“शुभम करोति कल्याणं, आरोग्यं धन संपदाम्। शत्रु बुद्धि विनाशाय, दीपं ज्योति नमोस्तुते।।”
अर्थात, ‘शुभ और कल्याण करने वाली, आरोग्य और धन संपदा से पूर्ण करने वाली, शत्रु का विनाश करने वाली और बुद्धि के वर्द्धक ‘दीपक’ की परम ज्योति को मैं नमस्कार करता हूँ।’
श्रीराम पुकार शर्मा, हावड़ा। होना भी चाहिए, जो हमारे जीवन के मार्ग को आलोकित-प्रशस्त कर हमारा मार्गदर्शन करता हो, वह सर्वदा हमारे लिए पूज्यनिय ही बना रहे। चाहे वह मिट्टी से निर्मित तुच्छ दीपक हो, या फिर हमारे अभिभावक जन या फिर हमारे गुरु ही क्यों न हो। प्रारंभ से ही हम सनातनी हिन्दुओं को प्रबल विश्वास रहा है कि ‘सत्य की सर्वदा जीत होती है और असत्य का समूल नाश होता है। अंधकार पर प्रकाश की जीत परम निश्चित है।’
इसी तथ्य की व्याख्या और दृष्टांत हमारे प्राचीन से लेकर वर्तमान तक के सभी धार्मिक, पौराणिक और सामाजिक ग्रंथ देते आए हैं। स्वच्छता और प्रकाश का हमारे जीवन से अभिन्न संबंध है, जिनके बिना न तो हम आगे बढ़ ही सकते हैं और न ही स्वस्थ जीवन यापन ही कर सकते हैं। हमारा पावन पर्व ‘दीपावली’ भी इसी परम सत्य को चरितार्थ करता है। ‘दीप’ अर्थात ‘प्रकाश’ ज्ञान, विश्वास, सद्भाव, संतुष्टि, सफलता, भलाई और सच्चाई का प्रतीक है।
‘दीप’ या लघु प्रकाशपुंज को पुराणों में शाश्वत सूर्य का ही प्रतीक माना गया है, जो हमें ज्योति प्रदान करने के अलावे हमें सीख भी देते हैं कि हमारा यह जीवन निज सुख के निर्वाहन का साधन मात्र न होकर, ‘दीप’ की भाँति ही स्वयं कष्ट सहते और जलते हुए दूसरों के मार्ग को प्रदर्शित करने का साधन मात्र है। तभी हमारी सामाजिक और सांसारिक आवश्यकताओं की लगातार लंबी कड़ियाँ पूर्ण होती रहेंगी। ‘दीपावली’ पर्व की सार्थकता यही है।
‘दीपावली’ मूलतः सनातनी पाँच विविध पर्वों का समायोजित ‘पँचपर्व महोत्सव’ है। दीपावली महोत्सव का प्रारंभ कार्तिक माह के कृष्ण त्रयोदशी के दिन देवताओं और राक्षसों द्वारा दूध के लौकिक सागर के मंथन से उत्पन्न हुई लक्ष्मी के अवतरण दिवस से प्रारंभ हो जाता है। इस दिन ‘धनतेरस उत्सव’ मनाया जाता है। जो आयुर्वेद प्रवर्तक भगवान धवंतरि तथा यमराज से संबंधित माना गया है। एक ओर लोग भगवान धवंतरि की पूजा अर्चना कर निज स्वास्थ्य-समृद्धि की याचना करते हैं।
वही दूसरी ओर सामान्य गृहस्थ यमराज को सही राह दिखाने के उद्देश्य से तेल के दीपक जलाकर निज गृह के मुख्य द्वार पर रखते हैं। ताकि वे उस घर की ओर न बढ़े, बल्कि आगे बढ़ जाएँ। इस दिन लोग अपने घरों की भव्य सजावट करते हैं और धन व समृद्धि की प्राप्ति के लिए देवी लक्ष्मी की पूजा करते हैं। धनतेरस के दिन लोग नए वस्त्रों को पहनते हैं। श्रीलक्ष्मी के आगमन तथा स्वच्छता के प्रतीक स्वरूप ‘झाड़ू’ की खरीदारी के साथ ही गहने या फिर वर्तन की भी खरीदारी करते हैं। कैसी अद्भुत सनातनी परंपरा है न! झाड़ू के साथ गहने और वर्तन की उपासना!
कार्तिक माह के चतुर्दशी अर्थात, धनतेरस के अगले दिन ही ‘छोटी दीपावली’ या ‘नरक चतुर्दशी’ उत्सव। माना जाता है कि कार्तिक माह के चतुर्दशी के दिन ही भगवान श्रीकृष्ण जी ने दानवराज नरकासुर का वध किया था। इस दिन लोग नरकासुर स्वरूप में अंधकार और अज्ञानता को दूर करने के लिए ही श्रीकृष्ण स्वरूप ‘दीपक’ अर्थात, प्रकाश की पूजा करते हैं। प्रायः घर-आँगन में सुंदर रंगोली बनाई जाती है और घरों को विविध आकर्षणीय वस्तुओं से सजावट भी की जाती है।
अब आता है कार्तिक अमावस्या अर्थात, ‘दीपावली’ का मुख्य दिन, जिसे अमावस्या की गहरी काली रात्रि में मनाया जाता है। यही मुख्य उत्सव पर्व है। इस दिन लोग अपने-अपने घरों को, कार्य-स्थलों की साफ-सफाई कर उसे विविध अकर्षणीय स्वरूप में सजाते हैं। घर के अंदर और बाहर तथा मंदिर प्रांगण में चतुर्दिक जगमगाते असंख्य दीपकों की ज्योति हमें स्वर्गीय स्वरूप का आभास करवाती है। आज के लिए कई खास मिठाई और पकवान बनाये जाते हैं। अपने परिवार और दोस्तों के साथ परस्पर मिल-जुलकर असीम खुशियाँ का उपभोग करते हैं।
आमतौर पर हर्ष-उल्लास को प्रदर्शित करते हुए बच्चें आतिशबाजी भी जलाते हैं। साथ ही साथ कई प्रकार के अन्य मनोरंजन कार्यक्रम भी आयोजित किए जाते हैं। दीपावली के ठीक अगले दिन ही ‘गोवर्धन पूजा’ उत्सव मनाया जाता है। इस दिन ‘गोवर्धन पर्वत’ की सांकेतिक पूजा की जाती है, जिसे अपने अँगुली पर धरण कर भगवान श्रीकृष्ण जी ने ब्रज निवासियों को मय जानवर सहित इन्द्र के भीषण प्रकोप से रक्षा की थी।
इस दिन लोग अपने गाय-बैल आदि को नहला-धोकर विविध अन्न, फल और प्रसाद आदि द्वारा पूजा करते हैं और प्रतीकात्मक ‘गोवर्धन पर्वत’ के चारों ओर परिक्रमा कर उसकी भी पूजा करते हैं। अद्भुत सनातनी त्योहार और अद्भुत विचार! तुच्छ गोबर-मिट्टी से लेकर ‘गोवर्धन पर्वत’ तक की और साधारण पशुधन की उपासना! यह सनातन धर्म में ही संभव है।
और तब आता है ‘भैया दूज’ उत्सव। यह ‘दीपावली’ सामूहिक ‘पँचपर्व’ का अंतिम पर्व दिन है, जिसे भाई-बहनों का त्योहार कहा जाता है। इस दिन भाई-बहन द्वारा परस्पर एक दूसरे के हाथ को थामें ‘यमुना’ जी में स्नान करने की बहुत बड़ी महिमा माना गया है। इस दिन बहनें अपने भाई-भाइयों की पूजा करती हैं और उनके लिए विघ्न-बाधाओं से दूर रहते हुए शारीरिक व मानसिक स्वस्थता तथा सुख-समृद्धि की कामना करती हैं। यह ‘भैया दूज’ त्योहार भाई-बहन के कोमल प्यार और सम्मान को दर्शाता है।
इस प्रकार से ‘दीपावली’ समिष्टरूप से स्वास्थ संपदा, रूप संपदा, धन संपदा, शस्य संपदा, शक्ति संपदा और उल्लास-आनंद को अभिवृद्धि करने वाला विराट धार्मिक, सामाजिक और राष्ट्रीय महत्व से परिपूर्ण एक अनुपम त्योहार-उत्सव है। इसीलिए ‘दीपावली’ को मूलतः ‘पर्वराज’ भी कहा जाता है।
दीपावली का त्योहार हमें सर्वदा मर्यादा, सत्य, कर्म और सदभावना जनित जीवन यापन का वृहद सन्देश देता है। ‘तमसो मा ज्योतिर्गमय’ अर्थात् ‘अंधेरे से ज्योति अर्थात, प्रकाश की ओर जाइए’ मूलतः दीपावली का पर्व हमारे प्राचीन पौराणिक ऋषि-मुनि, संतों-ज्ञानियों के दिव्य संदेश की सार्थकता को सिद्ध करता है।
‘प्रकाश’ का मतलब ही है, ज्ञान व स्पष्टता। दीपावली का त्योहार भी इसीलिए महत्वपूर्ण है, क्योंकि यह ज्ञान और स्पष्टता को समर्पित है, जो आपके अंदर की अस्पष्टता, उलझनों को दूर करने की प्रेरणा देता है। हम मनुष्यों के लिए प्रकाश सिर्फ देखने या न दिखाने की बात मात्र ही नहीं है। प्रकाश का आना हमारे जीवन में एक नयी शुरुआत का सूचक भी होता है और उससे भी ज्यादा ये हमें ज्ञान और स्पष्टता देता है।
दीपावली न मात्र कुछेक दीपक जलाने का पर्व है, बल्कि यह एक प्रतीक है – जड़ता को मिटाने का। क्योंकि जड़ता ही ‘नर्क’ का स्रोत है। जब आप में जड़ता आ जाती है, तो आप नर्क नहीं जाते, बल्कि स्वयं ही नर्क हो जाते हैं। दीपावली में दीपक जलाने के पीछे अलग-अलग कई पौराणिक कथाएँ प्रचलित हैं। जैसे कि अयोध्या के कौशल्यानंदन श्रीराम लंका के अत्याचारी राजा रावण का वध करके इसी दिन अयोध्या लौटे थे, जिनके आगमन की खुशी में लोगों ने दीप जलाकर उनका भव्य स्वागत किया था।
इसी दिन भगवान श्री कृष्ण जी ने अपनी भार्या सत्यभामा के साथ अत्याचारी राजा नरकासुर का वध किया था। उस महान विजय के स्मरण में लोग दीप जलाकर अपनी खुशी को प्रकाशित करते हैं। माना जाता है कि इसी दिन श्रीहरि विंष्णु जी ने नरसिंह स्वरूप धारणकर हिरण्यकश्यप का वध किया था। इसी दिन इसी दिन समुद्रमंथन के पश्चात लक्ष्मी व धन्वंतरि प्रकट हुए थे।
दीपावली के दिन ही जैन धर्म के चौबीसवें तीर्थंकर, महावीर स्वामी को मोक्ष की प्राप्ति हुई थी। इसी दिन बौद्ध धर्म के प्रवर्तक गौतम बुद्ध जी ने अपने शिष्यों को अपने प्राप्त ज्ञान से अवगत करवाया था। इसी दिन उनके प्रथम शिष्य, गौतम गणधर को केवल ज्ञान प्राप्त हुआ था। इसी दिन ही अमृतसर में १५७७ में स्वर्ण मन्दिर का शिलान्यास हुआ था।
हमारे भारतीय व्रत, पर्व और त्योहार हमारे धार्मिक एवं आध्यात्मिक भावों को जागृत कर लोक-परलोक सुधारने जैसे पारलौकिक जीवन की कामना में जीवन को अनुशासित, संतुलित, परस्पर प्रेम-सहयोग, समस्त चराचरों की रक्षा जैसे वृहद आदर्शों से हम अनुप्रेरित करते हैं। जिससे हमारा जीवन न तो उच्छृंखल होने पाता है और न ही जीवन में खालीपन का का प्रवेश ही हो पता है। उनमें सामाजिक एकीकरण का अविरल स्रोत निहित होता है।
इसी तरह घर-परिवार, समाज संबंधित जिम्मेवारी को लेने और दूसरों के प्रति दया रखने जैसे कौशल भी हमें प्राप्त होते हैं। हमारे मन में एकता, अखंडता, विश्व-बंधुत्व, देश भक्ति एवं आपसी समन्वय की भावना बढ़ते हैं। आप सभी को विदित है कि विभिन्न कारणों से देश के अनेक भागों में वायु प्रदूषण सुरक्षित सीमा से काफी अधिक बढ़ गया है। ऐसे में पटाखों से होने वाला प्रदूषण, भले ही अस्थायी प्रकृति का होता है, उसे और अधिक हानिकारक बना देता है।
क्या बिना पटाखों के दीपावली नहीं मनाई जा सकती है? क्या पटाखों के जरिए हम अपने रुपयों में आग लगा कर अपनी बरवादी का खेल नहीं देखते हैं? क्या पटाखे जला लेने से ही दीपावली की खुशियाँ मिलना संभव है? नहीं, कदापि नहीं। हमारे धर्म ग्रंथों और पौराणिक ग्रंथों में भी दीपावली पर दीये जलाने की बात कही गई है। आतिशबाजी का कहीं कोई जिक्र नहीं है। हमारे पूर्वजों ने भी शास्त्रीय दर्शन का ही पालन किया और दीये जलाकर उसकी ज्योति में से ही उद्भूत खुशियों को संचित करने की भव्य परंपरा का प्रचलन किया है।
भारतीय संस्कृति की समझ और भारतीय मूल के लोगों के वैश्विक प्रवास के कारण दीपावली पर्व मनाने वाले देशों की संख्या में निरंतर वृद्धि होती ही जा रही है। कुछ देशों में भारतीय प्रवासियों द्वारा मुख्य रूप से दीपावली पर्व मनाया जाता है, जबकि अन्य कई देशों में दीपवाली पर्व सामान्य स्थानीय संस्कृति का अभिन्न हिस्सा बनता जा रहा है। इन देशों में अधिकांशतः दीपावली पर्व को कुछ मामूली बदलाव के साथ मनाया जाता है।
‘दीपावली महापर्व’ नवंबर, २०२३
श्रीराम पुकार शर्मा,
हावड़ा – ७१११०१ (पश्चिम बंगाल)
ई-मेल सूत्र – rampukar17@gmail.com