संत शिरोमणि गुरु घासीदास जयन्ती पर विशेष…

श्रीराम पुकार शर्मा, कोलकाता :

सत के धजा,
गड़े हवे मोर अंगना, बाबा गुरुघासी दास,
जुबां-जुबां मीठ भासा, अरपन हे तोला पिरीत के दीयना।
सत के धजा…।

छत्तीसगढ़ प्रान्त के सामाजिक और सांस्कृतिक गतिविधियों की धूरी व संत परंपरा में अग्रणी गुरु घासीदास का नाम सर्वोपरि माना जाता है। गुरु घासीदास जी का जन्म चौदशी, पौष माह, संवत 1700, को वर्तमान में बिलासपुर जिले के गिरौदपुर बलौदा नामक ग्राम में हुआ था। इनकी माता का नाम अमरौतिन तथा पिता का नाम मंहगूदास था। मेहनत और मजूरी ही इस असाधारण परिवार की नियति थी।
पौस मास चौदस तिथि, पड़ेव दिन सोमवार।
मोरहि सूर्योदय समै, गुरु लियो अवतार॥
बाल्याकाल में घासीदास का मन अन्य बच्चों की तरह खेल-कूद तथा अन्य बाल्योचित गतिविधियों में न लगता था, बल्कि मैदान में खेलते-कूदते बच्चों से दूर मैदान के एक छोर में एकांत बैठा कुछ न कुछ सोचते ही रहता था। शायद बाल्यवस्था से ही इनके मन में वैराग्य जनित भावनाओं का प्रस्फुटन हो गया था। समाज में व्याप्त पशुबलि, तांत्रिक अनुष्ठान, जातिगत विषमता तथा अन्य कुप्रथाओं को देख कर बालक घासी का मन विचलित हो जाया करता था। बचपन से ही वह इन कुप्रथाओं का विरोध करने लगा था। समाज के निम्नजाति और निर्बल लोगों के उत्थान के लिए बालक का मन छटपटाते रहता था। छतीसगढ़ी समाज को नई दिशा प्रदान करने में गुरु घासीदास का योगदान अतुलनीय है। शायद सत्य से साक्षात्कार ही इस बालक के जीवन का परमलक्ष्य था। इसी लिए अक्सर दिन-दिन भर निर्जन खेतों में या फिर सुनशान जंगलों में बैठे अपने आप में बालक घासीदास खोये हुए रहता था।

घासीदास में अपने हमउम्र के बालकों के विपरीत व्यवहार को देख कर इनके माता-पिता चिंतित रहते थे। इनकी वैराग्य प्रवृति को ही देख कर परिजन के परामर्श पर इनका विवाह कम उम्र में ही सुफराबाई से कर दिया गया। परन्तु घासीदास विगत स्वभाव और क्रिया-कलापों में कोई विशेष परिवर्तन न हुआ। अंतर मात्र इतना ही हुआ कि गृहस्थजन्य कर्त्तव्यों के भार को वहन करते हुए भी उन्होंने अंधविश्वासों में जकड़े, विषमताग्रस्त समाज और निम्नजाति के लोगों की उन्नति के लिए उसके मन में विचारों का बवंडर प्रवाह पूर्ववत ही रहा।

चुकी सत्य से साक्षात्कार ही घासीदास के जीवन का परम लक्ष्य था, जिसके प्रयास में वह सदैव ही तल्लीन रहा करते थे। अपने व्यग्र मन की शांति के लिए उन्होंने अपने तीर्थाटन के क्रम में एक बार जगन्नाथपुरी की और गमन किये। परन्तु सारंगढ़ के पास ही उन्हें कुछ आत्मबोध हुआ और वहीं अपनी यात्रा को स्थगित कर ‘सतनाम’ का जाप करते हुए अपने घर लौट आए। वे सत्य की तलाश के लिए गिरौदपुरी के जंगल में ‘छाता पहाड़’ पर समाधि लगाये। इस बीच गुरूघासीदास जी ने गिरौदपुरी के पास ‘सोनाखान’ के जंगलों में अपना आश्रम बनाया तथा वहीं कोई बरगद या पीपल जैसे महत्वपूर्ण वृक्ष नहीं, बल्कि अति साधारण ‘औंरा-धौंरा’ वृक्ष के नीचे तपस्या करना प्रारम्भ किया। कुछ दिनों के बाद ही वहीं पर उन्हें दिव्य ज्ञान प्रकाश स्वरूप सतनाम प्राप्त हुआ। उस दिव्य ज्ञान प्रकाश को निज तक ही संचित न कर अपने उस अद्भुत विलक्षण अनुभूति से जन-जन को परिचित कराने के लिए गुरु घासीदास गृह त्याग कर लोक कल्याण हेतु आगे अग्रसर हो गए।

उन्होंने किसी से भी कोई सांसारि और आध्यात्मिक शिक्षा प्राप्त नहीं किया और न ही उनके कोई गुरु ही थे बाबा घासीदास स्वयं महाज्ञानी थे। भंडारपुरी आकर वहाँ के लोगों को घासीदास जी अपने ‘सतनाम’ का उपदेश देने लगे। दिन प्रतिदिन उनके श्रोताओं और अनुयायियों की संख्या भी बढ़ने ही लगी। अब घासीदास अपने अनुयायियों द्वारा ‘गुरुपद’ को प्राप्त कर ‘गुरु घासीदास जी’ के रूप में विख्यात हो गए। उन्होंने भक्ति का एक नवीन पन्थ प्रस्तुत किये, जिसे ‘सतनाम पन्थ’ और इसको मानाने वालों को ‘सतनामी’ या ‘सतनामी पंथी’ कहा जाने लगा। गुरु घासीदास के सात वचन ‘सतनाम पंथ’ के ‘सप्त सिद्धांत’ के रुप में प्रतिष्ठित हुए हैं, जिसमें सतनाम पर विश्वास, मूर्ति पूजा का निषेध, वर्ण भेद का विरोध, हिंसा का विरोध, व्यसन से मुक्ति, परस्त्रीगमन की वर्जना और दोपहर में खेत न जोतना है। उनका मानना था कि समाज में प्रत्येक व्यक्ति सामाजिक रूप से समान हैसियत रखता है। उन्होंने भी निर्गुणी संतों की ही भाँति शरीर को नाश्वर माना, जो पंच तत्व से बना यह काया अंत में पंच तत्व में ही विलीन हो जायेगा।
ये माटी के काया, ये माटी का चोला,
कै दिन बर आय हस, तै बतइ दे मोला,
ये माटी के…….।
गुरू घासीदास पशुओं से भी प्रेम करने की सीख देते थे। वे उन पर क्रूरता पूर्वक व्यवहार करने के खिलाफ थे। सतनाम पंथ के अनुसार खेती के लिए गायों का इस्तेमाल नहीं किया जाना चाहिये। गुरु के अनुसार ईश्वर का अस्तित्व ईंट-पत्थरों से बने मंदिरों या घरों में न होकर सबके ह्रदय में होता है। अतः उन्हें बाहर ढूंढने की अपेक्षा अपने अन्तः में उन्हें ढूंढना हितकर होगा। उन्होंने मूर्तियों की पूजा को वर्जित किया।
मंदिरवा म का करे जइबो
अपन घर ही के देव ल मनइबो
पथरा के देवता हालय नहीं डोलय हो
हालय नहीं डोलय। मंदिरवा म का….।

सभी ‘सतनामी पंथी’ अपने गुरु घासीदास जी की वाणी को अपने मन में धारण कर उसे ‘पंथी गीत’ रूप जन-जन को सुनाने लगे। परन्तु उनका ‘पंथी गीत’ कोई विशेष धार्मिक पन्थ या जाति से सम्बन्धित न होकर एक जनसामान्य लोक नृत्य गीत के रूप में प्रचलित हो गया। यह छत्तीसगढ़ की प्रख्यात लोक विधा भी मानी जाती है।
‘श्वेत ध्वज’ इस पंथी का प्रतीक चिन्ह हो गया और वे लोग मंदिर में गुरु घासीदास की मूर्ति या छवि के सम्मुख ढोल -मंजीरा के साथ बहुत ही तन्मय होकर गोल भंवर बनाकर नाचते-गाते-बजाते हैं।
तन्ना हो, तन्ना हो, मोर तन्ना हो तन्ना।
जग मं तैं बगराए सतनाम, तैं धरम के अलख जगाए।
तैं गियान के संदेस सुनाए, गांव-गांव म खडे हे जैतखाम।
जग मं तैं बगराए सतनाम…।
सतधर्म के आकांक्षी संत गुरु घासीदासजी मूलतः सत्य और अहिंसा के पुजारी थे। जन-जन को सत्य मार्ग पर चलाना ही उनका उद्देश्य था। दलितोत्थान और सतनाम के प्रचार-प्रसार में व्यर्थ के आडम्बर का वह पूर्ण विरोधी रहे हैं। सांसारिक वस्तुएँ मिथ्या है, तभी तो अपने गुरु घासीदासजी के अनु रूप सतनामी पंथी के अनुयायी सर्वदा श्वेत ध्वज लेकर सज-धज कर ‘जैतखाम’ (‘जैत’ अर्थात ‘जीत’ और ‘खाम’ अर्थात ‘खम्भा’ जो सतनामी प्रतीकात्मक स्थल मीनार स्वरूप भवन) में जाते हैं और भाव-विभोर होकर नाचते-गाते हैं

तोला कहंवा ल लानव गुरु आरूग फूल,
तोला कइसे के चढ़ावंव गुरु आरूग फूल।
गइया के दूध ल बछरू जुठारे हे,
कोठी के अन्न ल तुरही जुठारे हे।
तरिया के पानी ल मछरी जुठारे हे,
तोला इही ल चढ़ावंव गुरु आरूग फूल।

संत सिरोमणि गुरु घासीदास निम्न वर्गों को स्वाभिमान सहित जनकल्याण के पाठ पढ़ाते हुए सन् 30 फरवरी, 1850 को ब्रह्मलीन हो गए। आज भले ही बाबा का प्रत्यक्ष दर्शन संभव न है, पर उनके बताये मार्गों पर चलकर इस मनुष्य जीवन को सफल बनाया जा सकता है। आदि संत घासीदासजी का व्यक्तित्व ऐसा प्रकाश स्तंभ है, जिसमें सत्य, अहिंसा, करुणा तथा जीवन का ध्येय उदात्त रुप से प्रकट हुए हैं। उन्होंने जीवन पर्यंत लोगों को हितोपदेश देते रहे। उन्होंने जीवन में आत्मज्ञान के साथ ही साथ व्यावहारिक ज्ञान में संतुलन बनाये रखते हुए बहुत ही सहज और मधुर ढंग से लोगों की भाषा में प्रेम, भक्ति और भाईचारे की बातें समझाई है। उनके उपदेशों से समाज के असहाय लोगों में आत्मविश्वास, व्यक्तित्व की पहचान और अन्याय से जूझने की शक्ति का संचार हुआ। वह सामाजिक तथा आध्यात्मिक जागरण की आधारशिला स्थापित करने में सफल हुए।

आज छत्तीसगढ़ का कण-कण गुरु घासीदास के उपदेशों से उत्पलावित हो रहा है। गुरूजी भंडारपुरी को अपना धार्मिक स्थल के रूप में स्वीकार किया है। वहाँ गुरूजी के वंशज आज भी निवासरत है। बाबा गुरुघासीदास की जय हो।

श्रीराम पुकार शर्मा

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