बुद्ध पूर्णिमा पर विशेष…

“बुद्धं शरणं गच्छामि।
धर्मं शरणं गच्छामि।
संघं शरणं गच्छामि।”

श्रीराम पुकार शर्मा, हावड़ा । विश्व मानव को जीने का एक नया ‘मध्यम मार्ग’ के प्रस्तोता ‘बौद्ध धर्म’ के संस्थापक ‘गौतम बुद्ध’ को न सिर्फ भारत, बल्कि विश्व में एक महान दार्शनिक, समाज सुधारक और धार्मिक व्यक्तित्व के रूप में ‘एक अवतारी पुरुष’ के रूप में स्वीकार किए गए हैं, जिन्हें लोग श्रद्धावश ‘भगवान बुद्ध’ के रूप में स्वीकार करते हैं। महात्मा बुद्ध भारतीय संस्कृति के एक महान विभूति हैं, जिनके द्वारा प्रशस्त सत्य, अहिंसा, प्रेम, दया व त्याग के समायोजन से निर्मित आलोक मार्ग पर आज विश्व मानव अग्रसर है। फलतः महात्मा बुद्ध के जीवन के लगभग ढाई हजार वर्षों के बाद भी उनका संदेश आज मानव समाज के लिए पूर्ण प्रासंगिक बना हुआ है।

भगवान बुद्ध का अवतरण वर्तमान नेपाल (तत्कालीन भारतवर्ष) के शाक्य गणराज्य की राजधानी कपिलवस्तु के निकट लुम्बिनी वन में 563 ईसा पूर्व इक्ष्वाकु वंशीय क्षत्रिय राजा शुद्धोधन के पुत्र के रूप में हुआ था। लुम्बिनी वन वर्तमान में कपिलवस्तु और देवदह के बीच नैतनवा स्टेशन से 8 मील दूर पश्चिम में रुक्मिनदेई के पास है। कपिलवस्तु की महारानी महामाया देवी को अपने नैहर देवदह जाते हुए रास्ते में लुम्बिनी वन में प्रसव-पीड़ा हुई और वहीं पर उन्होंने एक दिव्य बालक को जन्म दिया था।

महाराज शुद्धोधन ने बालक के जन्म के पाँचवे दिन शुभ मुहूर्त देख कर बालक के लिए नामकरण के लिए एक राजकीय समारोह का आयोजित किया। उस समारोह में उस बालक का नाम ‘सिद्धार्थ’ रखा गया, जिसका अर्थ होता है – ‘वह, जो सिद्धियों की प्राप्ति के लिए जन्मा हो।’ कालांतर में यह सत्य सिद्ध भी हुआ। उस नामकरण समारोह में ही आठ विद्व ब्राह्मणों ने बालक सिद्धार्थ के संबंध में भविष्य वाणी की, कि सिद्धार्थ बड़े होकर एक महान राजा बनेंगे या फिर सभी सांसारिक सुखों को त्याग कर एक महान धर्मात्मा सन्यासी बनेंगे। सिद्धार्थ अभी सात दिन के ही हुए थे, कि उनकी माता महारानी महामाया का निधन हो गया था। अतः बालक सिद्धार्थ का पालन-पोषण छोटी महारानी तथा उनकी मौसी महाप्रजापती गौतमी ने किया था। इस कारण सिद्धार्थ ‘गौतम’ भी कहलाए।

विद्व ब्राम्हणों की भविष्यवाणी ने राजा शुद्धोधन के हृदय को कंपित कर दिया था। फिर उन्होंने बालक सिद्धार्थ पर दुख और साधु-सन्यासी की छाया भी न पड़ने देने का हर संभव प्रयास किया। सिद्धार्थ को बचपन से ही हर प्रकार के सुख और भोग-विलासयुक्त जीवन प्रदान किया गया। सिद्धार्थ के लिए तीन ऋतुओं के अनुकूल सुख-ऐश्वर्य से परिपूर्ण तीन सुंदर महल बनवाये गए। अनगिनत दास-दासियाँ को बालक सिद्धार्थ को सदैव खुश रखने के कार्य में लगा दिए गए, ताकि सिद्धार्थ का मन सांसारिकता से विमुख न हो पाए।

परंतु ‘विधि के विधान’ की प्रतिकूलता क्या संभव है? उन अतुल भोग-सुखों के बीच भी बालक सिद्धार्थ के मन में करुणा और दया ने अपना स्थान बना ही लिया। खेल-खेल में भी सिद्धार्थ किसी को दुःखी होना नहीं देख सकते थे। ऐसे ही समय विद्व गुरु विश्वामित्र से उन्हें वेद और उपनिषद्‌ सहित राजकाज और युद्ध-विद्या की भी शिक्षा प्राप्त हुई। सांसारिकता के प्रति विशेष लगाव बनाए रखने के लिए सोलह वर्ष की उम्र में सिद्धार्थ का विवाह एक अति सुंदर कन्या यशोधरा के साथ कर दिया गया। बाद में उन्हें राहुल नामक एक सुन्दर पुत्ररत्न की प्राप्ति भी हुआ।

कहा जाता है कि एक दिन सिद्धार्थ नगर की सैर पर निकल पड़े। उन्हें सड़क पर एक निर्बल वृद्ध दिखाई दिया, जो हाथ में लाठी थामें काँपते हुए चल रहा था। दूसरी बार उनका सामना एक रोगी से हुआ, जिसकी साँस तेज चल रही थी और कमजोरी से उसका चेहरा पीला पड़ गया था। तीसरी बार उन्होंने एक अर्थी को देखा, जिसे चार आदमी उठाए लिये जा रहे थे। अपने जीवन में प्रथम बार मानव जीवन के इन क्रमगत स्वरूपों को देख कर सिद्धार्थ का मन विचलित हो गया। परंतु चौथी बार उन्हें एक संन्यासी दिखाई पड़ा, जो सांसारिक भावनाओं और कामनाओं से मुक्त पूर्ण संतुष्ट दिखाई दिया। उस सन्यासी की प्रसन्नता की आभा ने व्यग्र और व्यथित सिद्धार्थ के मन को इतना आकृष्ट कर लिया कि फिर कृत्रिम ऐश्वर्य-शृंगारयुक्त जीवन, सुन्दर पत्नी और आकर्षक पुत्र भी उनके मन को कृत्रिम सांसारिकता में बाँधकर नहीं रख सकें।

तत्पश्चात 29 वर्ष की अवस्था में सिद्धार्थ एक रात अपनी सुन्दर धर्मपत्नी यशोधरा, कोमल पुत्र राहुल और कपिलवस्तु जैसे राजसुख को त्यागकर सांसारिक प्राणियों को जरा, मरण, दुखों आदि से मुक्ति दिलाने के लिए सत्य की खोज में निर्जन वन की ओर चल दिए । पहले वे कपिलवस्तु से चलकर राजगृह पहुँचे। फिर घूमते-घूमते अलारा, कलम और उद्दक रामपुत्र जैसे धर्म गुरुओं के पास पहुँचे। उनसे उन्होंने योग-साधना व समाधि आदि की प्रक्रिया सीखी। तब वे उरुवेला पहुँचे और वहाँ के निर्जन वन में तरह-तरह से तपस्या करने लगे।

35 वर्ष की आयु में वैशाख पूर्णिमा के दिन से सिद्धार्थ ने पहले तो केवल तिल-चावल खाकर तपस्या शुरू की, बाद में उन्हें लेना बंद कर दिया। तपस्या करते छः साल बीत गए। उनका शरीर सूखकर काँटा हो गया। तब उन्होंने ‘मध्यम मार्ग’ अपनाते हुए गया में ‘निरंजना (फल्गु) नदी’ के तट पर एक पीपल वृक्ष के नीचे पुनः कठोर तपस्या करने बैठ गए।

कहा जाता है कि समीपवर्ती गाँव की सुजाता नामक एक स्त्री को पुत्ररत्न की प्राप्ति हुई थी। वह अपने पुत्र की मंगलकामना करने उस पीपल वृक्ष के पास सोने की थाली में खीर लेकर पहुँची। सिद्धार्थ को उसी पीपल वृक्ष के नीचे ध्यानमग्न देख कर उसे आभास हुआ कि वृक्ष-देवता मानो उससे पूजा लेने के लिए सशरीर सम्मुख बैठे हैं। सुजाता ने बड़े ही आदर भाव से सिद्धार्थ को खीर भेंट की और कहा- ‘जैसे मेरी मनोकामना पूरी हुई है, उसी तरह आपकी भी सारी मनोकामना पूर्ण हो।’

तपस्वी सिद्धार्थ सुजाता के हाथों से खीर ग्रहण कर पुनः ध्यान मग्न हो गए। उसी रात ध्यान की अवस्था में ही उन्हें अपूर्व दिव्य ज्ञान का बोध हुआ। वर्षों से जिसके लिए मन अशांत था, वह प्राप्त हो गया। उनकी कठोर साधना सफल हुई। ज्ञान की प्राप्ति के पश्चात सिद्धार्थ ‘बुद्ध’ कहलाने लगे और फिर बाद में लोगों के लिए ‘भगवान बुद्ध’ बन गए। जिस पीपल वृक्ष के नीचे उन्हें दिव्य ज्ञान बोध प्राप्त हुआ था, वह ‘बोधिवृक्ष’ और गया का वह समीपवर्ती क्षेत्र ‘बोधगया’ के नाम से प्रसिद्ध हो गया।

‘भगवान बुद्ध’ चार सप्ताह तक उसी ‘बोधिवृक्ष’ के नीचे बैठ कर धार्मिक चिंतन किए। तत्पश्चात धर्म का उपदेश देने के लिए निकल पड़े। आषाढ़ की पूर्णिमा को वह काशी के निकट ‘मृगदाव’ (वर्तमान में सारनाथ) पहुँचे। वहीं पर उन्होंने सर्वप्रथम अपने पाँच मित्रों को धर्मोपदेश देकर उन्हें अपना अनुयायी बनाया। इस महान घटना को ही बौद्ध दर्शन में ‘धर्मचक्र परिवर्तन’ के नाम से जाना जाता है। जिसे ‘बौद्ध धर्म’ की स्थापना के रूप में भी देखा जा सकता है। फिर ‘भगवान बुद्ध’ ने अपने उन पाँचों अनुयायियों को धर्म प्रचार करने के लिए विभिन्न स्थानों पर भेज दिया।

‘भगवान बुद्ध’ के धर्म प्रचार से उनके भिक्षुओं की संख्या दिन-प्रतिदिन बढ़ने लगी। बड़े-बड़े राजा-महाराजा आदि भी उनके शिष्यत्व को प्राप्त करने लगे। जिससे ‘बौद्ध धर्म’ का प्रचार और प्रसार बहुत ही तेजी से होने लगा। बाद में ‘बौद्ध संघ’ की स्थापना की गई। ‘भगवान बुद्ध’ ने ‘बहुजन हिताय’ लोक-कल्याण के लिए अपने धर्म का देश-विदेश में भी प्रचार करने के लिए अपने भिक्षुओं को भेजा। मौर्यकाल तक तो बौद्ध धर्म भारत से निकलकर चीन, जापान, कोरिया, मंगोलिया, बर्मा, थाईलैंड, हिंद चीन, श्रीलंका आदि देशों में व्यापक रूप में फैल चुका था।

पालि सिद्धांत के प्रणेता ‘महापरिनिर्वाण सुत्त’ के अनुसार 80 वर्ष की आयु में कुशीनगर में एक धार्मिक चर्चा के उपरांत ‘भगवान बुद्ध’ ने सार्वजनिक रूप में अपने ‘परिनिर्वाण’ की प्राप्ति की घोषणा की। उन्होंने आखरी भोजन ‘कुन्डा’ नामक एक लोहार से ग्रहण किया था। बाद में वे गंभीर रूप से बीमार पड़ गये। उन्होंने अपने प्रिय शिष्य ‘आनंद’ को निर्देश दिया कि वह कुन्डा को समझाए कि वह अपने मन को उनके लिए दुख न करे, उसका भोजन अतुल्य था। फिर ‘भगवान बुद्ध’ ‘महानिर्वाण’ को प्राप्त कर लिए।

‘भगवान बुद्ध’ ने दिव्य ज्ञान बोध को प्राप्त करने के लेकर ‘महानिर्वाण’ की प्राप्ति तक अपना सम्पूर्ण जीवन लोगों के दुख को दूर करने और उन्हें जीवन चक्र से छुटकारा दिलाने की राह में बिताया। उनके ‘महानिर्वाण’ प्राप्ति के पश्चात उनके शिष्यों ने राजगृह में एक ‘बौद्ध परिषद’ का आयोजन किया, जहाँ बौद्ध धर्म की मुख्य शिक्षाओं को पालि भाषा में तीन ‘पिटक’ के रूप में यथा, ‘विनय पिटक’, ‘सुत पिटक’ और ‘अभिधम्म पिटक’ के रूप में संग्रह किया गया, जिन्हें समग्र रूप में “त्रिपिटक” के रूप में जाना जाता है।

‘भगवान बुद्ध’ द्वारा प्रदर्शित ‘माध्यम मार्ग’ की प्रासंगिकता आज और भी ज्यादा ही बढ़ गई है। आज जब सम्पूर्ण विश्व मानव सांप्रदायिकता, जातिवाद, आतंकवाद, नक्सलवाद और नस्लवाद संबंधित लड़ाई-झगड़े में दिन-प्रतिदिन उलझते ही जा रहा है। लोग, जाति, समुदाय एक-दूसरे को नष्ट करने पर तुले हुए हैं। इन सभी के पीछे व्यक्ति, जाति, देश या संस्था की अहम भावना ही प्रबल है। कोई भी अपने दृष्टिकोण से पीछे हटना नहीं चाहता है। जबकि ‘भगवान बुद्ध’ का ‘मध्यम मार्ग’ हमें विभिन्न दृष्टिकोणों के बीच मेल-मिलाप तथा आम सहमति बनाने की ओर ले जाता है, जो समस्त लड़ाई-झगड़े को विराम दे सकता है।
“उन भगवन अर्हत सम्यक सम्बुद्ध को नमस्कार।”

RP Sharma
श्रीराम पुकार शर्मा, लेखक

श्रीराम पुकार शर्मा
हावड़ा – 711101 (पश्चिम बंगाल)
ई-मेल सूत्र – rampukar17@gmail.com

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