिमा) के दिन हुआ था। (जन्मदिन संबधित मतैक्य नहीं है) सतलखा गाँव उनका ननिहाल था। जबकि उनका पैतृक गाँव वर्तमान दरभंगा जिले का तरौनी गाँव था। इनके पिता गोकुल मिश्र और माता उमा देवी को लगातार चार संतानें हुईं, पर वे सभी असमय ही चल बसीं। अतः इनके जीवन और घर-आँगन में संतान विहीन नैराश्य का ही वातावरण ही रहा करता था।
पर गोकुल मिश्र ईश्वर के प्रति आस्थावान थे। वैद्यनाथ धाम (देवघर) जाकर उन्होंने बाबा वैद्यनाथ की यथाशक्ति सेवा और उपासना की। संभवतः सेवा का ही प्रसाद स्वरूप उन्हें पाँचवीं संतान की प्राप्ति हुई। पूर्व की घटनायें मन को विचलित कर रही थीं कि कहीं यह भी अपना मोह जगा कर ठगिया न बन जाए। अतः इस पाँचवी संतान को उन्होंने सामाजिक ढंग से उपेक्षित संज्ञा ‘ठक्कन’ कह कर पुकारने लगे। काफी दिनों के बाद जब ‘ठक्कन’ संभावित मृत्यु-घात-काल को पार कर लिया, तब बाबा वैद्यनाथ की कृपा-प्रसाद मानकर इस बालक का नाम ‘वैद्यनाथ मिश्र’ रखा गया।
छह वर्ष की अल्पायु में ही वैद्यनाथ की माता का देहांत हो गया था। ऐसे में लाचार पिता गोकुल मिश्र अपने एक मात्र मातृहीन पुत्र वैद्यनाथ को अपने कंधे पर बैठाकर जहा-तहाँ आया-जाया करते थे। इस प्रकार बचपन में ही वैद्यनाथ को घूमते रहने की जो आदत लग गयी, वह कालांतर में बढ़ती उम्र के साथ-साथ और भी विकसित ही होती गई। फिर तो ‘घुमक्कड़ी’ उनके जीवन का स्वाभाविक अंग ही बन गया, जो उनके रचना-धर्म को भी निरंतर विकसित और पुष्ट ही करते गया। अपने जीवन के अंतिम समय में उनके पिता गोकुल मिश्र अपने उत्तराधिकारी वैद्यनाथ मिश्र के लिए मात्र तीन कट्ठा उपजाऊ भूमि और प्रायः तीन कट्ठा वास-भूमि तथा वह भी सूद-भरना लगाकर परलोक गमन किए। बहुत दिनों के बाद में नागार्जुन दंपति ने उसे छुड़ाया।
ब्राह्मण कुलानुरूप वैद्यनाथ गाँव के ही पाठशाला में परंपरागत प्रारम्भिक संस्कृत की शिक्षा को प्राप्त कर बाद की विधिवत संस्कृत की पढ़ाई के लिए बनारस चले गए। वहीं उन पर आर्य समाज और बौद्ध दर्शन का प्रभाव पड़ा। फिर बौद्ध दर्शन की ओर निरंतर झुकाव बढ़ते ही गया। बाद में बनारस से निकलकर कोलकाता और फिर दक्षिण भारत घूमते हुए लंका के विख्यात ‘विद्यालंकार परिवेण’ में जाकर सन् 1936 में बौद्ध धर्म की दीक्षा ली और ‘नागार्जुन’ नाम ग्रहण किया।
नागार्जुन स्वामी सहजानंद से भी अत्यधिक प्रभावित थे। अतः उनके द्वारा संचालित बिहार के किसान आंदोलन में उन्होंने बढ़-चढ़ कर हिस्सा लिया। सन् 1974 के ‘जेपी आंदोलन’ में भाग लेते हुए आपात् स्थिति से पूर्व ही इन्हें गिरफ्तार कर काफी समय के लिए जेल में डाल दिया गए था। जेल से मुक्त होने पर उन्होंने पुनः किसान आंदोलन को जारी ही रखा था। इस बीच उनका साहित्य के क्षेत्र में भी पदार्पण हो चुका था।
हिन्दी साहित्य में नागार्जुन मैथिली में ‘यात्री’ उपनाम से रचनाएँ करने लगे। काशी में रहते हुए उन्होंने ‘वैदेह’ उपनाम से भी कुछ कविताएँ लिखी थी। इनकी पहली प्रकाशित रचना एक मैथिली कविता थी, जो 1929 में लहेरियासराय, दरभंगा से प्रकाशित ‘मिथिला’ नामक पत्रिका में छपी थी और उनकी पहली हिन्दी रचना ‘राम के प्रति’ नामक कविता थी, जो 1934 में लाहौर से निकलने वाले साप्ताहिक ‘विश्वबन्धु’ में छपी थी। फिर तो उन्होंने लगभग अड़सठ वर्ष (सन् 1929 से 1997) तक रचनाकर्म से जुड़े रहे और कविता, उपन्यास, कहानी, संस्मरण, यात्रा-वृत्तांत, निबन्ध, बाल-साहित्य आदि सभी विधाओं में अपनी कलम चलायी।
नागार्जुन को संस्कृत, हिन्दी, मैथिली, बंगला, गुजराती आदि भाषाओं पर अच्छी पकड़ थी। महाकवि कालिदास उनके प्रिय कवि और महाकवि की ‘मेघदूत’ उनकी प्रिय पुस्तक रही है। उन्होंने ‘मेघदूत’ का मुक्तछंद में अनुवाद किया। महाकवि जयदेव के ‘गीत गोविंद’ का भी उन्होंने भावानुवाद किया। उन्होंने विद्यापति के सौ गीतों का तथा उनकी ‘पुरुष-परीक्षा’ (संस्कृत) की तेरह कहानियों का भी भावानुवाद किया था, जो ‘विद्यापति की कहानियाँ’ नाम से प्रकाशित हुई। बंगला के सुप्रसिद्ध उपन्यासकार शरतचंद्र चट्टोपाध्याय के कई उपन्यासों और कथाओं का उन्होंने हिंदी में अनुवाद किया। कन्हैयालाल माणिकलाल मुंशी के गुजराती उपन्यास ‘पृथ्वीवल्लभ’ का भी उन्होंने हिंदी में अनुवाद किया था।
नागार्जुन में जीवन की गतिशीलता, साहित्य में सक्रियता और जन-जीवन के प्रति प्रतिबद्धता उनके साहित्यिक जीवन को प्रतिध्वनित-प्रतिबिंबित करती रही है। निश्चित विचार से आबद्ध लोग समझने की कोशिश करते रहे कि आखिर बाबा नागार्जुन किस विचारधारा से संबंधित हैं, कहाँ पर, किस पर वे टिकते हैं। पर बाबा जो थे कि वे कोई एक निश्चित विचारधारा या सिद्धांत पर टिकते ही न थे। उनका मानना था कि वह एक जनवादी हैं। जनता के हित में उन्हें कुछ भी जान पड़ता, उसी ओर वे बढ़ जाते थे। चाहे वह मार्क्सवाद हो, या जेपीवाद हो या फिर लोहियावाद ही क्यों न हो। वे तो ग़रीब, मज़दूर, किसान की बात करने के लिए ही जनवादी थे। इसीलिए जनता से विपरीत जाते देख उन्होंने मार्क्सवाद को और जेपीवाद को भी फटकार लगाया।
‘खिचड़ी विप्लव देखा हमने
भोगा हमने क्रांति विलास
अब भी खत्म नहीं होगा
क्या पूर्णक्रांति का भ्रांति विलास।
तत्कालीन सत्ता के विरुद्ध गंभीर गर्जना करना और अपने आलोचकों की कुटिल भ्रू-भंगिमा से मोर्चा लेना, यही तो बाबा नागार्जुन की भौतिक और साहित्यिक संपति रही है । तभी तो उनकी आँखें बसों के चिढ़े-खिझलाये ड्राइवरों, सड़कों पर बेहिसाब इधर-उधर भागते, पर रास्ते से न हटते राहगीरों, गरमी में जलते, पानी में डूबते, ठंडी में ठिठुरते खेत-खलिहानों में सपरिवार लगे खेत-मजूरों, चटकल में पाट से सने मजदूरों, पास के कीचड़ में स्नात बच्चों आदि के प्रति ही सजग रहती थी । फिर उनकी आँखों की सहानुभूति शब्द बनकर कविता की लड़ियाँ पिरोती। तभी तो उन्हें जनता का भरपूर प्यार भी मिलता रहा और वे व्यक्तिवाचक ‘नागार्जुन’ से जातिवाचक ‘बाबा’ कहलाये।
‘क्या हुआ आपको?
सत्ता की मस्ती में, भूल गई बाप को?
इन्दु जी, इन्दु जी, क्या हुआ आपको?
बेटे को तार दिया, बोर दिया बाप को!’
नागार्जुन की प्रकाशित कृतियाँ –
कविता-संग्रह – युगधारा (1953), सतरंगे पंखों वाली (1959), प्यासी पथराई आँखें (1962), भसमांकुर (1970), तालाब की मछलियाँ (1974), तुमने कहा था (1980), खिचड़ी विप्लव देखा हमने (1980), हजार-हजार बाँहों वाली (1981), पुरानी जूतियों का कोरस (1983), रत्नगर्भ (1984), ऐसे भी हम क्या! ऐसे भी तुम क्या!! (1985), आखिर ऐसा क्या कह दिया मैंने (1986), इस गुब्बारे की छाया में (1990), भूल जाओ पुराने सपने (1994), अपने खेत में (1997) आदि।
साहित्यिक भाषा पर बाबा नागार्जुन का गज़ब का अधिकार रहा है। देसी बोली के ठेठ मधुर शब्दों से लेकर संस्कृतनिष्ठ शास्त्रीय पदावली तक उनकी भाषा के कई स्तर मिलते हैं। उन्होंने तो हिन्दी के अलावा मैथिली और बंगला में बहुत कुछ लिखा है। इन भाषाओं के अतिरिक्त संस्कृत, पालि, प्राकृत, बांग्ला, गुजराती, सिंहली, तिब्बती आदि अनेकानेक भाषाओं का ज्ञान भी उनके वृहद साहित्य को समृद्ध करते रहे हैं।
- उपन्यास – रतिनाथ की चाची (1948), बलचनमा (1952), नयी पौधा (1953), बाबा बटेसरनाथ (1954), वरुण के बेटे (1956), दुखमोचन (1957), कुंभीपाक (1960), उग्रतारा (1963), जमनिया का बाबा (1968), गरीबदास (1990) आदि।
- संस्मरण – एक व्यक्ति: एक युग (1963)
- कहानी संग्रह – आसमान में चन्दा तैरे (1982)
- आलेख संग्रह – अन्नहीनम् क्रियाहीनम् (1983), बम्भोलेनाथ (1987)
- बाल साहित्य – कथा मंजरी (1948) मर्यादा पुरुषोत्तम राम (1955), विद्यापति की कहानियाँ (1964)
- मैथिली रचनाएँ- चित्रा (कविता-संग्रह, 1949), नवतुरिया (1954), पत्रहीन नग्न गाछ (1967), पका है यह कटहल 1995), पारो (उपन्यास, 1946),
- बाङ्ला रचनाएँ – मैं मिलिट्री का बूढ़ा घोड़ा (1997 देवनागरी लिप्यंतर के साथ हिंदी पद्यानुवाद)
नागार्जुन को उनकी साहित्यिक उपलब्धियों के लिए समयानुसार विभिन्न साहित्यिक सम्मान प्राप्त हुए थे। मैथिली में रचित ‘पत्र हीन नग्न गाछ’ के लिए उन्हें सन् 1968 में ‘साहित्य अकादमी पुरस्कार’ प्राप्त हुए थे। इसी तरह से ‘भारत भारती सम्मान’ उत्तर प्रदेश हिंदी संस्थान, लखनऊ द्वारा, ‘मैथिलीशरण गुप्त सम्मान’ मध्य प्रदेश सरकार द्वारा, ‘राजेन्द्र शिखर सम्मान’ बिहार सरकार द्वारा, ‘राहुल सांकृत्यायन सम्मान’ पश्चिम बंगाल सरकार द्वारा, साहित्य अकादमी की सर्वोच्च फेलोशिप सम्मान आदि से सम्मानित हुए थे।
1948 के आस-पास में पहली बार नागार्जुन पर दमा का हमला हुआ और फिर कभी उसका ठीक से इलाज न कराने के कारण आजीवन वे समय-समय पर इससे पीड़ित ही होते रहे। दो पुत्रियों एवं चार पुत्रों से भरे-पूरे परिवार वाले नागार्जुन कभी गार्हस्थ्य धर्म ठीक से नहीं निभा पाये और इस भरे-पूरे परिवार के पास अचल संपत्ति के रूप में विरासत में प्राप्त वही तीन कट्ठे की उपजाऊ तथा तीन कट्ठे की वास-भूमि ही रह गयी था।
हिन्दी साहित्यिक जगत में अपनी ईमानदारी को प्रदर्शित करते सत्यवादिता और बिना लाग-लपेट के लंबे समय तक अपनी कविताओं को गाने के बाद 5 नवम्बर सन् 1998 को ख्वाजा सराय, दरभंगा, बिहार में सबके प्रिय यह जनवादी, जनकवि ‘बाबा’ हम सबसे सदा के लिए अपना मुँह मोड लिये।
आइए एक बार नागार्जुन के माध्यम से तत्कालीन भारत के संक्षिप्त जन इतिहास को जानने की कोशिश करते हैं –
‘पांच पूत भारतमाता के, दुश्मन था खूंखार गोली खाकर एक मर गया,
बाकी बच गए चार, चार पूत भारतमाता के, चारों चतुर-प्रवीन
देश निकाला मिला एक को, बाकी बच गए तीन।
तीन पूत भारतमाता के, लड़ने लग गए वो अलग हो गया उधर एक,
अब बाकी बच गए दो, दो बेटे भारतमाता के, छोड़ पुरानी टेक,
चिपक गया एक गद्दी से, बाकी बच गया एक
एक पूत भारतमाता का, कंधे पर था झंडा।
पुलिस पकड़ कर जेल ले गई, बाकी बच गया अंडा!’
विशेष – नागार्जुन की जन्मतिथि विवादित है। वे स्वयं अपनी जन्मतिथि 1911ई० की ज्येष्ठ पूर्णिमा को मानते थे और उनके पुत्र ने भी उनकी यही जन्मतिथि मानी है। परन्तु, कुछ अन्य स्रोतों में उनकी जन्मतिथि 30 जून 1911 ई० (शुक्रवार) मानी गयी है।
(नागार्जुन जयंती, 30 जून, 2022)
श्रीराम पुकार शर्मा
हावड़ा – 711101
ई-मेल सम्पर्क – rampukar17@gmail.com