हिन्दी हमारी भाषा है, हिन्दी हमारी आशा है।
हिन्दी का उत्थान करना, यही हमारी अभिलाषा है।- शम्भुनाथ
‘हिन्दी’ न केवल एक भाषा है, बल्कि यह माँ भारती की अमर वाणी ‘संस्कृत’ की प्यारी और दुलारी दुहिता, संत-मनीषियों और सूर, कबीर, मीरा और तुलसी सहित बिहारी, भूषण, भारतेंदु, मैथिलीशरण, प्रसाद, निराला, महादेवी जैसे अमर कवियों की अमृत वाणी और अपने आप में सिमटे एक व्यापक भारतीय संस्कृति हैI हमारी संस्कृति की परिचायिका हिन्दी का चतुर्दिक विकास ही हम भारतीयों का जातिगत परम लक्ष्य होना चाहिएI
हिन्दी सदियों से विराट भारतभूमि की सम्पर्क की भाषा रही हैI सन् 1816 में विलियम कैरी ने लिखा था, – ‘हिन्दी किसी एक प्रदेश की नहीं, बल्कि सारे देश में बोली जाने वाली भाषा हैI’
राष्ट्रपिता महात्मा गाँधी जी ने हिन्दी की व्यापकता और भावों की समृद्धि को देख-समझ कर ही सन् 1917 में भरूच (गुजरात) में सर्वप्रथम हिन्दी को राष्ट्रभाषा के रूप में अपनी मान्यता प्रदान की थीI तत्पश्चात सन् 1918 में ही उन्होंने ‘हिंदी साहित्य सम्मेलन’ में हिंदी भाषा को राष्ट्रभाषा बनाने को भी कहा थाI
कानपुर के काँग्रेस के अधिवेशन में गाँधी जी ने एक प्रस्ताव भी पारित किया था कि अखिल भारतीय स्तर पर काँग्रेस की सभी कार्यवाही हिन्दी में ही चलाई जाय। हिन्दी के प्रचार-प्रसार के लिए उन्होंने अपने पुत्र देवदास गाँधी को दक्षिण भारत भेजा थाI देश के लगभग सारे नेताओं ने हिन्दी को ही अपने विचारों के विनिमय का आधार बनाकर स्वतंत्रता की लड़ाई को जारी रखाI
स्वतंत्रता संग्राम में “दिल्ली चलो” और “तुम मुझे खून दो, मैं तुम्हें आजादी दूँगा” जैसे ओजस्वी नारा देने वाले नेताजी सुभाष चन्द्र बोस हिन्दी पढ़, लिख और बोल तो सकते थे, परन्तु अक्सर वे हिचकिचाते और कुछ कमी महसूस किया करते थेI एक दिन उन्होंने अपने उद्गार को व्यक्त करते हुए कहा – “यदि देश में जनता की सेवा और देश में राजनीति करनी है, तो उसका माध्यम हिन्दी ही हो सकती हैI
इसलिए काँग्रेस का सभापति होकर मैं अच्छी तरह से हिन्दी न जानूँ, तो काम नहीं चलेगाI” तब उन्होंने श्री जगदीश नारायण तिवारी, जो उस समय काँग्रेस के कार्यकर्त्ता और हिन्दी के अच्छे अध्यापक भी थे, उन्हें अपने साथ रखा। फिर सुभाष बाबु ने बड़ी लगन के साथ हिन्दी सीखी और फिर वे बहुत ही अच्छी हिन्दी पढ़ने, लिखने और बोलने लगेI यहाँ तक कि ‘आजाद हिन्द फौज’ का सारा काम और सुभाष बाबु के सारे व्यक्तव्य हिन्दी में ही होने लगे थेI
देश की आजादी के उपरांत स्वतंत्र भारत की राजभाषा के प्रश्न पर 14 सितम्बर, 1949 को काफी विचार-विमर्श के बाद हिन्दी को राजभाषा के रूप में स्वीकृत कर लिया गयाI भारतीय संविधान के भाग 17 के अनुच्छेद की धारा 343 के (1) में हिन्दी के सम्बन्ध में स्पष्ट रूप में वर्णित है – “संघ की राजभाषा हिन्दी और लिपि देवनागरी होगीI” चुकी यह निर्णय 14 सितम्बर को लिया गया थाI अतः 14 सितम्बर को ही ‘हिन्दी दिवस’ मानाने की परम्परा चल पड़ी हैI
देश की आजादी के उपरांत हमारी संविधान द्वारा हिन्दी को आधिकारिक राजभाषा के रूप में स्वीकार तो कर लिया गया, और भारतीय संविधान के भाग 17 के अनुच्छेद की धारा 343 के (2) के अनुसार यह प्रावधान भी निश्चित किये गए – “संविधान लागू होने के 15 वर्ष की अवधि तक संघ के सभी सरकारी काम-काज में अंग्रेजी का प्रयोग किया जाता रहेगा, और इसके बाद ही अंग्रेजी के साथ ही साथ हिन्दी और देवनागरी लिपि के प्रयोग की अनुमति प्राप्त हो जाएगीI” जो आज तक संभव न हो पाया हैI
इसके अतिरिक्त अन्य कई धाराओं में हिन्दी को जकड़ कर रख दिया गयाI इसके पीछे कुछ राजनीतिक कारण भी हैI कुछ प्रान्तों में हिन्दी का कुछ विरोध हुआ, जिसे केंद्र कर तत्कालीन प्रधान मंत्री नेहरू जी ने संविधान के भाषागत नियमों में परिवर्तन कर ‘राजभाषा अधिनियम 1963’ को पारित करके अंग्रेजी के ही दावे को मजबूती प्रदान कियाI इस प्रकार हिन्दी के विकास में अंग्रेजियत के रोड़े आज तक हिन्दी को उसके उपयुक्त प्रशासनिक अधिकार तक को प्राप्त नहीं करने दिए हैंI भले ही हिन्दी के नाम पर प्रतिवर्ष देश के करोड़ों रूपये विभिन्न सेमिनारों के चाय, पानी, नाश्ते, उपहार आदि के नाम पर व्यय होते रहे हैं, पर हिन्दी आज भी अपने ही घर में अंग्रेजियत की गुलाम ही बनी हुई है, प्रशासनिक मेजों पर उपेक्षित ही हैI
परन्तु हिन्दी हमारे लिए केवल एक भाषा नहीं, बल्कि यह हमारी मातृ सदृश हैI अतः हिन्दी को राष्ट्र व्यापी सम्मान दिलाने के लिए किये गए कार्य-विशेष हमारे लिए कोई उत्सव नहीं, बल्कि यह तो अपनी माता की सेवा स्वरूप विशेष कर्तव्य हैI दुर्भाग्य से ‘हिंदी’ भाषा का महत्व धीरे-धीरे नीचे गिर रहा है। इसका कारण राजनीति के अतिरिक्त हम-आप भी हैंI हम-आप हिन्दी बोल कर तथाकथित पश्चिम हाई क्लास की सोसाइटी में अपने आप को सशंकित महसूस करते हैं, सार्वजनिक स्थानों में हिन्दी बोलने में हम शर्म महसूस करते हैं। इसीलिए आज जरुरत है कि –
आज स्याही से लिख दो, तुम अपनी पहचान, हिंदी हो तुम, हिंदी पर करना सीखो अभिमानI
हिन्दी के प्रखर और ओजपूर्ण प्रवक्ता अटल बिहारी वाजपेयी जी ने हिन्दी को प्रथम बार विश्व मंच पर लाने का सार्थक प्रयास किया थाI प्रथम ‘विश्व हिन्दी सम्मेलन’ सन् 1975 में नागपुर में हुआ थाI जिसमें प्रारित प्रस्ताव में कहा गया था, संयुक्त महासंघ में हिन्दी को आधिकारिक भाषा के रूप में स्थान दिलाया जायI ठीक इसके दो वर्ष बाद ही अटल बिहारी वाजपेयी जी ने 4 अक्टूबर 1977 को तत्कालीन विदेश मंत्री के रूप में ‘संयुक्त राष्ट्र महासभा’ के अधिवेशन में में हिन्दी में जोरदार भाषण दिया था, जिसे सुनकर विश्व भर के हिन्दी प्रेमियों में ख़ुशी की लहर दौड़ गयी थीI उन्होंने हिन्दी में अपनी बात रख कर एक तरह से संयुक्त राष्ट्र महासंघ से यह पुरजोर मांग की थी कि हिन्दी को उसका उचित स्थान हर स्तर पर मिलना ही चाहिएI
लेकिन अटल बिहारी वाजपेयी जी के उस महान भाषण के पश्चात् भी हिन्दी को संयुक्त राष्ट्र संघ में उसका उचित स्थान न मिल पाया हैI कुछ हद तक सही भी हैI जब हम अपने घर-परिवार में ही अपनी हिन्दी को उचित स्थान नहीं दे पा रहे हैं, तो अंतर्राष्ट्रीय मंच पर उसका उचित सम्मान की आश भी लगाये रखना हास्यस्पद बात ही हैI लेकिन भाषागत उस महान घटना के लगभग पाँच दशकों के दौरान अपने घर की बन्दिनी हिन्दी आशातीत एक लम्बी छलांग लगाईंI अब हिन्दी समूचे विश्व में बोली जा रही हैI फिजी, सूरीनाम, मारीशस, नेपाल, त्रिनिदाद, गुयाना आदि देशों में हिन्दी को महत्वपूर्ण स्थान प्राप्त हैI हिन्दी भाषा बोलने वाले की संख्या अब चीनी भाषा के बाद विश्व में सबसे ज्यादा हैI अन्य कई तथाकथित सभ्य भाषाएँ तो हमारी हिन्दी से बहुत पीछे हैंI
सारी दुनिया में हिन्दी को स्थापित करने वाला महत्वपूर्ण कारक हैं, सारे संसार में बसनेवाले हमारे ‘भारतवंशी’ और हमारी हिन्दी ‘फ़िल्में’ तथा ‘टेलीविजन के कार्यक्रमI बीते लगभग दो सौ वर्षों से भारतवंशी विभिन्न देशों में कामकाज के लिए जाने लगे हैंI जिन्हें हम बोलचाल की भाषा में भारतवंशी या ‘एनआरआई’ भी कहते हैंI ये सभी केवल हिन्दी भाषा-भाषी नहीं हैं, बल्कि ये सभी गैर-हिन्दी भाषीय भारतीय हैं, जो भारत से बाहर निकल कर किसी भी देश में बसने के साथ ही वे विराट फलक वाली हिन्दी के साथ जुड़ जाते हैं और हिन्दी में ही अपने विचार विनमय किया करते हैंI वे अपने बच्चों को भी हिन्दी में ही पढ़ने के लिए प्रेरित करते हैंI विश्व भर में हिन्दी के प्रचार-प्रसार में विदेशों में जा बसे हमारे इन समस्त भारतवंशियों का योगदान वन्दनीय और स्वागत योग्य हैI हिन्दी विकास जनित इनके कार्य और प्रयास हमारे लिए सदैव नमन योग्य हैI
हमारी भारतीय हिन्दी फ़िल्में, – अफ्रीका से लेकर यूरोप, अमेरिका, चीन, वैगरह में हिन्दी को स्थापित करने में अपनी अहम् भूमिका का निर्वाहन कर रहे हैंI इस महान कार्य को वस्तुतः 20 शताब्दी के महान व्यक्तित्व शोमैन स्व० राज कपूर जी ने प्रारम्भ किया थाI हिन्दी फ़िल्में विदेशों में जमकर देखी जाती हैI हिन्दी फिल्मों के गीतकार जैसे – शैलेन्द्र, आनंद बक्षी, साहिर लुधियानवी, नीरज, समीर, गुलजार, जावेद अख्तर, प्रशुन जोशी आदि किसी भी नामवर लेखक या कवि से कम नहीं हैंI
इसी प्रकार विगत शताब्दी के आठ के दशक में भारतीय टेलीविजन के क्षेत्र में महान क्रांति हुईI फिर अनगिनत पवित्र धार्मिक धारावाहिकों ने पूरी दुनिया को ही अपने आगोस में कर लींI शायद ही कोई ऐसा देश होगा, जहाँ के लोग अब रामायण, महाभारत, श्रीकृष्ण आदि से परिचित न हुए होI इसके साथ ही इन धारवाहिकों की भाषा ‘हिन्दी’ से भी अवश्य परिचित हुए हैं और इसे बोलने तथा समझने की कोशिश भी किये हैंI हिन्दी में लिखे गीतों को देश के बाहर भी करोड़ों लोग गुनगुनाते मिल जाते हैंI
है प्रीत जहाँ की रीत सदा, मैं गीत वहाँ के गाता हूँ I
भारत का रहने वाला हूँ, भारत की बात सुनाता हूँ I – इन्दीवर