श्रीराम पुकार शर्मा : ईश्वरीय अभिवादन की बात हो या फिर आध्यात्मिक आरती की बात, मन में अनायास ही एक पवित्र आरती धुन बज उठती हैं, “ॐ जय जगदीश हरे”। यह पवित्र शब्द समूह की सम्मिलित लयात्मक आरती ध्वनि एक ओर जहाँ कानों में अमृतरस घोल कर मन-मस्तिष्क को शान्ति और पवित्रता प्रदान करती है, वहीं दूसरी ओर यह आत्मा को परमात्मा के और करीब लाने का उपक्रम करती हुई जान पड़ती है।
मन में परमानंद प्राप्ति का एहसास होने लगता है। फलतः आज यह लगभग हर आध्यात्म आरती की ‘मातृ-सुर’ बन गयी है। इसके बोल लोगों के मन-मस्तिष्क में ऐसे प्रतिष्ठित हो गए हैं कि आज कई पीढ़ियाँ गुजर जाने के बाद भी उसके शब्दों का जादू आज भी सनातनियों के मन-मस्तिष्क में पूर्वरत कायम है। आइये हम जानते हैं, इस अमर “ॐ जय जगदीश हरे” आरती के माध्यम से अमरत्व को प्राप्तकर्ता इसके अमर कृतिकार को।
भक्ति-श्रद्धा का प्रतीक इस लोकप्रिय आरती “ॐ जय जगदीश हरे” की रचना आज 151 वर्ष पूर्व सन् 1870 में सनातन धर्म प्रचारक, ज्योतिष शास्त्र मर्मज्ञ, संगीतज्ञ, हिन्दी और पंजाबी के प्रसिद्ध साहित्यकार तथा प्रबल स्वतंत्रता संग्रामी पंडित श्रद्धाराम शर्मा ‘फिल्लौरी’ जी ने की है।
वही पंडित श्रद्धाराम शर्मा जी, जिन्होंने अपनी विलक्षण प्रतिभा और ओजस्वी वक्तृता के बल पर तत्कालीन पंजाब वासियों के मन-मस्तिष्क को नवीन सामाजिक चेतना एवं धार्मिक उत्साह से सींचना प्रारम्भ किया, जिस सिंचित भूमि पर ही कालांतर में स्वामी दयानंद सरस्वती के ‘आर्य समाज’ का सुंदर उपवन लहलहा उठा और सुंदर पुष्पों से पुष्पित हुआ, जिसके सुवास से न केवल पंजाब प्रान्त ही, वरन सम्पूर्ण उत्तर भारतवर्ष ही सुवासित हुआ।
“ॐ जय जगदीश हरे” आरती की रचना करने वाले पंडित श्रद्धाराम शर्मा ‘फिल्लौरी’ का जन्म 30 सितम्बर, 1837 में पंजाब के लुधियाना के पास ‘फ़िल्लौरी’ नामक ग्राम में ज्योतिषी और धार्मिक सहृदय पंडित जयदयालु के सनातन संस्कारिक आँगन में हुआ था। बचपन से ही श्रद्धाराम शर्मा जी को ज्योतिष, साहित्य और सुसंस्कार उन्हें पैत्रिक धन स्वरूप प्राप्त हुए थे। उन्होंने मात्र सात वर्ष की अल्पायु में ही ‘गुरुमुखी लिपि’ सीख ली और खेल-कूद के मात्र दस-बारह वर्ष की अवस्था में ही संस्कृत, हिन्दी, फ़ारसी, पर्शियन तथा ज्योतिष आदि विषयों में पारंगत हो गए थे।
पंडित श्रद्धाराम शर्मा ‘फिल्लौरी’ जी ने 1870 में 32 वर्ष की आयु में यह अति प्रसिद्ध ‘ॐ जय जगदीश हरे’ आरती की रचना की, जो भारत के हर हिन्दू घर-आँगन और मंदिरों में भक्तिमय तन्मयता के साथ वर्षों से गूँज रही है। हजारों साल पूर्व हुए हमारे ज्ञात-अज्ञात विद्व ऋषियों ने परमात्मा की प्रार्थना के लिए जो भी श्लोक और भक्ति गीत रचे, उन सभी को यह ‘ॐ जय जगदीश हरे’ आरती अपने अंदर सादर समाहित कर भक्ति की पवित्र ‘गांगेय रसधार’ स्वरूप को ग्रहण किया हुआ है। यह आरती संस्कृत के हजारों श्लोकों, स्तोत्रों और मंत्रों का निचोड़ ही है। इस आरती का प्रत्येक शब्द ही श्रद्धा-भक्ति में स्नात मानवीय हृदय की ईश्वरीय प्रार्थना को अभिव्यक्त करता है।
पंडित श्रद्धाराम शर्मा ‘फिल्लौरी’ अध्यात्मिकता के साथ ही साथ राष्ट्रीयता के भी प्रबल प्रचारक रहे थे। अंग्रेजों द्वारा आक्रांत भारत-भूमि व भारतीयों की दशा से ‘पंडित’ जी का मन भी व्यथित था। अतः अपनी युवावस्था से ही स्थान-स्थान पर घूम-घूम कर धार्मिक कथाओं और आख्यानों के माध्यम से राष्ट्रीय जागरण के सन्देश को भी प्रचारित करने लगे थे, जिससे आध्यात्मिकता के साथ-साथ ही अंग्रेजी सरकार के खिलाफ विद्रोहात्मक स्वदेशी जागरण भी फैलने लगा था।
अतः क्रुद्ध अंग्रेजी सरकार ने 1865 में ‘पंडित’ जी को प्रताड़ित करने के उद्देश्य से ही ‘फिल्लौरी’ ग्राम से निष्कासित कर आस-पास के गाँवों तक में उनके प्रवेश पर पूर्ण रूपेण पाबंदी लगा दी। लेकिन अंग्रेजी सरकार की इस दमन नीति ने उनकी लोकप्रियता और अधिक बढ़ा दी। अब तो पंडित श्रद्धाराम शर्मा जी कई लोगों के ‘आदर्श’ बन चुके थे।
सनातन धर्म के प्रतिबद्ध प्रचारक होने के साथ ही साथ पंडित श्रद्धाराम शर्मा ‘फिल्लौरी’ जी ने समाज सेवा के अपने दायित्वों का भी बखूबी से निर्वाह किया। शहर के लोगों के बीच प्रसिद्ध व्यक्तित्व तथा प्रसिद्ध कथावाचक होने के कारण वे अपनी सरल और सुबोध वक्तृता के माध्यम से तत्कालीन सामाजिक बुराइयों के प्रति लोगों का ध्यानाकर्षित करते हुए उन्हें समाज से दूर कर एक स्वच्छ समाज के निर्माण के लिए लोगों को निरंतर प्रेरित किया करते थे।
उन्होंने आज से कोई डेढ़ सौ वर्ष पहले ही पुत्र प्राप्ति की चाहत में ‘भ्रूण हत्या’ के अंदेशों को समझकर उसके खिलाफ लोगों को एकजुट किया और नारा दिया था कि ‘बेटा-बेटी एक समान हैं। इसलिए माता-पिता को दोनों के लाड़-प्यार व पढ़ाई-लिखाई में कोई फर्क नहीं रखना चाहिए।’
पं.श्रद्धाराम शर्मा ‘फिल्लौरी’ जी ने हिन्दी भाषा को समृद्ध करने के क्षेत्र में अपनी अहम भूमिका का निर्वाहन किया है। अतः उन्होंने अपनी मातृभाषा पंजाबी होने पर भी सन् 1877 में हिन्दी की खड़ी बोली में ही अपना प्रसिद्ध उपन्यास ‘भाग्यवती’ लिखा, जिसे हिन्दी साहित्य का पहला उपन्यास माना जाता है। इसके अतिरिक्त ‘ॐ जय जगदीश हरे’ आरती, ‘सत्य धर्म मुक्तावली’, ‘शातोपदेश’, ‘सत्यामृत प्रवाह’, ‘ज्योतिष शास्त्र’ आदि रचनाएँ भी हिन्दी में ही की है।
उनका मानना था कि हिन्दी ही भारतभूमि पर जन सम्पर्क की भाषा है। जबकि उन्होंने अपनी मातृभाषा पंजाबी में सन 1866 में ‘सिखों दे राज दी विथिया’ और ‘पंजाबी बातचीत’ जैसी किताबें लिखकर मानो पंजाबी (गुरुमुखी) साहित्य के क्षेत्र में जनक्रांति ही कर दी। अपनी पहली ही पुस्तक ‘सिखों दे राज दी विथिया’ से वे पंजाबी साहित्य के ‘पितृपुरुष’ के रूप में प्रतिष्ठित हो गए और उनको “आधुनिक पंजाबी भाषा के जनक” की उपाधि मिली।
सनातन के आग्रही और प्रबल प्रचारक होने पर भी पंडित श्रद्धाराम शर्मा ‘फिल्लौरी’ में धार्मिक संकीर्णता बिल्कुल नहीं थी। इन्होने अपने मित्र ईसाई पादरी ‘फादर न्यूटन’ के आग्रह पर बाइबिल के कुछ अंशों का गुरुमुखी में अनुवाद भी किया था।
ऐसे विलक्षण दूरदर्शी सामाजिक कार्यकर्ता, स्वतंत्रता संग्रामी, साहित्यकार, संगीतज्ञ पंडित श्रद्धाराम शर्मा ‘फिल्लौरी’ जी ने भी अन्य दिव्यात्माओं की भांति मात्र 43 वर्ष की अल्पायु में ही 24 जून, 1881 को “श्रद्धा भक्ति बढ़ाओ” के साथ अपने नाम ‘श्रद्धाराम’ को अमर करते हुए लाहौर में इस दुनिया से कुच कर ‘गोलोक’ गमन किये।