कविता : पापा! मुझे खड्ग धरा दो

।।पापा! मुझे खड्ग धरा दो।।
स्वीटी कुमारी

पापा! मुझे खड्ग धरा दो
इज्ज़त से मैं रह पाऊं,

पड़े कुदृष्टि मुझ पर जिसका
हाथ काट कर घर ले आऊं,

पापा! मुझे खड्ग धरा दो
इज्ज़त से मैं रह पाऊं।

हर जगह घूम रहे दरिंदे
अनुनय – विनय न सुने ये बंदे,

सर पकड़ सर कलम मैं कर दूं
ये कला मुझे सिखलाओ,

पापा! मुझे खड्ग धरा दो
इज्ज़त से मैं रह पाऊं।

आप ने तो बस कलम पकड़ाया
पराजय का इतिहास पढ़ाया,

दुर्गा काली का स्मरण कर के
इतिहास को मैं दोहराऊं,

पापा! मुझे खड्ग धरा दो
इज्जत से मैं रह पाऊं।

नही हूं अबला हूं भारत की सबला
रण क्षेत्र में भेज कर देखो,

दुश्मनों के सीने पर चढ़ कर
खंजर मैं हर बार चलाऊं,

पापा! मुझे खड्ग धरा दो
इज्जत से मैं रह पाऊं।

आपने शांति का पाठ पढ़ाया
नारी अबला है यही सिखलाया,

अगर छेड़े कोई रास्तों में
सीधे घर को मैं दौड़े आऊं,

मम्मी भी कहती नही झगड़ना
नारी हूं मेरा लज्जा है गहना,

आगे आए कोई छेड़ने तो
क्या? गीत यही मैं उसे सुनाऊं,

पापा! मुझे खड्ग धरा दो
इज्जत से मैं रह पाऊं।

पापा! अब बहुत हो गया
जहां लोगों का जमीर सो गया,

ऐसे में सब रिश्ते नाते
बहसी सबको धो कर ले गया,

जीने का बस एक हीं रास्ता
मत देना अबला का वास्ता,

बनूं वीरांगना भारत मां की
ऐसा मंत्र बतलाओ,

पापा! मुझे खड्ग धरा दो
इज्जत से मैं रह पाऊं।।

स्वीटी कुमारी

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