“विश्वं कृत्स्नं कर्म व्यापारो वा यस्य सः।”
अर्थातः ‘जिसकी सम्यक् सृष्टि और कर्म ही व्यापार है, वह ही विश्वकर्मा है। वही प्रभु है, वही प्रभूत पराक्रम-प्रतिपत्र, विश्वरुप विश्वात्मा है।’ – इसीलिए आगे चलकर सम्पूर्ण विश्वजनित कर्म को संपादित करने वाले श्रेष्ठ जनों को भी ‘विश्वकर्मा’ की उपाधि से विभूषित किया जाते रहा है।
हिन्दू पौराणिक ग्रंथों के अनुसार विश्वकर्मा जी को सृष्टि के प्रथम दिव्य वास्तुकार माना गया है। इनको ‘निर्माण एवं सृजन का देवता’ कहा गया है। इनके विभिन्न हाथों में सुशोभित विविध औजार और उपकरण इनके द्वारा संपादित कार्य की वृहद व्यापकता को संकेतित करते हैं। इनकी सवारी कार्य की वृहतता और गंभीरता को प्रतिपादित करता ‘हाथी’ है। इन्हें ब्रह्मा जी का प्रपौत्र भी कहा गया है। पौराणिक कथाओं के अनुसार ब्रह्मा जी के एक पुत्र ‘धर्म’ हुए। धर्म तथा उनकी पत्नी ‘वस्तु’ के सातवें पुत्र ‘वास्तु’ हुए हैं। वास्तु की पत्नी का नाम ‘अंगिरसी’ था। वास्तु-अंगिरसी से ही एक दिव्य कर्मठ पुत्र हुए, जिनका नाम ‘विश्वकर्मा’ पड़ा है।
लोक तथा परलोक में वास्तु-शिल्प के निर्माता भगवान विश्वकर्मा जी की पटरानी का नाम ‘आकृति’ तथा उनकी अन्य तीन पत्नियाँ – रति, प्राप्ति और नंदी मानी गई हैं। चारों पत्नियों से उनके पाँच पुत्र, यथा – मनु, मय, त्वष्टा, शिल्पी एवं दैवज्ञ हुए, जो वास्तु-शिल्प से संबंधित विविध विधाओं में पूर्ण पारंगत माने गए हैं। उन्होंने वास्तु-शिल्प से संबंधित कई वस्तुओं और उपकरणों का आविष्कार भी किया है। इनकी तीन पुत्रियाँ – ऋद्धि, सिद्धि और संज्ञा हुई हैं, जिनमें ऋद्धि और सिद्धि का विवाह शिव और गौरी के पुत्र भगवान गणेश जी के साथ हुआ तथा संज्ञा का विवाह महर्षि कश्यप और देवी अदिति के पुत्र भगवान सूर्यनारायण के साथ हुआ है। यमराज, यमुना, कालिंदी और अश्वनीकुमार, संज्ञा और भगवान सूर्य नारायण की ही संताने हैं। ऋद्धि और सिद्धि से भगवान गणेश जी को दो पुत्रों की प्राप्ति हुई, जिनके नाम शुभ और लाभ है।
विष्णुपुराण के पहले अंश में विश्वकर्मा को देवताओं का वर्धकी या देव-बढ़ई कहा गया है। उन्हें शिल्पावतार के रूप में सम्मानीय और पूज्यनीय बताया गया है। स्कंदपुराण में उन्हें ‘देवायतनों का सृष्टा’ कहा गया है। कहा जाता है कि वह शिल्प के इतने बड़े ज्ञाता थे कि जल पर चल सकने योग्य खड़ाऊ तैयार करने में भी समर्थ थे। राजवल्लभ वास्तुशास्त्र के अनुसार सूर्य की मानव जीवन संहारक रश्मियों का संहार भी स्वयं विश्वकर्मा जी ने ही किया था। विश्वकर्मा जी कंबासूत्र, जलपात्र, पुस्तक और ज्ञानसूत्र सहित विविध औजारों के धारक हैं। हंस पर आरूढ़, सर्वदृष्टिधारक, शुभ मुकुट और वृद्धकाय भगवान विश्वकर्मा जी हैं।
“कंबासूत्राम्बुपात्रं वहति करतले पुस्तकं ज्ञानसूत्रम्।
हंसारूढ़स्विनेत्रं शुभमुकुट शिर: सर्वतो वृद्धकाय:।।”
विश्व का सबसे प्रथम तकनीकी ग्रंथ ‘विश्वकर्मीयम ग्रंथ’ को ही माना गया है। इसमें न केवल वास्तुविद्या, बल्कि रथादि वाहन व रत्नों पर वृहद विचार-विमर्श है। ‘विश्वकर्माप्रकाश’, जिसे ‘वास्तुतंत्र’ भी कहा गया है, विश्वकर्मा के मतों का जीवंत ग्रंथ है। इसमें मानव और देववास्तु विद्या को गणित के कई सूत्रों के साथ बताया गया है, ये सब प्रामाणिक और प्रासंगिक हैं। मेवाड़ में लिखे गए ‘अपराजितपृच्छा’ में अपराजित के प्रश्नों पर विश्वकर्मा जी द्वारा दिए उत्तर के लगभग साढ़े सात हज़ार श्लोकों संकलित हैं।
भगवान विश्वकर्मा अपने पिता वास्तु की तरह ही वास्तु-कला के पारंगत विद्वान थे। उन्होंने इंद्रपुरी, शिवपुरी, वरुणपुरी, यमपुरी, कुबेरपुरी, पाँडवपुरी, सुदामापुरी सहित सतयुग का ‘स्वर्ग लोक’, यमराज का कालदण्ड, त्रेता युग की ‘लंका’, द्वापर की ‘द्वारिका’, आदि का भी निर्माण किया है। उन्होंने ही विष्णु जी का सुदर्शन चक्र, शिव जी का त्रिशूल, देवताओं के लिए पुष्पक विमान, इंद्र का व्रज, कुबेर के लिए सोने की लंका, भगवान कृष्ण की द्वारिका नगरी, इन्द्र का बज्र, पांडव के लिए इंद्रप्रस्थ नगरी, इंद्रप्रस्थ नागरी, कर्ण का कुंडल आदि भी बनाई थी। मान्यता है कि प्राचीन काल में जितनी सम्पन्न भव्य राजधानियाँ थीं, उन सब का निर्माण कार्य विश्वकर्मा जी के द्वारा ही सम्पन्न हुआ है। यहाँ तक कि जगन्नाथ पुरी के जगन्नाथ मन्दिर में स्थित कृष्ण, सुभद्रा और बलराम की विशाल मूर्तियों का प्रथम बार निर्माण भी भगवान विश्वकर्मा जी ने ही किया था।
पुराणों में विश्वकर्मा जी के अनेक रूपों का उल्लेख हैं – दो बाहु वाले, चार बाहु और दस बाहु वाले विश्वकर्मा जी। इसके अलावा एक मुख, चार मुख एवं पंचमुख वाले विश्वकर्मा जी। इसी तरह से विश्वकर्मा जी के पाँच स्वरुपों और अवतारों का भी वर्णन है –
विराट विश्वकर्मा – सृष्टि के रचेता,
धर्मवंशी विश्वकर्मा – महान शिल्प विज्ञान विधाता प्रभात पुत्र,
अंगिरावंशी विश्वकर्मा – आदि विज्ञान विधाता वसु पुत्र,
सुधन्वा विश्वकर्म – महान शिल्पाचार्य विज्ञान जन्मदाता ऋषि अथवी के पुत्र,
भृंगुवंशी विश्वकर्मा – उत्कृष्ट शिल्प विज्ञानाचार्य (शुक्राचार्य के पौत्र)
सृष्टि की सुवृध्दि करने हेतु भगवान पंचमुख विश्वकर्मा जी ने सानग, सनातन, अहिंमून, प्रयत्न और सुपर्ण नामक पाँच गोत्र प्रवर्तक ऋषियों को अपने ज्ञान से सम्पन्न किए। उन पाँच ऋषियों से प्रत्येक के पच्चीस-पच्चीस संतानें उत्पन्न हुई। तत्पश्चात उन्होंने जगत के पदार्थों और कार्यों के आधार पर शिल्प विज्ञान को पाँच प्रमुख भागों में विभाजित करते हुए पाँच प्रमुख शिल्पायार्च पुत्रों यथा, – मनु, मय, त्वष्ठा, शिल्पी एंव दैवज्ञ को उत्पन्न किया। इन पांचों शीलपाचार्य पुत्रों ने जगत भर के समस्त भौतिक निर्माण कार्यों को आपस में बाँटकर संपादित किया। जिससे आज का विशाल ‘विश्वकर्मा समाज परिवार’ का विस्तार हुआ माना जाता है। कालांतर में उनके वंशज अपने पितृकार्यों को ही निरंतर संपादित करते रहे हैं यथा –
ऋषि मनु विश्वकर्मा – ये ‘सानग गोत्र’ के कहे जाते हैं। ये लोहे के कर्म के उध्दगाता है, इनके वशंज ‘लोहकार’ के रुप मे जाने जाते हैं। इनका विवाह अंगिरा ऋषि की कन्या कंचना के साथ हुआ था। इन्होने मानव सृष्टि का निर्माण किया है। इनके कुल में अग्निगर्भ, सर्वतोमुख, ब्रम्ह आदि ऋषि उत्पन्न हुये हैं।
ऋषि मय – ये ‘सनातन गोत्र’ के कहे जाते हैं। ये बढई के कर्म के उद्धगाता है। उनके वंशंज ‘काष्टकार’ के रुप में जाने जाते हैं। इनका विवाह परासर ऋषि की कन्या सौम्या देवी के साथ हुआ था। इन्होने इन्द्रजाल सृष्टि की रचना किया है। इनके कुल में विष्णुवर्धन, सूर्यतन्त्री, तंखपान, ओज, महोज इत्यादि महर्षि पैदा हुए है।
ऋषि त्वष्ठा – ये ‘अहंभन गोत्र’ के कहे जाते हैं। इनके वंशज ‘ताम्रक’ के रूप में जाने जाते हैं। इनका विवाह कौषिक ऋषि की कन्या जयन्ती के साथ हुआ था। इनके कुल में लोकत्वष्ठा, तन्तु, वर्धन, हिरण्यगर्भ शुल्पी अमलायन ऋषि उत्पन्न हुये है। वे देवताओं में पूजित ऋषि थे।
ऋषि शिल्पी – ये ‘प्रयत्न गोत्र’ के कहे जाते हैं। इनके वशंज ‘शिल्पकला’ के अधिष्ठाता है और वे मुर्तिकार भी कहे जाते हैं। इनका विवाह भृगु ऋषि की कन्या करूणा के साथ हुआ था। इनके कुल में बृध्दि, ध्रुन, हरितावश्व, मेधवाह नल, वस्तोष्यति, शवमुन्यु आदि ऋषि हुये हैं। इनकी कलाओं का वर्णन मानव जाति तो क्या, देवगण भी नहीं कर पाये हैं।
ऋषि देवज्ञ – ये ‘सुर्पण गोत्र’ के कहे जाते हैं । इनके वशंज ‘स्वर्णकार’ के रूप में जाने जाते हैं। इनका विवाह जैमिनी ऋषि की कन्या चन्र्दिका के साथ हुआ था। इनके कुल में सहस्त्रातु, हिरण्यम, सूर्यगोविन्द, लोकबान्धव, अर्कषली इत्यादि ऋषि हुए हैं।
विश्वकर्मा जी के ये पाँच पुत्रों से संबंधित उनके वंशज छेनी, हथौडी, निर्माणजन्य औजारों और अपनी उंगलियों से निर्मित कलाओं के द्वारा ही लोकहित के लिए अनेकानेक पदार्थों को निर्माण या उत्पन्न कर प्राणियों के लिए घर, मंदिर एवं भवन, मुर्तियाँ, अलंकार आदि को बनाते रहे हैं। इसलिए विश्वकर्मा कुल के ये पाँचो वन्दनीय हैं और इनके बिना कोई भी यज्ञ अधूरा ही माना जाता है। इनके वंशज सारे संसार में फैल कर आदि युग से आज तक अपने-अपने कार्य को निरंतर संपादित करते चले आ रहे हैं।
भगवान विश्वकर्मा जी को आदर-सम्मान तथा पूजित करने के लिए ही प्रतिवर्ष 17 सितंबर को ‘विश्वकर्मा-पूजा महोत्सव पर्व’ मनाया जाता है। इस दिन कल-कारखानों, उद्योगों, फैक्ट्रियों में विभिन्न कल-पुर्जों, मशीनों, औजारों, कार्य में सहायक उपकरणों आदि की सादर पूजा की जाती है। इसके अतिरिक्त दुकानों, कारखानों की भी पूजा-अर्चना की जाती है। कहा जाता है कि विश्वकर्मा पूजा के दिन विधि-विधान से पूजा करने से मानवीय समस्त मनोकामनाएँ पूर्ण होती हैं, घर में सुख-समृद्धि प्राप्त होती है, कारोबार और व्यापार में भी सफलता प्राप्त होती है। अतएव प्रत्येक सचेतक प्राणी को सृष्टिकर्ता, शिल्प कलाधिपति, तकनीकी ओर विज्ञान के जनक भगवान विश्वकर्मा जी की पूजा-अर्चना अपनी व राष्ट्रीय उन्नति सहित जगत के कल्याण के लिए अवश्य ही करनी चाहिए।
अतः जगत शिल्पी परम पिता भगवान विश्वकर्मा भगवान की पूजा-अर्चना के पावन दिन पर हम सभी विश्वकर्मा-पुत्र उनका मंगल गान करते हैं।
“श्री विश्वकर्म प्रभु वन्दऊँ, चरणकमल धरिध्य़ान।
श्री, शुभ, बल अरु शिल्पगुण, दीजै दया निधान।।
जगदचक विश्वकर्मन्नीश्वराय नम:॥”
प्रस्तोता –
श्रीराम पुकार शर्मा
हावड़ा – 711101
(पश्चिम बंगाल)
ई-मेल संपर्क सूत्र – rampukar17@gmail.com