5 सितंबर शिक्षक दिवस पर विशेष…

श्रीराम पुकार शर्मा, हावड़ा । “दुर्लभा चित्त विश्रान्तिः विना गुरुकृपां परम् ।। “अर्थात ‘चित्त की परम् शांति, गुरु के बिना मिलना दुर्लभ है।’ और ‘गुरु’ वह होते हैं, जो हमारी अज्ञानता रूपी तिमिर को अपने ज्ञान रूपी ज्योति-श्लाका से जलाकर नष्ट कर देते हैं, अर्थात मन में व्याप्त अज्ञानता को नष्टकर ज्ञान के नवीन प्रकाश को भर देते हैं। गुरु के प्रयास और उनकी कृपा से ही व्यक्ति को लोक तथा परलोक की सभी विद्याएँ व सद्गति प्राप्त होती हैं। इसीलिए जगत में ईश्वर के अस्तित्व के संबंध में भले ही मतांतर है, परंतु जीवन में गुरु के महत्व को सभी धर्मावलम्बी और संप्रदायों ने निर्विरोध ही स्वीकार किया है। गुरु आत्मा (व्यक्ति) और परमात्मा (ज्ञान या सिद्धि) के मध्य तादात्म्य स्थापित करने वाले प्रबल माध्यम होते हैं, जिनसे जुड़कर ही व्यक्ति अपनी जिज्ञासाओं को शांत कर प्रभु से साक्षात्कार करने में सक्षम हो पाता है। गुरु बिना न आत्म-दर्शन ही संभव है, न लोक दर्शन ही और न तो परमात्म-दर्शन ही।

RP Sharma
श्रीराम पुकार शर्मा, लेखक

हर नवजात शिशु निर्बल और भावहीन कच्ची मिट्टी के लोंदा के समान हुआ करता है। फिर पहले तो उसके माता-पिता व परिजन उसमें प्रेमयुक्त भावरस की सबलता का संचार करते हैं, तत्पश्चात उसमें बोधता के आगमन के साथ ही सामाजिक मूल्यों के अनुकूल उसे निर्माण करने का वृहद कार्य गुरु के द्वारा ही सम्पन्न होने लगता है। फिर गुरु ही उसका ज्ञान युक्त हितचिंतक, मार्ग दर्शक, विकास प्रेरक एवं विघ्नविनाशक बनकर उसके नियमित विकास में सहायक बन जाते हैं, जिससे वह जीवनगत सफलता की विविध सीढ़ियों पर क्रमशः चढ़ता ही जाता है । इस प्रकार गुरु व्यक्ति विशेष को ‘भवसागर’ के पार उतारने वाले ‘चतुर नाविक’ की भूमिका का निर्वाह करते हैं।

हमारी पवित्र भारत-भूमि पर देव-काल से ही गुरुजनों के प्रति विशेष आदर-सम्मान की परंपरा अबाध गति से चलती आ रही है। हमारी भारतीय संस्कृति और हमारे प्राचीन ग्रंथों में गुरु को देवों से भी श्रेष्ठ माना गया है, जो होना भी चाहिए। कहा भी गया है –
“गुरुर्ब्रह्मा ग्रुरुर्विष्णुः गुरुर्देवो महेश्वरः।
गुरुः साक्षात् परं ब्रह्म तस्मै श्री गुरवे नमः।।”

विश्व भर में गुरु के अवदानों को स्मरण कर उनके प्रति विशेष आदर-सम्मान प्रदर्शन हेतु कोई न कोई विशेष तिथि तय किया गया है, जिसको ‘शिक्षक-दिवस’ के रूप में पालन किया जाता है। हमारे देश भारत में महान शिक्षाविद और देश के द्वितीय राष्ट्रपति डॉ. राधाकृष्णन के जन्मदिन ‘5 सितंबर’ को ‘शिक्षक-दिवस’ के रूप में मनाया जाता है। डॉ. राधाकृष्णन भारतीय संस्कृति के प्रबल संवाहक, महान शिक्षाविद, महान दार्शनिक, प्रतिष्ठित राजनयिक के साथ ही एक महान शिक्षक थे। उन्होंने अपने जीवन के लगभग 40 वर्ष को एक शिक्षक के रूप में विद्यार्थियों के भविष्य को संवारने में समर्पित किया था। बाद में डॉ. सर्वपल्ली राधाकृष्णन स्वतंत्र भारत के प्रथम उप-राष्ट्रपति और द्वितीय राष्ट्रपति भी हुए थे।

देश के राष्ट्रपति बनाने पर निज जन्मदिन के सम्मान के प्रति डॉ. राधा कृष्णन का कहना था कि ‘मेरा जन्मदिन अलग से न मनाकर तमाम शिक्षकों के सम्मान स्वरूप ‘शिक्षक-दिवस’ के रूप में मनाया जाए, तो मुझे गर्व होगा।’ अतः उनकी इच्छा के अनुरूप उनके जन्मदिन ‘5 सितंबर’ को 1962 में देश भर में प्रथम बार ‘शिक्षक-दिवस’ के रूप में मनाया गया था। इसके बाद से ही अपने देश में प्रति वर्ष ‘5 सितंबर’ को शिक्षकों के सम्मान हेतु ‘शिक्षक-दिवस’ मनाने की परंपरा चल पड़ी।

हमारे माता-पिता की तरह ही हमारे शिक्षक के पास भी उनकी निजी ढ़ेर सारी व्यक्तिगत और पारिवारिक समस्याएँ होती हैं, लेकिन शिक्षक अपने शिष्यों के सम्मुख उन्हें दरकिनार कर अपनी शिक्षण संबंधित जिम्मेवारियों का निरंतर निर्वाह करते हैं। शिक्षक केवल पुस्तक ही नहीं पढ़ाते हैं, बल्कि बच्चों को अच्छी-बुरी बातों औरक्रिया-कलापों में अंतर बताया कर सामाजिक शिष्टाचार युक्त उन्हें भद्र नागरिक भी बनाते हैं। जीवनभर निःस्वार्थ सेवा-धर्म अध्यापन के माध्यम से राष्ट्र-निर्माण के कार्य में उनके अवदानों को लक्ष्य कर उन्हें धन्यवाद ज्ञापन करना भी सभी समाज का विशेष कर्तव्य है।

शिक्षक का कार्य बहुत कठिन तपस्या है। पूरी कक्षा में विभिन्न स्तर के अलग-अलग विद्यार्थी होते हैं। कोई खेल-कूद में प्रवीण, तो कोई गायन में, तो कोई चित्रकला में। किसी की दिलचस्पी गणित में है, तो किसी की साहित्य में। अच्छे शिक्षक हमेशा अपने विद्यार्थियों की रुचि को ध्यान में रखकर ही उनकी क्षमताओं को पहचान कर उनके कार्य-कौशल को निखारने की कोशिश करते हैं। इतना ही नहीं, वह दूसरे बच्चों की गतिविधियों या विषयों को प्रभावित भी न होने देते हैं। आज शिक्षा को विद्यार्थी के चरित्र निर्माण से नहीं, बल्कि उसे आजीविका प्राप्ति से जोड़ दिया गया है। फलतः आधुनिक शिक्षा क्रमशः महँगी होती जा रही है।

‘पास’ करने से ही उसे आजीविका प्राप्त होंगे। अतः विद्यार्थी भी तोते की तरह ‘रटंत विद्या’ या फिर किसी भी तरह से पास होने का ही अपना लक्ष्य रखता है। निम्न और मध्यमवर्ग के लिए उच्च शिक्षा दिवा-स्वप्न की भाँति हो गया है। झुग्गियों-बस्तियों में रहने वाले, आदिवासी, घुमक्कड़ जातियाँ, ग्रामीण, मजदूर आदि के करोड़ों बच्चे नाममात्र के ‘ककहारा’ को ही सिख कर अपनी पढ़ाई को इतिश्री कर देते हैं। गरीब अभिभावक भी अपने बच्चों को स्कूल भेजने की बजाय, उन्हें अपने साथ खेत या किसी काम पर ले जाना पसंद करते हैं, जिससे उन्हें कुछ आर्थिक संबलता प्राप्त हो सके।

आज हमारे देश का सामाजिक स्तर स्वार्थ, घृणा, वैमनस्य, असहयोग, दुष्टता, भ्रष्टाचार एवं भौतिक लाभ आदि से निर्मित भयावह गर्त में गिरता ही जा रहा है। हमारे विद्यार्थी भी इसी समाज से आते है। अत: उनमें उक्त दुर्गुणों का समावेश होना कोई अचरज की बात नहीं है। इसी तरह से आज अधिकांश शिक्षक भी केवल कुछ चयनित पाठों को पढ़ाकर ही अपने कर्तव्यों को पूर्ण मान लेते हैं। वे भी अपने आदर्शों को त्याग कर मात्र दो-चार ‘प्राइवेट ट्यूशन’ के पीछे पागल बने हुए रहते हैं। अपने शैक्षणिक कौशल से हीन शिक्षक विद्यार्थियों को सुसंस्कृत बनाने में पूर्णतः असमर्थ ही बने रहते हैं।

परंतु आज की भौतिकवादिता गुरु, शिष्य और अभिभावक पर भी आरूढ़ हो गई है। अधिकांश मोह-लालच के बंधनों में जकड़े अपने-अपने धर्मों से विचलित हो गए हैं। स्पष्ट है कि इस दशा में विद्यार्थी और शिक्षक के मध्य परस्पर संबंध भी बिगड़ गया है और उसके साथ ही विद्यार्थी भी अनुशासनहीन होने लग गए हैं। ऐसे में शिक्षकों को अपने दायित्वों को सही ढंग से समझना होगा। उनके कंधों पर ही राष्ट्र के भावी नागरिकों के निर्माण का दायित्व है, जिससे वे अपना मुख नहीं मोड़ सकते हैं। जब उनके सभी विद्यार्थी सुसामाजिक और सुसंस्कृत बनेंगे, तब ही ‘शिक्षक-दिवस’ का औचित्य सिद्ध होगा। तब ही ‘शिक्षक-दिवस’ का वास्तविक उद्देश्य भी पूर्ण होगा। न तो केवल मिठाइयाँ खाना और उपहार लेना मात्र ही ‘शिक्षक-दिवस’ का औचित्य बना रह जाएगा ।
(शिक्षक दिवस, 5 सितंबर, 2022)

श्रीराम पुकार शर्मा
(अध्यापक)
श्री जैन विद्यालय, हावड़ा
ई-मेल सूत्र – rampukar17@gmail.com

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