गुरु पूर्णिमा पर विशेष : गुरु-सम्मान

श्रीराम पुकार शर्मा, हावड़ा। आज कई दिनों के बाद अचानक उनसे मेरी नजरें मिल गयीं। ‘सच्चिदानंद शांडिल्य’ सर जी केवल मेरे ही नहीं, बल्कि मेरे पिताजी के भी गुरु जी रहे हैं। पढ़ाई-लिखाई के क्षेत्र में स्कूल भर में वे बहुत कड़े और अनुशासित स्वभाव के थे। अनुशासनहीनता उन्हें कतई पसंद न थी। वे स्वयं कड़ी मेहनत करते और अपने विद्यार्थियों से भी कड़ी मेहनत करवाया करते थे। विद्यार्थियों को अधिक से अधिक पढ़ा देने की उनकी लालसा मुझ जैसे विद्यार्थियों को अक्सर बहुत ही बुरा लगता था। मैं तो उनका शिष्य-पुत्र के अतिरिक्त शिष्य भी रहा हूँ अतः मुझ पर तो उनका दोहरा विशेषाधिकार ही प्राप्त था। मेरी छोटी-छोटी गलतियों पर उनकी पैनी दृष्टि रहती थी और जिसके लिए वे मुझे अक्सर दण्डित किया करते थे। मेरे पिताजी किसी आज्ञाकारी छात्र की भांति उनकी सभी बातों को देव-वाणी की तरह सम्मान देते और अक्सर अपने कठोर झापड़ों से मुझे संतुलित किया करते थे। यह बात अलग थी कि मुझ जैसे ही कुछेक विद्यार्थियों को छोड़कर अन्य सभी पढ़ाकू विद्यार्थी ‘शांडिल्य’ सर से अति सन्तुष्ट रहा करते थे। ‘शांडिल्य’ सर जी उन विद्यार्थियों के लिए आदर्श थे।

श्रीराम पुकार शर्मा, लेखक

कई वर्ष पहले ही वे सेवा से निवृत हो चुके हैं। परंतु अपने जीवन के लम्बे अरसे से विद्यार्थियों के शिक्षण-कर्म से जुड़े होने के कारण ‘मास्टरी’ का रंग उन पर इतना गाढ़ा चढ़ा हुआ है कि वे आज भी अपने उसी रंग में रंगे हुए स्वयं को बच्चों और शिक्षण-कर्म से दूर नहीं कर पाए हैं। अंतर इतना ही रह गया है कि पहले वे स्कूल में बच्चों को पढ़ाया करते थे और पारिश्रमिक सरकार से लिया करते थे, पर आजकल आस-पास के मुहल्लों के तमाम गरीब बच्चों को अपने मकान के सामने के ही एक छायादार बरगद वृक्ष के नीचे ईंट, बालू, सीमेंट से बने चबूतरे पर ही बैठा कर निःशुल्क पढ़ाया करते हैं और पारिश्रमिक स्वरुप उन बच्चों तथा उनके गरीब अभिभावकों के चहरे पर उभरी मधुर मुस्कान को देख कर ही संतुष्टि प्राप्त कर लिया करते हैं। वही चबूतरा उनके दिनचर्या का कर्म-स्थल रहा है। बच्चों को पढ़ाने के उपरांत उनका जो समय बच जाता है, वह मुहल्ले भर के परिचित-अपरिचित लोगों के विभिन्न ‘आफिस’ सम्बन्धित आवेदन-पत्रों के लेखन आदि कार्य पर अर्पण हो जाया करता है।

तो मैं कह रहा था कि ‘शांडिल्य’ सर जी से बाजार में अचानक मुलाकात हो ही गई। मैं बाजार में अपने लिए कुछ कपड़े खरीदने गया था, सो खरीद लिया। पर दुकान से निकलते ही अचानक ‘शांडिल्य’ सर जी से जो सामना हो गया। परन्तु मेरे तथाकथित सभ्य कहलाने में सहायक मेरी वेश-भूषा भरे बाजार में उनके साधारण गँवई वेश-भूषा के समक्ष मुझे झुकने से पूर्णतः रोक ही दिया। मैं तो उन्हें नजरंदाज कर निकलना ही चाहता था, कि उन्होंने अपने स्वभावानुसार मुझे टोक ही दिया, – “शुभाशीष! कैसे हो? आज कई दिनों के बाद दिखाई पड़ रहे हो।”

“प्रणाम सर जी। ठीक हूँ।”- बहुत ही संक्षिप्त में ही कहकर निपटान करना चाहा। जानता था कि उनके साथ अगर बातचीत बढ़ाई, तो फिर समय के साथ ही साथ ‘अर्थ’ की भी हानि उठानी पड़ेगी। इसके पूर्व भी अनचाहे मन से कई बार मैं कई सौ रूपये उनकी जनसेवा के विभिन्न कार्यों पर न्योछावर कर चुका हूँ। कभी किसी विद्यार्थी के कपड़ों के लिए, तो कभी किसी विद्यार्थी की इलाज के लिए, तो कभी किसी विद्यार्थी के परिजन की भूख मिटाने के लिए। ऐसा तो कभी न हुआ है कि उनसे मुलाकात हुई हो और किसी विद्यार्थी की कोई जरूरी काम न निकल आया हो और उसके लिए कुछ आर्थिक सहायता के लिए उनका मुख न खुला हो।

एक बार तो मैंने उनके बड़े पुत्र कमलनाथ जी, जिन्हें मैं ‘अंकल’ कहा करता हूँ, जो जिला अदालत में एक साधारण अधिवक्ता हैं, उनसे भी ‘शांडिल्य सर’ की इस तरह की क्रिया-कलापों पर चर्चा की थी। सुनने में आया कि उस रात उनके अधिवक्ता पुत्र और पुत्रबधू उन्हें काफी खरी-खोटी सुनाएँ। पर शांडिल्य सर की दिनचर्या और स्वभाव में कोई बदलाव नहीं आया। पक्के घड़े पर अब क्या कोई नयी मिट्टी चढ़ेगी? अब तो मुझमें भी समझ आ गई है कि उन्हें नजरंदाज कर निकल जाना ही बेहतर होता है।

“बेटे शुभाशीष! जरा ठहरो तो। तुमसे एक जरूरी बात करनी है।”- उन्होंने अपने लक्ष्य को साध कर ही अडंगा लगा दिया। क्या करूँ? इन्हें नाखुश भी तो न कर सकता हूँ, क्योंकि एक तो वे मेरे पिताजी के भी गुरू जी रहें हैं और दूसरे में उनके छोटे पुत्र शिवनाथ अंकल, जो नगर निगम में क्लर्क हैं, उनसे अक्सर मुझे कार्य सम्बन्धित ‘आर्डर’ लेने और ‘बिल पास’ करवाने जैसे काम पड़ते ही रहते हैं। ऐसे में उनके पिता अर्थात ‘सर’ जी को नाखुश करना अपने कार्य-व्यापार के पैरों पर कुल्हाड़ी मारने के बराबर ही तो है।

“सर! अभी मैं बहुत जल्दी में हूँ। कभी फुरसत में आपसे बातें कर लूँगा।”- मैंने उन्हें टालना चाहा। पर वे तो मेरे बाप के भी गुरु रहे हैं। मेरी नस-नस से पूर्ण परिचित हैं। भला वे कहाँ मानने वाले थे। जबरन गले पड़ गए, तो पड़ ही गए।

“चलो, उधर छाँव में चलते हैं।”- क्या करता? मन मारकर उनके साथ ही पास के ही चाय-नास्ते की एक दुकान से लगे बाहर टीन की छाँव में गया। एक टेबल से लगी एक कुर्सी पर स्वयं बैठ कर बगल वाली कुर्सी पर उन्होने मुझे बैठने का इशारा किया। मैं भी खिन्न मन से बैठ गया। धूर्त दूकानदार भी शायद इसी ताक में था। बिना अवसर गवांए वह कुछ करते हुए काम छोड़कर तुरंत ही हमारे सम्मुख हाथ जोड़े सेवक की तरह हाजिर हो गया और आग्रह पूर्वक बोला, – “प्रणाम गुरु जी! गरमा गरम कचौड़ियाँ निकल रही है, ले आऊँ?”

“भई! मेरी इच्छा तो नहीं है। अगर शुभाशीष चाहे, तो दे जाओ।” – उन्होंने बातों के शब्दजाल में मुझे लपेट ही दिया। क्या करता? सो अपने पेट में गड़बड़ी का बहाना बना कर अपने लिए तो नहीं, पर उनके लिए एक प्लेट कचौड़ी और दो कप चाय लाने कह दिया। दूकानदार चला गया। फिर उन्होंने अपने कंधे से लटकते ‘विद्यापति झोला’ को उतार कर ‘टेबल’ पर रखा और उसमें से एक कागज निकालकर मेरे सामने रखते हुए कहा,- “बेटे! यह कुछ दवाइयों की ‘लिस्ट’ है, जो एक बहुत ही गरीब परिवार को एक डॉक्टर ने दी है। इसमें कई ‘टेस्ट’ भी करवाना था, सो मैं एक अन्य सज्जन के मार्फत सारे ‘टेस्ट’ करवा दिया हूँ। अब ये कुछ दवाइयाँ हैं, जिसकी उसे तुरंत ही आवश्यकता है। बेटे! तुम इन दवाइयों को खरीद दो। उस गरीब का भला होगा। घर में वही एक मात्र कमाने वाला है। उस पर तीन अन्य प्राणियों के जीवन आश्रित है। बड़ा ही पुण्य मिलेगा, तुम्हें बेटे!”

इच्छा हुआ कि साफ इंकार ही कर दूँ। कोशिश की, पर न कर सका। मन मार कर पास के ही दवा की दूकान से तीन सौ बीस रूपये खर्च कर सारी दवाइयाँ लेकर आया, तो देखा ‘सर’ जी चाय की चुस्की ले रहे हैं। कचौड़ियों का प्लेट गायब देख कर प्रतीत हुआ, सारी कचौड़ियाँ इतनी जल्दी अकेले ही साफ़ कर चुके हैं। मन तो पहले से ही खट्टा था ही, अब तो और भी कडुवा हो गया।

“सर! यह लीजिए दवाइयाँ। तीन सौ बीस रूपये की हैं।”- मैंने खिन्नतावश ‘तीन सौ बीस रूपये’ पर काफी जोर देकर कहा। फिर मैंने उनपर व्यंग्यात्मक वार किया,- “सर! आप केवल चाय ही पी रहे हैं? आपके लिए और कचौड़ी मँगवाऊँ?”

शायद मेरे व्यंग्य वाण को समझ गए। अपनी बाँयी हथेली से चाय की प्याली को पकड़े हुए और दाहिने हाथ के अंगूठे और तर्जनी से चाय के कप को अपने होंठों से लगाये एक लम्बी चुस्की लेते हुए उन्होंने अपनी बूढी आँखों से सामने की ओर इशारा किया। देखा एक भिखारी जमीन पर बैठा है। उसके सामने ही उन कचौड़ियों का ‘प्लेट’ पड़ा है और वह बड़े ही चाव से उसमें से कचौड़ियाँ खाने में मगन है।
कुछ ही दूरी पर एक और अन्य भिखारी आता दिखाई दिया।

(गुरु पूर्णिमा पर विशेष)
श्रीराम पुकार शर्मा
हावड़ा – 711101
(पश्चिम बंगाल)
ई-मेल सूत्र – rampukar17@gmail.com

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