सुधीर सिंह की कविता : बुढ़ी औरत

।।बुढ़ी औरत।।
सुधीर सिंह

अंग प्रत्यंग भंग है
मानसिक अपंग है
पथ कठिन है मगर
यही उसका जंग है
नित्य नजरे ताक रही
सपनो में झांँक रही
झुर्रियाँ पड़े चेहरे पर
उम्र उसे समझा रही
देख रहे लोग उसे
पथ किनारे वो सो रही
किसी ने पूछा नही
किसी ने जाना नही
भावुक हो वो रो रही
अपनो ने छोड़ा उसको
उम्र के इस पड़ाव में
घर में बैठे बहु बेटे
माँ जो सड़क पे लेटे
जब से बहू घर आई है
बँटवारा संग लाई है
माँ बेटों में दूरी बढ़ी
मिलने में मजबूरी बढ़ी
पति की जब याद आती
अँसुवन से नहा जाती
भुखे पेट कराह रही
जीने की राह देख रही

सुधीर सिंह, कवि

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