संजय जायसवाल की कविता : रूमाल का कोरस

।।कविता-रूमाल का कोरस।।
संजय जायसवाल

उस दिन जब तुमने
चुपके से आंखों की मोतियों को
उतार लिया था रूमाल में
जिन्हें मैं अक्सर
सागर सी गहरी कहता
और
उसकी चमक और गहराई में डूबता इतराता

हजारों बार मैंने
वहां चांद को चमकते देखा
असंख्य बार
वहां ख्वाबों के फल फरें

कई बार रेगिस्तान की तपती रेत की तरह
जलती मेरी देह को
तुमने सींचा

मैंने जब जब वहां झांका
मुझे एक नदी दिखी
एक चिड़िया दिखी
एक पेड़ दिखा
जिसके सिर पर अक्सर बादल आकर बैठता

वहां मुझे दिखा
बारिश की बाट जोहता
एक अधेड़ किसान

सच तुम्हारी आंखों
में छिपे थे
कई रत्न
तरह तरह की मछलियाँ

छिपा था डूब चुका एक साबूत जहाज
छिपी थीं
गोताखोरों की जिज्ञासाएं

वहां मुझे दिखे
सागर मंथन के अवशेष
अमृत और विष के बीच
फंसे देवता और दानव

आज बहुत दिनों बाद
रूमाल की तहों
के बीच रखे
उन मोतियों को निहारता रहा

सच रूमाल के भीतर
अब भी नमी बची है
बची है तुम्हारे मोतियों की चमक

तुम भूल गई
लौटते समय
जब तुम रोयी थी

वह सब दर्ज है
समय के रूमाल में

अक्सर उसके तहों के बीच
तुम्हें देखता हूं

सच कितना सुखद है
एक रूमाल का कोरस
सागर की ओर बेतहाशा भागती
एक नदी की तरह….

संजय जायसवाल

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *

sixteen − 4 =