संजय जायसवाल की कविता : साथ

।।साथ।।
संजय जायसवाल

उस दिन उसने
बड़े आत्मविश्वास के साथ कहा था
आदतें बदलने से
साथ नहीं छूटता

कुछ देर तक मैं चुप रहा

दरअसल आदतें बदलने से
छूटता है बहुत कुछ
मसलन, उसने सबसे पहले चाय पीने की आदत छोड़ी
तो चाय के साथ
मिट्टी के प्याले का साथ छूटा

छूटा कुम्हार के चाक पर घूमती माटी की गंध
छूटा कुम्हार का दुलार
छूट गया लबों से धरती का प्यार

किसने कहा आदतें बदलने से साथ नहीं छूटता
उसने लिखने की आदत छोड़ी
तो कागज़ से नाता टूटा

उसने पढ़ना छोड़ा तो
किताबों में जीवन के

उसने कहना छोड़ा तो
अर्थ छूटा, संवाद टूटा

किसने कहा
आदतें बदलने से साथ नहीं छूटता
रंगमंच से दूर हुए
तो स्टेज छूटा
सामने बैठे दर्शकों की बेचैनियां छूटीं

दरख्तों से मुँह मोड़ा
तो पीठ का सहारा छूटा
जीवन की हरियाली छूटी

साथ चलने की आदत बदली
तो रास्ते छूटें, मंजिल छूटी

उसने जब चुपचाप क्रांति की भाषा छोड़
ख़ामोशी की चादर ओढ़ ली
तब प्रतिवाद, प्रतिरोध और न्याय का साथ छूटा

उसने जब धीरे-धीरे कॉफी हाउसों और मंडलियों में जाना छोड़ा
तब कहकहे छूटें, बतरस छूटा

जब उसने नदी के किनारे से मुँह मोड़ा
तब लहरें छूटीं, नाव छूटें।

किसने कहा आदतें बदलने से साथ नहीं छूटता

राजनेताओं ने सह्रदयता और विवेक छोड़ा
तो जनकल्याण छूटा

धर्माचार्यों ने सर्वधर्म छोड़ा
तो छूटा सौहार्द्र

जिसने राम को छोड़ा
उससे रामराज्य छूटा

किसने कहा आदतें बदलने से साथ नहीं छूटता

आज भी वही अयोध्या है
आज भी वही राम हैं
आज भी वही ब्रज है

पर बहुत पीछे छूट गए हैं
कबीर, जायसी, सूर, तुलसी और मीरा

हमने आदमी होने की तमीज बदल दी

तो आदमियत छूटी

किसने कहा आदतें बदलने से
साथ नहीं छूटता।

संजय जायसवाल

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