बंगला के महान उपन्यासकार ताराशंकर बंद्योपाध्याय की 123वीं जयंती पर विशेष

राज कुमार गुप्त : ताराशंकर बंद्योपाध्याय (Tarasankar Bandyopadhyay) का जन्म 23 जुलाई 1898 को बंगाल के बीरभूम जिले के लाभपुर गांव में हुआ था। इनके पिता का नाम हरिदास बंदोपाध्याय तथा माता का नाम प्रभाती देवी था। उन्होंने 1916 में लाभपुर जादबलाल एच. ई. स्कूल से मैट्रिक की परीक्षा पास की फिर पहले सेंट जेवियर कॉलेज, कोलकाता और फिर साउथ सर्बन कॉलेज (अब आशुतोष कॉलेज) में भर्ती हुए। सेंट जेवियर्स कॉलेज में इंटरमीडिएट की पढ़ाई के दौरान वह असहयोग आंदोलन में शामिल हो गए। वे अस्वस्थता और राजनीतिक सक्रियता के कारण अपने विश्वविद्यालय के पाठ्यक्रम को पूरा नहीं कर सके।

ताराशंकर बंदोपाध्याय प्रमुख बंगाली उपन्यासकारों में से एक थे। जिन्होंने 65 उपन्यास, 53 कहानी, 12 नाटक, 4 निबंध, 4 आत्मकथाएँ और 2 यात्रा कहानियाँ लिखीं। उन्होंने 1959 में एक बंगला फीचर फिल्म आम्रपाली का निर्देशन भी किया था।

बांग्ला भाषा के प्रसिद्ध साहित्यकार थे। उन्हें उनके प्रसिद्ध उपन्यास ‘गणदेवता’ के लिए 1966 में ‘ज्ञानपीठ पुरस्कार’ से सम्मानित किया गया था। ताराशंकर बंद्योपाध्याय को साहित्य एवं शिक्षा क्षेत्र में भारत सरकार द्वारा सन 1969 में ‘पद्म भूषण’ से सम्मानित किया गया था।

ताराशंकर अपने समय के बंगला उपन्यासकारों में सबसे अधिक प्रसिद्ध रहे। उनके उपन्यास आरोग्य निकेतन और गणदेवता को पुरस्कृत किया जा चुका था। आरोग्य निकेतन को 1956 में साहित्य अकादमी की ओर से तथा गणदेवता को 1967 में ज्ञानपीठ पुरस्कार प्राप्त हुए थे। उनकी विशेषता यह थी कि वे प्रादेशिक जीवन को व्यापक रूप में चित्रित करते रहे। इस काम में उन्हें अच्छी सफलता भी प्राप्त हुई।

संभवत: उनकी लोकप्रियता का सबसे बड़ा कारण भी यही था। प्रादेशीय जीवन का चित्रण करते समय ऐसा प्रतीत होता है कि आप तस्वीर देख रहे हैं। ताराशंकर बंदोपाध्याय की कहानी जलसा घर तथा अभिमान पर सत्यजीत राय ने फिल्म बनाई थी तथा तरुण मजुमदार ने सप्तपदी, विपाशा, गणदेवता पर फिल्में बनाई थी।

ताराशंकर के उपन्यासों ने एक नए दृष्टिकोण में यथार्थवाद को स्वीकार किया, जिससे पाठक तत्कालीन समाज के रूढ़िवादी और पाखंड से अब तक सीमित मानवीय संबंधों की सच्चाई की सांस ले सके। उनके प्रसिद्ध उपन्यास निशिपद्म, विचारक, व्यर्थ नायिका, नागिनी कन्यार काहिनी, डायनी, एकटि प्रेमेर गोल्पो, राधा, फरियाद, धात्री देवता, कवि, कृति हाटेर कचड़ा, चैताली घूर्णी, चिरंतनी, कालबैसाखी, कालिंदी, पंचग्राम, गणदेवता, आरोग्य निकेतन, सप्तपदी, रस्कली, हांसुलि बाकेर उपकथा इत्यादि हैं।

इसके अलावा गुरुदक्षिणा, सुखसारी कथा, शताब्दीर मृत्यु, इतिहास ओ साहित्य, नवदिगंत, रवींद्रनाथ व बांग्लार पल्ली, छायापथ, 1969, मॉस्को ते कएक दिन, पथेर डाक, दीपान्तर, कालांतर, एकटी कालो मेये, विचित्र, कान्ना, नागरिक, वैष्णबेर आखड़ा, सुतोपार तपस्या और भी अनेकों रचनाएँ हैं।

कुछ नाटक भी उन्होंने लिखा था जैसे – पोथेर डाक, दुई पुरुष, दीपान्तर, विस शताब्दी इत्यादि। ताराशंकर बंदोपाध्याय को 1930 में भारतीय स्वतंत्रता आंदोलन का सक्रिय समर्थन करने के लिए गिरफ्तार किया गया था, लेकिन कुछ साल बाद में उन्हें रिहा कर दिया गया। उसके बाद उन्होंने खुद को साहित्य के लिए समर्पित करने का फैसला किया। 1932 में वे पहली बार शांतिनिकेतन में रवींद्रनाथ टैगोर से मिले।

1942 में उन्होंने बीरभूम जिला साहित्य सम्मेलन की अध्यक्षता की और बंगाल में फासिस्ट-विरोधी लेखक और कलाकार संघ के अध्यक्ष बने। 1944 में उन्होंने कानपुर बंगाली साहित्य सम्मेलन की अध्यक्षता की, जो वहां रहने वाले अप्रवासी बंगालियों द्वारा आयोजित किया गया था। 1947 में उन्होंने कलकत्ता में आयोजित 47 प्रभास बंग साहित्य सम्मेलन’ का उद्घाटन किया और कलकत्ता विश्वविद्यालय से शरत मेमोरियल पदक प्राप्त किया। 1948 से वे कोलकाता के टालापार्क स्थित अपने घर पर रहने लगे।

1952 में उन्हें विधान परिषद का सदस्य नामित किया गया। वे 1952 से 1960 के बीच पश्चिम बंगाल विधान परिषद के सदस्य थे। वे 1960-66 के बीच राज्य सभा के सदस्य थे। 1966 में वे संसद से सेवानिवृत्त हुए और नागपुर बंगाली साहित्य सम्मेलन की अध्यक्षता की।

ताराशंकर बंदोपाध्याय को रवीन्द्र पुरस्कार, साहित्य अकादमी पुरस्कार, ज्ञानपीठ पुरस्कार, पद्मश्री और पद्मभूषण से सम्मानित किया गया था। ताराशंकर बंदोपाध्याय का विवाह 1916 में उमाशी देवी से हुआ था। उनके दो बेटे और तीन बेटियां थी। सबसे बड़े पुत्र सनत कुमार बंद्योपाध्याय, फिर सरित कुमार बंद्योपाध्याय, फिर बड़ी बेटी गंगा और दूसरी बेटी बुलू का जन्म हुआ था, लेकिन 1932 में बुलू की मृत्यु हो गई थी, फिर तीसरी छोटी बेटी बानी का जन्म 1932 में हुआ था।

ताराशंकर बंदोपाध्याय की मृत्यु 73 बर्ष की आयु में 14 सितंबर 1971 को कोलकाता वाले घर में ही हुआ था, अतः उत्तर कोलकाता के निमतल्ला श्मशान घाट में गंगा किनारे उनका अंतिम संस्कार किया गया था।

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