नेताजी की जयंती विशेष…‘आमार एकटा काज कोरते पारबे? – ‘नेताजी’

श्री राम पुकार शर्मा, हावड़ा। नेताजी सुभाष चंद्र बोस ने अंग्रेजी हुकूमत के खिलाफ अपने जिस अद्भुत प्रबल शौर्य, पराक्रम और बुद्धिमता का प्रदर्शन किया था, उन्हें ही सम्मानित करते हुए भारत सरकार ने उनकी गौरवशाली 125 वीं जयंती वर्ष को “पराक्रम दिवस” के रूप घोषित किया है। सुभाष चन्द्र बोस एक महान सेनापति, वीर सैनिक, श्रेष्ठ राजनीतिज्ञ और अन्तरराष्ट्रीय ख्याति प्राप्त नेताओं के साथ बैठ कर कूटनीति तथा राजनीति प्रसंगों पर चर्चा करने में पूर्ण सक्षम व्यक्तित्व थे। भारतीय स्वतंत्रता इतिहास में ‘महात्मा गाँधी’ जी के बाद अगर किसी अन्य प्रमुख व्यक्तित्व को राष्ट्रीय स्तर पर सादर स्मरण किया जाता है, तो वह एकमात्र नाम है, ‘नेताजी सुभाष चन्द्र बोस’ का।

सन् 1940 में उधर जर्मन का हिटलर इंग्लैंड पर लगातार बम वर्षा कर रहा था और इधर भारत में ब्रिटिश सरकार अपनी आँखों की किरकिरी बने अपने प्रबल शत्रु सुभाष चंद्र बोस को 2 जुलाई, 1940 को देशद्रोह के आरोप में गिरफ़्तार कर कलकत्ता के प्रेसिडेंसी जेल में डाल दिया था। लेकिन बेवजह अपनी गिरफ्तारी के विरोध में सुभाष चंद्र बोस ने जेल में ही भूख हड़ताल शुरू कर दी, जिससे उनका सेहत लगातार गिरने लगा। जिससे घबड़ाकर प्रेसिडेंसी जेल का तत्कालीन गवर्नर जॉन हरबर्ट ने 5 दिसम्बर को एक एंबुलेंस में सुभाष चन्द्र बोस को उनके घर 38/2 एल्गिन रोड, कलकत्ता, भेजवा दिया, ताकि उनकी अस्वाभाविक मौत का आरोप उस पर न लगे। उनके घर के बाहर सादे कपड़ों में पुलिस का कठोर पहरा भी बैठा दिया था। अर्थात, एक तरह से उन्हें उनके घर में ही ‘नजरबंद’ कर दिया गया था। उसने सोचा था कि सुभाष की सेहत में सुधार होते ही उन्हें फिर से हिरासत में ले लेगा। सुभाष से मिलने वाले हर शख़्स की गतिविधियों पर कड़ी नज़र रखी जाने लगी और उनके द्वारा भेजे जा रहे हर एक पत्र को डाकघर में ही खोल कर पढ़ा जाने लगा था।

एक दिन बढ़ी हुई दाढ़ी सहित अपनी तकिया पर अर्धलेटे हुए ही सुभाष चन्द्र बोस ने अपने 20 वर्षीय भतीजे शिशिर (बड़े भाई शरत चंद्र बोस के पुत्र) के हाथ को अपने हाथ में थामे हुए पूछा था, – ‘आमार एकटा काज कोरते पारबे?’ (क्या तुम मेरा एक काम कर सकोगे?) शिशिर ने सिर हिलाते हुए हांमी भर दी थी। बाद में पता चला कि सुभाष गुप्त रूप से भारत से निकलने में शिशिर की मदद लेना चाहते थे। तय हुआ कि शिशिर अपने चाचा रांगा काकाबाबू सुभाष को देर रात अपनी कार में बैठा कर कलकत्ता से दूर किसी रेलवे स्टेशन तक पहुँचा देंगे। सुभाष के पास दो गाड़ियाँ थीं, ‘जर्मन वाँडरर कार’ और ‘अमेरिकी स्टूडबेकर प्रेसिडेंट कार’।

अमेरिकी कार बड़ी थी, जिसे आसानी से पहचाना जा सकता था, अतः इस यात्रा के लिए ‘जर्मन वाँडरर कार’ को ही चुना गया। शिशिर कुमार बोस अपनी किताब ‘द ग्रेट एस्केप’ में लिखते हैं, – ‘हमने मध्य कलकत्ता के ‘वैचल मोल्ला डिपार्टमेंट स्टोर’ में जा कर सुभाष बाबू के भेष बदलने के लिए कुछ ढीली सलवारें और एक फ़ैज़ टोपी, एक सूटकेस, एक अटैची, दो कार्ट्सवूल की कमीज़ें, टॉयलेट का कुछ सामान, तकिया और कंबल ख़रीदा। मैं फ़ेल्ट हैट लगाकर एक प्रिटिंग प्रेस गया और वहाँ मैंने उनके लिए विज़िटिंग कार्ड छपवाया। कार्ड पर लिखा था, ‘मोहम्मद ज़ियाउद्दीन, बीए, एलएलबी, ट्रैवलिंग इंस्पेक्टर, द एम्पायर ऑफ़ इंडिया अश्योरेंस कंपनी लिमिटेड, स्थायी पता – सिविल लाइंस, जबलपुर’।

घरेलू क्रिया-कलापों में सर्वत्र ही एकरूपता रखी गई थी। सुभाष के निकल भागने की बात बाकी घर वालों को, यहाँ तक कि उनकी माँ प्रभावती देवी से भी छिपाई गई थी। सुभाष चन्द्र बोस ने अपने परिजन के साथ 16 जनवरी की रात को आखरी सामूहिक भोजन किया था। सुभाष को घर से निकलने में देर हो रही थी, क्योंकि घर के बाकी लोग अभी जाग ही रहे थे। सौगत बोस ने सुभाष चंद्र बोस पर अपनी पुस्तक ‘हिज़ मेजेस्टीज़ अपोनेंट’ में लिखते हैं, – ‘16 जनवरी की रात 1 बज कर 35 मिनट के आसपास सुभाष चंद्र बोस ने ‘मोहम्मद ज़ियाउद्दीन’ का भेष में अपने घर से निकले। उन्होंने सोने के रिम का अपना चश्मा पहना। लंबी यात्रा के लिए फ़ीतेदार चमड़े के जूते पहने। सुभाष कार की पिछली सीट पर जा बैठे। शिशिर ने ‘वांडरर कार बीएलए 7169’ का इंजन स्टार्ट किया। सुभाष के शयनकक्ष की बत्ती पूर्व की भाँति जलती ही छोड़ दी गई थी।’

कलकत्ता गहरी नींद के आगोश में था, उस समय चाचा और भतीजे दोनों लोअर सरकुलर रोड, सियालदह और हैरिसन रोड होते हुए हावड़ा पुल पार कर आसनसोल और सुबह क़रीब साढ़े नौ-दस बजे तक धनबाद के पास ‘बरारी’ पहुँचे। अपने भाई अशोक के घर से कुछ सौ मीटर दूरी पर ही शिशिर ने सुभाष बाबू को कार से उतारा दिया था। शिशिर कुमार बोस अपनी किताब ‘द ग्रेट एस्केप’ में लिखते हैं, – ‘मैं अशोक को बता ही रहा था कि कुछ दूर पहले उतारे गए इंश्योरेंस एजेंट मोहम्मद ज़ियाउद्दीन (दूसरे भेष में सुभाष) ने घर में प्रवेश किए और अशोक को बीमा पॉलिसी के बारे में बताने लगे। नौकरों की उपस्थिति में अशोक को मैंने ज़ियाउद्दीन से अंग्रेज़ी में ही परिचय करवाया। नौकरों को आदेश दिए गए कि ज़ियाउद्दीन के आराम के लिए एक कमरे में व्यवस्था की जाए।’

18 जनवरी, 1941 को शाम को मोहम्मद ज़ियाउद्दीन ने गोमो स्टेशन पर देर रात आने वाली ‘कालका मेल’ को पकड़ने की अपनी इच्छा व्यक्त की। शिशिर बोस के अनुसार, – ‘गोमो स्टेशन पर एक उनिंदी अज्ञात कुली ने सुभाष चंद्र बोस का सामान उठाया। सुभाष चंद्र उस कुली के पीछे धीमे-धीमे ओवर ब्रिज पर चढ़ते गए और फिर अंधेरे में गायब हो गए।……. कुछ ही मिनटों में कालका मेल वहाँ आ पहुँची। मैं तब तक स्टेशन के बाहर ही खड़ा था। दो मिनट बाद ही मुझे कालका मेल के आगे बढ़ते जाती पहियों की ‘ठक-ठक’ की आवाज़ सुनाई दी, जो क्रमशः धीमी होती हुई रात्रि के घोर सन्नाटे में विलीन हो गई।’

इस बीच सुभाष चन्द्र बोस के एल्गिन रोड वाले घर के उनके कमरे में रोज नियमित खाना पहुँचाया जाता रहा। वह खाना उनके भतीजे और भतीजियाँ खाते रहें, ताकि लोगों को आभास होता रहे कि सुभाष अभी भी अपने कमरे में ही हैं। सुभाष चंद्र बोस कालका मेल से पहले दिल्ली पहुँचे। फिर 19 जनवरी की देर शाम पेशावर के ‘केंटोनमेंट स्टेशन’ पहुँचे। वहाँ मियाँ अकबर शाह (‘नेताजीज़ ग्रेट एस्केप’ के लेखक) गेट के पास ही इंतजार करते मिले। उन्होंने उनसे एक ताँगे में बैठने के लिए इशारा किया और ताँगे वाले को बताए रास्ते पर चलने का निर्देशन दिया। फिर स्वयं एक दूसरे ताँगे में बैठे सुभाष बाबू के पीछे चलने लगे। दोनों तांगे ‘होटल ताजमहल’ पहुँचे। होटल का मैनेजर मोहम्मद जियाउद्दीन से काफी प्रभावित हुआ। उसने उनके लिए फ़ायर प्लेस वाला एक सुंदर कमरा खुलवाया। पर अगले दिन कुछ विशेष कारणवश मियाँ अकबर शाह ने सुभाष चंद्र बोस को अपने एक साथी आबाद ख़ाँ के घर पर व्यवस्थित कर दिया। वहाँ पर अगले कुछ दिनों में सुभाष चंद्र बोस ने ज़ियाउद्दीन का भेष त्याग कर एक बहरे पठान का वेष धारण कर लिया, क्योंकि सुभाष स्थानीय पश्तो भाषा बोलना नहीं जानते थे।

मियाँ अकबर शाह ने पूर्व ही व्यवस्था कर रखा था कि फ़ॉरवर्ड ब्लॉक के दो लोग मोहम्मद शाह और भगत राम तलवार सुभाष चंद्र बोस को भारत की सीमा से पार कराएंगे। भगत राम रहमत ख़ाँ के रूप में वहाँ के सोवियत दूतावास से संपर्क करने की कोशिश की, लेकिन उन्हें सफलता नहीं मिली। तब तय यह हुआ कि वे अपने गूँगे व बहरे रिश्तेदार मोहम्मद ज़ियाउद्दीन को ‘अड्डा शरीफ़ की मज़ार’ ले जाएँगे, जहाँ उनके फिर से बोलने और सुनने की दुआ माँगी जाएगी। 26 जनवरी, 1941 की सुबह मोहम्मद जियाउद्दीन को अपने साथ लिये मोहम्मद शाह और रहमत ख़ाँ एक कार से दोपहर तक तत्कालीन ब्रिटिश साम्राज्य की सीमा को पार कर गए। फिर उन्होंने कार को छोड़ कर पश्चिमोत्तर सीमांत के ऊबड़-खाबड़ कबाएली इलाके में पैदल ही बढ़ते हुए 27-28 जनवरी की आधी रात को तीनों अफ़ग़ानिस्तान के एक गाँव में पहुँचे।

इधर कोलकत्ता की स्थिति के बारे में सौगत बोस अपनी किताब ‘हिज़ मेजेस्टीज़ अपोनेंट’ में लिखते हैं, – ’27 जनवरी को अदालत में सुभाष के ख़िलाफ़ एक मुकदमें की सुनवाई होनी थी। पूर्व की तय योजना के अनुसार सुभाष के दो भतीजों ने पुलिस को ख़बर दी कि वे घर से गायब हो गए हैं। यह सुनकर सुभाष की माँ प्रभावती देवी का रोते-रोते बुरा हाल हो गया। उनको संतुष्ट करने के लिए सुभाष के भाई शरत ने अपने बेटे शिशिर को उसी वाँडरर कार में सुभाष की तलाश के लिए कालीघाट मंदिर भेजा। 27 जनवरी को सुभाष के गायब होने की ख़बर सबसे पहले ‘आनंद बाज़ार पत्रिका’ और ‘हिंदुस्तान हेरल्ड’ में छपी। ब्रिटिश खुफ़िया अधिकारी न सिर्फ़ आश्चर्यचकित रह गए, बल्कि शर्मिंदा भी हुए।’

उधर की स्थिति मियाँ अकबर शाह के अनुसार, – ‘इन लोगों ने चाय के डिब्बों से भरे एक ट्रक में लिफ़्ट ली और 28 जनवरी की रात जलालाबाद पहुँचे। अगले दिन उन्होंने जलालाबाद के पास ‘अड्डा शरीफ़ मज़ार’ पर ज़ियारत की। 30 जनवरी को उन्होंने ताँगे और फिर एक ट्रक पर बैठ कर ‘बुद ख़ाक’ के चेक पॉइंट पर पहुँचे। वहाँ से एक अन्य ताँगा से वे 31 जनवरी, 1941 की सुबह काबुल में दाख़िल हुए थे।’

अब सुभाष चंद्र बोस ने स्वयं जर्मन दूतावास से संपर्क किया। काबुल दूतावास के जर्मन मिनिस्टर हाँस पिल्गेर ने 5 फ़रवरी को जर्मन विदेश मंत्री को तार भेज कर सुभाष चंद्र बोस के बारे में सूचित किया। बर्लिन और मास्को से उनके वहाँ से निकलने की सहमति सूचना आने तक सुभाष चंद्र बोस लगातार जर्मन नेतृत्व के संपर्क में रहे। इस बीच एक अफ़ग़ान पुलिस वाले को उन पर शक हो गया था। उन दोनों ने पहले कुछ रुपये और बाद में सुभाष की सोने की घड़ी दे कर उससे अपना पीछा छुड़ाया। वह सोने की घड़ी सुभाष को उनके पिता ने उपहार स्वरूप दी थी।

जर्मन नेतृत्व की सूचना के आधार पर 22 फ़रवरी, 1941 को सुभाष चन्द्र बोस ने इटली के राजदूत पाइत्रो क्वारोनी से मुलाक़ात की। इस मुलाक़ात के 16 दिन बाद, यानि 10 मार्च, 1941 को इटालियन राजदूत की रूसी पत्नी सुभाष चंद्र बोस के लिए एक संदेश ले कर आईं कि सुभाष दूसरे कपड़ो में एक तस्वीर खिचवाएँ। सुभाष की उस तस्वीर को एक इटालियन राजनयिक ओरलांडो मज़ोटा के पासपोर्ट में लगा दिया गया और फिर 17 मार्च की रात को सुभाष चंद्र बोस को एक इटालियन राजनयिक सिनोर क्रेससिनी के घर शिफ़्ट कर दिया गया था। सुबह तड़के ही सुभाष चंद्र बोस एक जर्मन इंजीनियर वेंगर और दो अन्य लोगों के साथ एक कार से अफ़ग़ानिस्तान की सीमा पार करते हुए पहले समरकंद पहुँचे और फिर ट्रेन से मास्को होते हुए जर्मनी की राजधानी बर्लिन पहुँचे।

9 अप्रेल, 1941 को उन्होंने जर्मन सरकार को अपना एक ‘मेमोरंडम’ सौंपा, जिसमें एक्सिस पॉवर और भारत के बीच परस्पर सहयोग को दर्शाया गया था। जर्मन सरकार के सहयोग से इसी साल नवम्बर में उन्होंने ‘स्वतंत्र भारत केंद्र’ और ‘स्वतंत्र भारत रेडिओ’ की स्थापना की। 29 अक्टूबर, 1943 को सुभाष चंद्र बोस ने जर्मन सरकार के सहयोग से अंडमान और निकोबार में ‘आजाद हिन्द सरकार’ की स्थापना की थी। जहाँ इनका नाम ‘शहीद’ और ‘स्वराज्य’ रखा गया। परंतु 1945 में अमेरिका द्वारा परमाणु हमले के बाद जर्मनी ने अपने हथियार डाल दिए। इसके कुछ दिन बाद ही 18 अगस्त, 1945 को नेताजी की एक हवाई दुर्घटना में मारे जाने की खबर चतुर्दिक फैल गई। हालाकि नेताजी सुभाष चंद्र बोस की मृत्यु आज तक रहस्य ही बनी हुई है।

18 जनवरी, 1941 को नेताजी सुभाष चंद्र बोस, जिस ‘गोमो स्टेशन’ से ट्रेन में सवार हुए थे, उसका नाम उनके सम्मान में ‘नेताजी सुभाष चंद्र बोस जंक्शन, गोमो’ और जिस ‘कालका मेल’ से गए थे, उसका नाम भी सम्मान जनक ‘नेताजी एक्सप्रेस’ किया जा चूका है । उनकी 125 वीं जयंती के पावन अवसर पर नई दिल्ली के ‘इण्डिया गेट’ के ‘अमर जवान ज्योति’ के पास ही भारत-पुत्र ‘नेताजी सुभाष चन्द्र बोस’ की भव्य मूर्ति की स्थापना की घोषणा प्रधान मंत्री द्वारा की गई और बहुत जल्दी ही वह अपने साकर रूप को धारण कर ली। इस प्रकार भारत का मस्तिष्क-स्थल ‘नई दिल्ली’ में हमारे ‘नेताजी’ की भव्य प्रतिमा राष्ट्र सहित अंतरर्राष्ट्रीय स्तर पर हमारे नित्य पूजनीय ‘नेताजी’ के महत्व को अनंतकाल तक प्रसारित करती ही रहेगी।

(नेताजी जयंती, 23 जनवरी, 2023)

श्रीराम पुकार शर्मा

श्रीराम पुकार शर्मा
हावड़ा – 711101 (पश्चिम बंगाल)
ई-मेल सम्पर्क सूत्र – rampukar17@gmail।com

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