श्रीराम पुकार शर्मा, हावड़ा। ‘गावो विश्वस्य मातरः’- अर्थात् ‘गाय ही सम्पूर्ण विश्व की माता है’- यह एक प्राचीन वेद-वाणी है। वेदों में गाय को ‘अदिति’ भी कहा गया है। हमारे चारों वेदों और लगभग सभी पुराणों व शास्त्रों में गाय को सर्वदा श्रेष्ठ और पूजनीय बताया गया है। इसकी मातृ सदृश उपादेयता और व्यवहार कुशलता के अनुकूल ही यह वेद-वाक्य है। इसकी सहनशीलता, त्यागशीलता, वात्सल्यता, प्रेम की पराकाष्ठा आदि के आधार पर अगर गए हमारी जन्मदात्री माता से बीस नहीं, तो फिर उन्नीस भी नहीं कही जा सकती है। अतः इसके मातृत्व को ही ध्यान में रखकर हमारी सनातन संस्कृति और दर्शन में प्राचीन काल से ही इसे ‘गोमाता’ की आदरणीय संज्ञा प्रदान की गई है।
गाय को मातृ-सत्ता सहित मानवीय सुख-समृद्धि, शांति और आध्यात्मिकता का प्रतीक माना गया है। इसके दूध ही क्या? इसके गोबर-मूत्र को भी अति पवित्र मान कर ही स्वयं देवी लक्ष्मी जी ने उसमें रहने को ठानी है। अतः धर्म प्रधान भारत में वैदिक काल से ही गाय को देवी-स्थान प्राप्त है। प्रतिदिन इसकी पूजा, इसकी आरती, इसके लिए उत्तम भोजन, उत्तम स्थान आदि को निर्धारित करना हमारे मूल कर्तव्यों में से एक विशेष कर्तव्य है। उसके शांतिप्रिय जीवन में किसी तरह की उच्छृंखलता को पूर्णतः प्रतिबंधित माना गया है। अतः हर दृष्टि से गाय को सर्व पवित्र मानते हुए उसकी प्रताड़ना या हत्या को महापातक की श्रेणी में रखा गया है। इसकी सेवा हमारा जातीय कर्तव्य है। श्रीमद्भागवत में भगवान कृष्ण जी ने स्वयं गोमाता में अधिष्ठित ईश्वरीय स्वरूप को प्रमाणित किया है –
‘धेनुनाम अस्मि कामधुक्’
अर्थात, – ‘गायों में मैं सर्व इच्छा पूरी करने वाली कामधुक् (कामधेनु) हूँ।’
शास्त्रों की मान्यता भी है कि चौरासी लाख योनियों का सफर करके आत्मा अपनी अंतिम योनि के रूप में गाय ही बनती है। इस प्रकार गाय लाखों योनियों का वह अंतिम पड़ाव है, जहाँ आत्मा विश्राम करके आगे की स्वर्गधाम की पुनः यात्रा शुरू करती है। अंततः गाय ही आत्मा को वैतरणी नदी पार करा कर स्वर्गधाम पहुँचाती है।
देव-दानवों के लगभग एक हजार वर्षों के अथक परिश्रम के उपरांत समुद्र मंथन से सबसे पहले तो जल का हलाहल ‘विष’ निकला था। ठीक उसके उपरांत ही उक्त ‘विष’ के दमन हेतु अमृत प्रवाहित करती दिव्य ‘कामधेनु गाय’ प्रकट हुई थी । तत्पश्चात ही कौस्तुभ मणि, चंद्रमा, लक्ष्मी, रंभा, पांचजन्य शंख आदि भी एक-एक कर उस समुद्र मंथन से उत्पन्न हुए थे। ‘कामधेनु’ जिसका अर्थ ही होता है ‘समस्त कामनाओं की पूर्ति करने वाली’। वह दिव्य ‘कामधेनु’ चुकी अग्निहोत्र (यज्ञ) की विभिन्न पवित्र ‘पंचगव्य’ सामग्रियाँ, यथा- दूध, दही, घी, गोबर और मूत्र को उत्पन्न करने वाली रही, जिसके उपयोग से सम्पूर्ण मानवता एवं विश्व कल्याण हेतु यज्ञ, महायज्ञ, आध्यात्मिक अनुष्ठान आदि किया जाना संभव हो सका है। उस ‘कामधेनु गाय’ में असीम देवीय चमत्कारी शक्तियाँ समाहित थीं, जिसके दर्शन मात्र से ही लोगों के दु:ख और पीड़ा स्वतः ही दूर हो जाया करती थीं।
अतः उस ‘कामधेनु’ को आध्यात्मिक कार्य सम्पन्न हेतु ब्रह्मा के मानस पुत्र त्रिकालदर्शी महर्षि वसिष्ठ जी को प्रदान किया गया। उन्होंने जगत के कल्याण कार्य हेतु उसे सादर ग्रहण कर उसकी सेवा में तल्लीन रहें। उसकी उपस्थिति में ऋषियों की समस्त सत् कामनाएँ चमत्कारिक रूप में पूर्ण हो जाया करती थीं। उसका दूध तो अमरावती के अमृत के समान ही था। हमारे परम करूणामय प्राचीन ऋषियों ने उस ‘कामधेनु’ से प्राप्त ‘पंचगव्यों’ की महिमा को समझकर ही उसके अनुरूप समस्त गायों को ‘पयस्विनी’ और ‘सुरभी’ कहकर उसे ‘माता’ का विशेष पद प्रदान किया है। वेदों के द्वारा गाय को महिमा मंडित करने के कारण ही सनातनी लोगों में गाय को ‘गोमाता’ कहने या मानने का विचार जागृत हुआ, जो आज तक हमारे समाज और संस्कृति में विद्यमान है।
हमारे वेदों और पौराणिक शास्त्रों में गाय में 33 कोटि, यानी 33 प्रकार के देवी-देवताओं का अधिवास बताया गया है, जिनमें 12 आदित्य, 8 वसु, 11 रूद्र और 2 अश्विन कुमार शामिल हैं। इसलिए किसी भी गाय की सेवा-पूजा के माध्यम व्यक्ति को स्वतः ही 33 (कोटि प्रकार के) देवताओं के पूजन का सुफल प्राप्त हो जाता है। तभी तो त्रेता युगीन त्रिकालदर्शी महर्षि वसिष्ठ जी ने कहा है –
‘यया सर्वमिदं व्याप्तं जगत् स्थावरजङ्गमम्। तां धेनुं शिरसा वन्दे भूतभव्यस्य मातरम्॥’
अर्थात,- ‘जिसने समस्त चराचर जगत् को व्याप्त कर रखा है, उस भूत और भविष्य की जननी गो माता को मैं सादर मस्तक झुका कर प्रणाम करता हूँ।’
आध्यात्मिक शास्त्र ‘गरुड़ पुराण’ में ‘बैतरणी’ नामक एक नदी का उल्लेख मिलता है। शास्त्र में कहा गया है कि मृत्यु के उपरांत मानवीय आत्मा को स्वर्ग तक पहुँचने के ठीक पूर्व ‘बैतरणी नदी’ को पार करना पड़ता है, जो बड़ा ही दुष्कर है। लेकिन जो मनुष्य अपनी जीवितावस्था में ‘गौ-दान’ या फिर ‘गौ-सेवा’ किया है, उसे बैतरणी नदी को पार करवाने के लिए वह गाय वहाँ पहले से ही उपस्थित रहती है। आत्मा उसकी पूँछ के सहारे बैतरणी नदी को सुगमता से पार कर स्वर्गधाम में पहुँच जाती है।
प्रारंभ में तो गाय का सादर पालन-पोषण उससे अमृत तुल्य दूध की प्राप्ति के अतिरिक्त व्यापार के अंतर्गत सामानों के विनिमय के लिए उसे इकाई के रूप में प्रयोग किया जाता रहा था। फिर बाद में इसका पालन इसके वंशजों बैलों के अपार शक्ति को देखते हुए उनका उपयोग खेती-बारी, भारी सामान ढोने जैसे विविध कार्यों में करने के लिए किया जाने लगा। गाय अपनी पुष्ट रीढ़ और कंधों में मौजूद ‘सूर्यकेतु नाड़ी’ से सूर्य के ‘स्वर्ण-किरणों’ को अवशोषित कर उसमें मौजूद ‘स्वर्णाक्षार’ तेज को अपने दूध में समाहित कर लेती है । यह सूर्यकेतु नाड़ी केवल गाय में ही पायी जाती है, किसी अन्य प्राणी में सुलभ नहीं है।
इसीलिए गाय से प्राप्त दूध, गौ-झरण, दही और गोबर पीलापन हुआ करता है। इसी ‘स्वर्णाक्षार’ के कारण गाय के दूध, दही और घी में स्वर्ण जैसी ताकत पायी जाती है, जो मानवीय आरोग्य व प्रसन्नता के लिए ईश्वरीय वरदान स्वरूप हैं। फलतः किसी के द्वार पर गाय और उसके वंशजों की अधिकता ही उस घर-परिवार की सुख-संपदा तथा उस घर के लोगों की निरोगता की निशानी हुआ करती थी। भारतीय मनीषियों ने करबद्ध गौ-माता की स्तुति कर उसकी रक्षा करने के लिए सभी को प्रेरित किया है-
‘त्वं माता सर्व देवानां त्वं च यज्ञस्य कारणम्। त्वं तीर्थं सर्वतीर्थानां नमस्तेस्तु सदानधे।’
अर्थात,- ‘हे पाप नाश करनेवाली गो-माता! आप सभी देवताओं की भी माता हैं। आप ही यज्ञ का मंगल कारण हैं। सभी तीर्थों में आप सबसे पवित्र हैं। मैं आपको सादर प्रणाम करता हूँ।’
गाय को प्राचीन ऋषि-मनीषियों ने ऐसे ही ‘माता’ की संज्ञा नहीं प्रदान की है, बल्कि उन्होंने आज से कई हजारों वर्ष पूर्व ही अपने दिव्य ज्ञानबल पर गाय की उपादेयता को परख लिया था। गाय के दूध में रेडियो विकिरण रोकने की सर्वाधिक शक्ति होती है, जो मस्तिष्क की कोशिकाओं को सबलता प्रदान कर उसकी याददाश्त शक्ति को बढ़ती है। इसमें उपस्थित केरोटीन, आँखों की रोशनी को बढ़ाने में सहायक होती है। यह दिल की बीमारियों को भी दूर करती है।
नवजात शिशुओं के लिए गाय का दूध सुपाच्य और पौष्टिक आहार होता है। इसी तरह से गाय के एक तोला घी से यज्ञ करने से करीब एक टन ऑक्सीजन बनता है। गाय की पीठ पर प्रतिदिन 10 से 15 मिनट हाथ फेरने से ‘रक्त-चाप’ सामान्य हो जाती है। क्षय रोगियों को गाय के बाड़े में या गोशाला के करीब रखने से उसके गोबर की गंध से क्षय रोग, चेचक रोग और मलेरिया के कीटाणु भी नष्ट हो जाते हैं।
गाय का दूध, घी और गोबर ही नहीं, बल्कि इसका मूत्र भी बड़ा उपयोगी होता है। आयुर्वेद के अनुसार, गोमूत्र कुष्ठ रोग, बुखार, अल्सर, यकृत रोग, किडनी विकार, अस्थमा, कुछ एलर्जी, सोरायसिस, एनीमिया और यहाँ तक कि कैंसर का भी सफल इलाज कर सकता है। आधुनिक शोध के अनुसार स्पष्ट हो चुका है कि गोमूत्र और गोबर में कैंसर रोधी तत्व पाए जाते हैं। वैज्ञानिक शोधों से यह भी ज्ञात हुआ है कि गाय ही एकमात्र ऐसा प्राणी है, जो ऑक्सीजन ग्रहण करती है और ऑक्सीजन ही छोड़ती है। फलतः गाय के करीब रहने से श्वसन संबंधित संक्रामक रोग नहीं हो पाते हैं। इसीलिए हमारे प्राचीन ऋषि-मुनि-मनीषियों ने वेदों और पौराणिक शास्त्रों के माध्यम से हमें गाय की सेवा और उनके प्रति असीम श्रद्धाभाव रखने का उपदेश दिया है।
अतः गाय की रक्षा करना, उसका पोषण करना एवं उसकी पूजा करना प्राचीन काल से ही हमारी भारतीय संस्कृति का अभिन्न अंग रहा है, जो कालांतर में हमारी आस्था और आध्यात्मिकता के रूप में बदल गई। वेदों में कहा गया है कि ‘गौधन मानव को मोक्ष प्राप्ति में सहायक होता है। इससे ही हमें सात्विकता मिलती है, कांति मिलती है और आत्मीय सुख प्राप्त होता है।’ इसलिए कुछ शताब्दी पूर्व तक भारत का प्रत्येक नागरिक ‘गौपति’ या ‘गौपालक’ बनने में अपना बड़प्पन मानता था। कुछ क्षेत्र में आज भी यह सिद्धांत प्रचलित है।
परंतु आज मातृ सदृश उपकारी ‘गौमाता’ के ऊपर यूरोपीय देशों में तथा गैर-हिन्दू जाति के लोग माँस की आपूर्ति के लिए गिद्ध-चील-कौवों की तरह मंडराने लगे हैं। यदि गाय को अब भी नही बचाया गया, तो भयानक संकट का आना पूर्ण निश्चित ही है, क्योंकि गाय से ही हमारे गाँव हैं और गाँव से ही हमारा भारत देश है। वर्तमान में विश्व भर में गायों की कुल संख्या 13 खरब होने का अनुमान है। जिनमें से अकेले भारत में ही इनकी संख्या करीब 28 करोड़ 17 लाख के ऊपर हैं।
परंतु यह संख्या अब क्रमशः घटती ही जा रही है, जो इस बात का प्रमाण है कि उनको माँस व्यापार का प्रमुख जरिया बनाया जा रहा है और उन्हें विदेशों में भेजा रहा है। देश की आजादी के समय तक हमारे देश में गो-वंशों की लगभग 80 नस्लें थी, जो अब घटकर मात्र 32 रह गई हैं। उस समय प्रति हजार भारतीयों पर 430 गौ-वंश उपलब्ध थे, जो 2001 में घटकर 110 हो गयी और 2025 में यह आँकड़ा घटकर 20 तक हो जाने का अनुमान है। इससे यह बात स्पष्ट है कि जिसे हम ‘गौमाता’ कहते हैं, उनका वास्तविक हाल क्या है? उनके प्रति हम कितने संवेदनशील हैं?
गाय और गौ-वंशों की उपयोगिता को देखते हुए भारत तथा कुछ अन्य देशों के हिन्दू, बौद्ध, जैन, सिख, पारसी आदि सैकड़ों वर्षों से गो-हत्या का विरोध और गौ-रक्षा का समर्थन करते रहे हैं, किन्तु मोटे तौर पर दिन दूनी और रात चौगुनी आबादी बढ़ाने वाले मुसलमान गौ-हत्या रोकने के पक्ष में किसी तरह से नहीं रहे हैं। उनके समर्थन में कुछ अपने ही हिन्दू लोग अपनी राजनीति स्वार्थ हेतु आगे बढ़कर उनकी गौ-हत्या प्रवृति को बढ़ावा दे रहे हैं। नतिजन गौ-वंशों की हत्या निरंतर बढ़ रही है। उसके सामानंतर में उनकी रक्षा हेतु ‘गौरक्षा आन्दोलन’ भी चलाए जा रहे हैं, पर इनके समर्थन में गोमाता को पूजने वाले तथाकथित ‘गौ-पुत्र’ बहुत कम ही सामने आ रहे हैं। जबकि श्रीलंका और म्यांमार जैसे देशों में इसे भारी समर्थन प्राप्त है। श्रीलंका विश्व का पहला देश है, जिसने पशुओं को किसी भी प्रकार की हानि पहुँचाने से रोकने वाला कानून पारित कर दिया है।
हमारे देश में आगत तथा धर्मांतरित नए मुसलमानों ने हमारी आत्मा, सभ्यता, संस्कृति, आध्यात्मिकता को आघात पहुँचाने के उद्देश्य से ही हमारी आँखों के सामने ही हमारे गौ-वंशों की हत्या करने लगे हैं। जबकि अपने जिह्वा-स्वाद की पूर्ति के लिए विदेशी और गैर-हिन्दू विद्वानों ने भी ऐसी शिक्षा नीति निर्धारित की है, जिससे विद्यार्थी आगे चलकर गाय और प्रकृति से दूर ‘फैक्ट्री-उत्पादन’ संस्कृति पर पूर्ण रूपेण आश्रित हो जाए। अनाज की कमी का भय दिखाकर रसायनिक-खादों की बड़ी-बड़ी फैक्ट्रियाँ चल ही पड़ी हैं। उसी तरह से दूध की कमी को दिखाकर डिब्बे वाले दूध की फैक्ट्रियाँ स्थापित हो गईं हैं।
गोबर की जगह यूरिया सहित रसायनिक की बोरियाँ आ गई हैं। बैलों की घन्टियों की जगह हृदय को कंपित करने वाले शोरयुक्त दैत्याकार ट्रैक्टर और मशीनरी यंत्र आ गये हैं। दूध, दही, घी, मक्खन आदि सब कुछ फैक्ट्रियों द्वारा निर्मित ही प्राप्त हैं। सब कुछ इसलिए कि हम फैक्ट्री कृत ‘लॉलिपॉप’ को चाभते रहें और वे हमारी गोमाता के माँस का निर्बाध निर्यात व्यापार करते रहें। हम अपने हाथ पर हाथ धरे मौन-मूक अपनी गो माताओं को निरंतर कटते देख रहे हैं। दूसरी ओर देशी गृह-उद्योगों सहित ग्रामीण आत्मनिर्भरता को विनष्ट होती जा रही है।
ऐसे गौ-हत्यारे पापीजनों को केंद्र कर ही चैतन्य महाप्रभु ने अपने ‘अमृतवाणी’ में कहा है-
‘गो-अंगे यता लोमा तता सहस्र वत्सर
गो-वधि रौरव-मध्ये गति निरंतर।’
अर्थात,- ‘गौ-हत्यारों और गौ-भक्षकों को हजारों-हजारों वर्षों तक नरक में सड़ने की सजा दी जाती है, क्योंकि उनके द्वारा खाए गए गौ-अंश वाली गाय के जितने रोयें (बाल) की कीमत उसे उतने ही वर्ष तक नरक में सड़कर बिताना पड़ेगा।’
तथाकथित शिक्षितजन और शहरों में रहने वाले लोगों ने तो गोबर-मूत्र को दुर्गंध मान कर गो-वंशों से अपनी दूरी ही बना ली है। फिर हमारे धार्मिक देश में गाय सहित हजारों पशुओं को काटने के लिए लगातार खुलते जा रहे कत्लगाह के विरोध में कहीं से कोई विरोधात्मक शब्द ध्वनित नहीं हो रहा है। नतीजा दिन-प्रतिदिन गो-वंशों की संख्या में कमी होती जा रही है और खेत-खलिहान से लेकर घर-आँगन में उत्पन्न होने वाले उत्पादनों से मुख मोड़ कर हम सभी फैक्टरियों के मिलावटी और महँगे उत्पादनों पर पूर्ण रूपेण निर्भर होते जा रहे हैं।
गाय को माता कहने वाले तथाकथित ‘पुत्रगण’ भी फैक्ट्री निर्मित दूध से बने चाय की चुस्कियाँ ले-लेकर संतुष्ट नजर आते हैं। स्थिति इस कदर भयावह हो गई है कि दूध की नदियाँ बहने वाले, गोपाल-कृष्ण को मानने वालों के देश में अब तो पूजा-पाठ में भी गाय के थोड़े-से दूध-दही-गोबर के लिए लोगों को तरसना पड़ रहा है, या फिर मॉल-दुकान के पैकेट बंद दूध-दही-गोबर पर ही नर्भर रहना पड़ रहा है।
धरती-जल-वायु और समस्त चराचरों को देवी-देवता स्वरूप मानने वाला भारतीय समाज प्राचीन काल से ही ‘गाय’ की पूँछ को पकड़े अपनी मुक्ति की कामना करने वाला रहा है। प्रकृति की समस्त वस्तुएँ ही हमारे सम्मानित धार्मिक-चिह्न रहे हैं और हमारे लिए सदैव पूजनीय रहे हैं। नदियाँ हमारी माता हैं। पेड़-पौधे हमारे देवता हैं। यहाँ की घाटों, नदियों, कूपों, रास्तों, वन-उपवन आदि को भी व्यक्ति सूचक नाम रखे जाते हैं, ताकि हमारे बाद भी समाज में हमारी स्मृतियाँ बनी रहे। पर यह कैसी विडंबना है कि उसी सनातनी आध्यात्मिक हमारे समाज को हमारी ही गौ माताओं को खाने वाले दुष्ट मानवीय दानव अपने बड़े-बड़े लेक्चर से हमें प्रकृति से जुड़ने की शिक्षा देते हुए स्वयं को श्रेष्ठ साबित करने की नापाक कोशिश करते रहे हैं और हमलोग ताली बजा-बजा कर उनके मनोबल को बढ़ाते रहे हैं।
आर्य समाज के संस्थापक महामना स्वामी दयानंद सरस्वती, जिन्हें ‘गौ करुणानिधि’ की संज्ञा प्राप्त है, उन्होंने कहा है कि ‘हमारी एक गौमाता अपने जीवनकाल में पच्चीस हजार से भी अधिक मनुष्यों को तृप्त कर सकती है। लेकिन यह भी सत्य है कि जब से हमारी ‘गौ-माता’ को ‘पशु’ मान लिया गया है, तभी से हम भारतीयों का चतुर्दिक ह्रास भी प्रारंभ हो गया है । हम सब हर दृष्टि से ही श्रीविहीन होने लगे हैं।’ जो भारत अपनी देव-संस्कृति के कारण कभी ‘जगद्गुरु’ के विशेष पद पर आसीन था, आज वही भारत दूसरों के पिछलग्गू बने उनके पीछे अंधों की भाँति बेतहाशा भागते नजर आ रहा है।
हम भारतीयों ने ही विभिन्न देशों की यात्राएँ करके अपने ज्ञान-प्रकाश से दुनिया सभ्य बनाए हैं। जबकि उन असभ्यों ने हमारी समस्त ज्ञान की पोथी-पुस्तकों को ही जला डाले, ताकि हम भी उनके सदृश असभ्य बने रहें और उनका अनुचर बन जाएँ। कुछ हद तक वे अपने उद्देश्य में सफल भी हुए हैं, क्योंकि आज भारत की आधी आबादी अपनी दीनता के लिए अपने विद्व पुरखों को ही कोसते और गालियाँ देते नजर आते हैं और विदेशियों की प्रशंसा करते नहीं थकते हैं।
लेकिन यह भी सत्य है कि अपनी सभ्यता व संस्कृति रूपी ‘गौमाता’ की पूँछ को पकड़ कर ही हम अपनी अज्ञानता और दीनता की ‘बैतरणी’ को पार कर अपने खोए हुए ‘जगद्गुरु’ के विशेष पद को पुनः प्राप्त कर सकते हैं। ब्रह्मा के मानस पुत्र त्रिकालदर्शी महर्षि वसिष्ठ जी के शब्दों में मैं भी यही कामना करता हूँ-
‘गावो ममाग्रतो नित्यं गावः पृष्ठत एव च।
गावो मे सर्वतश्चैव गवां मध्ये वसाम्यहम्॥’
अर्थात, – ‘हे प्रभु! गाय मेरे आगे रहें। गाय मेरे पीछे रहें। गाय मेरे चारों ओर रहें और मैं गायों के बीच ही सदा निवास करूँ।’
श्रीराम पुकार शर्मा,
हावड़ा – 1 (पश्चिम बंगाल)
ई-मेल सूत्र- rampukar17@gmail.com
गोपाष्टमी, कार्तिक शुक्लपक्ष, अष्टमी,
9 नवंबर, 2024
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