श्रीराम पुकार शर्मा, हावड़ा। “शोचन्ति जामयो यत्र विनश्यत्याशु तत्कुलम्” अर्थात, ‘नारी जहाँ दुखित होती हैं, सताई जाती हैं, वह कुल शीघ्र ही नष्ट हो जाता है’, जबकि नारी सम्मानित घरों में सदैव महालक्ष्मी विराजमान रहती हैं। घर में सुख-संपन्नता, स्वस्थता, शांति आदि का अधिवास होता है। नारी लज्जा, शालीनता, स्नेह, ममता, सृजन और कला जैसे सम्मानित गुणों से समन्वित इस धरा की एक अनुपम ईश्वरीय कृति हैं, जिसके सम्मुख राजा, बाहुबली, ऋषि, महर्षि, देव आदि भी घुटने टेकते रहे हैं। परंतु नारी कोई वस्तु नहीं है, जिसे दांव पर लगायी जाए या उसे विजय-उपहार स्वरूप प्रदान की जाए। अतीत से ही हमारी संस्कृति में नारी को उसके विविध स्वरूपों के अनुकूल उसे सर्वदा सम्मानीय और पूजनीय माना गया है।
कोमल शिशु को अपने गर्भ से जन्म देती है, दृढ़ इच्छाशक्ति युक्त शक्तिशाली और ममतायुक्त एक नारी ही, प्रसवनी के रूप में निर्बल शिशु को अपने रक्त से निर्मित अमृत-सुधारस पान कराकर अपनी मातृत्व की छांव में पालन-पोषण करती है, एक नारी ही, माँ के रूप में शिशु के होश संभालते ही उसके नटखट स्वभाव को सहन करते हुए कदम-कदम पर उसका साथ देने वाली उसकी पहली संगी बनती है। एक नारी ही, बहन के रूप में जब वह स्कूल पहुँचता है, तो उसे अच्छे-बुरे में फर्क बता कर सांसारिकता की बातें बताने वाली मिलती है, एक नारी ही, शिक्षिका के रूप में फिर निज स्वाभिमान को त्याग कर पूर्ण समर्पित भाव से व्यक्ति के जीवनगत सुख-दुख में प्रतिपल साथ देने उसके संसर्ग में आती है, एक नारी ही, पत्नी के रूप में जीवन के संघर्षों की कठोर आघातों से जब-तब उसके टूटते हृदय को अपने कोमल नाजुक स्पर्श से जोड़ने वाली एक नारी ही होती है, बेटी के रूप में और अंततः सांसारिक जीवन-यात्रा की पूर्णता पर अपने आंचल में चिर-विश्राम देने वाली पुनः एक नारी स्वरूपा ही होती है, मातृभूमि के रूप में।
सत्य यही है कि जन्म से लेकर मरण तक नारी अपने विविध स्वरूपों में व्यक्ति को निरंतर सहारा देती रहती है। उसके बिना यह सृष्टि ही अपूर्ण है। अतः हर व्यक्ति को चाहिए कि वह नारी जाति का सदैव सम्मान करे। उसे कभी भी अपमानित न करे, क्योंकि नारी की क्रोधाग्नि में सब कुछ भस्म करने की भीषण शक्ति निहित होती है। उसके अपमान के दंड से अपराधी का समूल विनाश निश्चित हो जाता है, भले ही अपराधी विश्व का सर्वशक्तिमान व्यक्ति ही क्यों न हो।
नारी के अपमान का ही भीषण दंड को प्रदर्शित करते हैं, हमारे दोनों भारतीय महाग्रन्थ ‘रामायण’ और ‘महाभारत’ है। दोनों की पूरी कथा का आधार ही नारी के प्रति किए गए अपराधों के बदले उसके अपराधियों को मिलने वाले दंड की ही तो है। चाहे लंका नरेश रावण रहा हो, चाहे मथुरा नरेश कंस रहा हो, चाहे इच्छा मृत्यु वरदान से रक्षित भीष्म पितामह रहे हो, चाहे कुटिलता का परिचायक गांधार नरेश शकुनि रहा हो, फिर स्वयं भगवान श्रीकृष्ण ही रहे हों। कोई भी नारी के प्रति अपने अपराधों के दंड से मुक्त नहीं हुआ।
पितृ-पक्ष के दौरान भगवान राम, अपनी भार्या सीता और अनुज लक्ष्मण सहित अपने स्वर्गीय पिता दशरथ के श्राद्ध-तर्पण के लिए गयाधाम पहुँचे थे। श्राद्ध-कर्म संबंधित आवश्यक सामग्री जुटाने हेतु राम और लक्ष्मण नगर की ओर गमन किए। उनके लौटने में हो रहे विलम्ब और श्राद्ध का उपयुक्त समय निकलते जाने से चिंतित सीता जी ने वटवृक्ष, फल्गू नदी, गाय, तुलसी, कौआ, ब्राह्मण और केतकी-पुष्प को साक्षी मानकर बालू का ही पिंड बनाकर अपने स्वर्गीय श्वसुर राजा दशरथ के प्रति पिंडदान-तर्पण कर दिया।
परंतु भगवान राम और लक्ष्मण के लौटे आने पर सम्पन्न पिंड-तर्पण के संबंध में पूछे जाने पर सीता जी ने स्वर्गीय श्वसुर दशरथ द्वारा पिंड ग्रहण करने की बात बताई। उन्हें विश्वास दिलाने के लिए पूछे जाने पर फल्गू नदी, गाय, तुलसी, कौआ और केतकी के फूल साफ मुकर गए। तब सीता जी ने व्यथित मन से फल्गु नदी को कठोर श्राप दे दिया, – ‘हे फल्गू नदी! अब तू सिर्फ नाम की ही नदी रहेगी, तेरे सतह पर जल नहीं रहेगा।’ गाय को श्राप दिया, – ‘तू मातृ सदृश पूज्य होकर भी लोगों के जूठन ही खाएगी।’ तुलसी को श्राप दिया, – ‘तू गया की मिट्टी में न उगेगी।’ कौआ को श्राप दिया, – ‘तू बिना लड़े-झगड़े अकेला भोजन न करेगा।’ ब्राह्मण को श्राप दिया, – ‘तू कभी संतुष्ट नहीं होगा, चाहे कितना भी दान-दक्षिणा मिल जाए।’ और केतकी के फूल को श्राप दिया, – ‘तुझे किसी भी देवी-देवता-पूजन के लिए उपयुक्त न माना जाएगा।’
व्यथित नारी सीता जी का श्राप आज तक फलीभूत है। फल्गू नदी आज भी गया में सूखी ही रहती है। गाय घरेलू जूठन पर ही पलती है। तुलसी पौधा गया की मिट्टी में नहीं पनपते हैं। ब्राह्मण सर्वदा असन्तुष्ट ही रहते हैं। कौआ आपस में बिना लड़े भोजन नहीं करते हैं। केतकी के फूल ईश्वरीय आराधना में पूर्णतः वर्जित ही रहा है।
विद्युतजिव्ह, रावण की बहन सूर्पणखा का पति और राजा कालकेय का सेनापति था। रावण त्रिलोक विजयी की इच्छा रखते हुए कालकेय पर आक्रमण किया। अपने बहनोई सेनापति विद्युतजिव्ह का वध कर अपनी बहन सूर्पनखा को असमय ही विधवा बना दिया। तब व्यथित विधवा सूर्पणखा ने तत्क्षण अपने भाई रावण को श्राप दिया था, – ‘तेरे सर्वनाश का कारण मैं ही बनूँगी।’ व्यथित सूर्पनखा का श्राप अक्षरतः सत्य ही हुआ।
इसी तरह विवाह के उपरांत से ही मथुरा के कारागार में बंदी और अपनी आँखों के सम्मुख अपनी सात संतानों को एक-एक कर मरते देख वासुदेव-भार्या देवकी के व्यथित हृदय की आह से उत्पन्न श्राप के अनुकूल ही कालांतर में कंस का बध श्रीकृष्ण ने किया। दुःशासन ने द्रौपदी के सम्मुख अपनी छाती को ठोक कर उसके खुले बाल को पकड़े उसकी इच्छा के विरुद्ध उसे जबरन भरी सभा में घसीट कर लाने का पाप किया था। दंड स्वरूप उसकी छाती को फाड़ कर रक्त निचोड़ा गया। दुर्योधन ने अबला नारी द्रौपदी को दिखा कर अपनी जंघा ठोंकी और उस पर बैठना चाहा था। दंड स्वरूप उसकी जंघा को ही तोड़ कर उसे मार डाला गया।
महारथी कर्ण ने एक असहाय नारी के अपमान का भरपूर समर्थन किया था, तो उसे भी असहाय दशा में ही वध कराया गया। भीष्म पितामह ने प्रतिज्ञा में बंध कर एक नारी (द्रौपदी) के अपमान को देखने और दूसरी नारी (अंबा) के अपमान करने का पाप किया था, तो उन्हें भी शिखंडी (मूल रूप अंबा) को सम्मुख कर उनका सबसे प्रिय अर्जुन के हाथों ही उन्हें बधित किया गया। इच्छामृत्यु वरदान प्राप्त होने पर भी असंख्य तीरों में बिंध कर समर भूमि में उन्हें पड़े-पड़े अपने कुल की चार पीढ़ियों को एक-एक कर मरते हुए भी देखना पड़ा था, तब जाकर उन्होंने अपना प्राण त्यागा। क्या यह कोई महादण्ड न था? अवश्य ही था।
दंड तो अर्जुन को भी मिला था। स्वयंवर में अर्जुन ने ही द्रौपदी के गले में विवाह-माला डाली थी। द्रौपदी के प्रति अर्जुन का धर्म और फर्ज अन्य भाइयों की अपेक्षा अधिक थे। पर द्यूत क्रीड़ा में द्रौपदी को दांव पर लगाए जाने की मौन सहमति का उन्हें भी पर्याप्त दंड मिला। समर क्षेत्र में अर्जुन रोते रहे और न चाहते हुए भी अपने अभिभावकों तथा अपने परिजनों पर तीर चलाते ही रहे। कैसी विडंबना रही? जिनके हाथों के सहारे डोले, जिनकी छत्र-छाया में अपना बचपन बिताया, जिनकी सनिध्यता में समस्त ज्ञान अर्जित किया, उन्हें अपने ही हाथों मार डाला। अर्जुन केवल समर भूमि में ही न अश्रू बहाए, बल्कि आजीवन उस ग्लानि से मुक्त नहीं हो पाए होंगे। क्या यह कोई दंड से कम था? नहीं ! कदापि नहीं!
क्या नारी कोई वस्तु है, जिसे दांव पर लगाया जाए। पर महाराज युधिष्ठिर ने अपनी स्त्री द्रौपदी को द्यूत क्रीड़ा में दांव पर लगाया था, तो उन्हें क्या दंड न मिला? सर्वदा सत्य और धर्म के मार्ग पर चलने वाले धर्मराज को भी युद्धभूमि में अर्ध-झूठ का सहारा लेना पड़ा, जिस कारण ही तो उनके गुरु द्रोणाचार्य की हत्या हुई थी। गुरु की हत्या उनके ही शिष्य द्वारा! गुरु-हत्या का पाप उन पर लगा। उनके एक अर्धसत्य ने उनके सारे सत्य को धूमिल कर दिया। धर्मराज के लिए इससे बड़ा दंड भला और क्या हो सकता है?
गांधार नरेश शकुनि ने भीष्म से और धृतराष्ट्र से बदला लेने के लिए ही कुरुवंश के समूल नाश के लिए ही तो ‘महाभारत’ का युद्घ करवाया था। उसकी कुटिल चाल को भले ही दुर्योधन या महाराज धृतराष्ट्र न समझ सकें, पर पुत्र-शोक से विदीर्ण महारानी गांधारी आँखें ढकी होने पर भी सब कुछ समझ गई थी। आहत गांधारी ने अपने कुटिल भाई शकुनि को श्राप दिया कि जैसे तुमने मेरे वंश में परस्पर शत्रुता फैलाकर राज्य को अशांत कर छिन्न-भिन्न कर डाला, उसी तरह तुम्हारा गांधार देश कभी शांत न रहेगा और वह भी समूल नष्ट हो जाएगा।
देखने की बात यह है कि तब के कुटिल शकुनि का देश गांधार ही आज का कंधार है। वर्तमान में तालिबान शक्ति के अधीन कंधार युक्त सम्पूर्ण अफगानिस्तान अशांत है। उसकी ज़मीन पर चतुर्दिक खून की नदियाँ बह रही है। सभी नागरिकों का जीवन त्रस्त है। राजनीति और इतिहास सम्मत विद्वानों का मानना है कि गांधारी के शाप के दंश से गांधार आज तक न उबर पाया है।
अपनी करनी के दंड से भगवान श्रीकृष्ण भी वंचित न रहे। महाभारत के महासमर में श्रीकृष्ण की सुनियोजित योजना के तहत ही अपने सौ पुत्रों की अकाल मृत्यु से आहात गांधारी ने क्रोधित होकर श्रीकृष्ण को भी श्राप दिया था, – ‘जिस प्रकार से मेरे सौ पुत्रों सहित मेरे कुल का नाश अपने स्वजनों के हाथों हुआ है, उसी प्रकार तुम्हारा यदुवंश का भी तुम्हारी संतानों के परस्पर लड़ाई के कारण ही नाश हो जाएगा।’ नारी श्राप या क्रोध के सम्मुख स्वयं भगवान श्रीकृष्ण भी निर्बल ही साबित हुए। अपने सम्मुख अपने कुल का नाश असहाय होकर देखते ही रह गए।
तात्पर्य यह है कि नारी में यदि एक ओर नवीन सृष्टि की अद्भुत इच्छाशक्ति निहित है, तो वहीं दूसरी ओर अपने प्रतिद्वंदी को समूल विनाश करने की आह भरी श्राप जैसी महाशक्ति भी निहित है। अतः इस इस धरा पर नवीन सृजन हेतु नारी का अपमान नहीं, सम्मान अपेक्षित है।
श्रीराम पुकार शर्मा
हावड़ा, (पश्चिम बंगाल)
ई-मेल सूत्र – rampukar17@gmail.com