लिंगानुपात में समानता लाने पीसी-पीएनडीटी कानून 2003 में संशोधन सहित मिशन मोड पर काम करनें की जरूरत

लिंगानुपात असंतुलन की बढ़ती खाई को मिटाने केंद्र और राज्यों को मिलकर काम करने की जरूरत
बढ़ती लैंगिक असमानता को दूर करने, जन भागीदारी के साथ पीसी-पीएनडीटी अधिनियम में संशोधन की जरूरत को रेखांकित करना जरूरी – एडवोकेट किशन भावनानी

किशन सनमुखदास भावनानी, गोंदिया, महाराष्ट्र। वैश्विक स्तर पर संयुक्त राष्ट्र ने अप्रैल 2023 की अपनी एक रिपोर्ट में कहा कि अब भारत चीन को पीछे छोड़ते हुए 142.86 करोड़ की आबादी वाला देश बनकर दुनियां का सबसे अधिक आबादी वाला देश बन गया है। वहीं अब भारत में विशेष रूप से गरीबी में उल्लेखनीय कमी दिखी है। 15 वर्षों (2005-06 से 2019-2021) की अवधि में 41.5 करोड़ लोग गरीबी रेखा से बाहर निकले हैं। यह भारत या अन्य कोई नहीं बल्कि स्वयं संयुक्त राष्ट्र ने अपनी एक रिपोर्ट में कहा है। अब हमें अपने स्तर पर चिंतन करने की जरूरत है कि हमें लिंगानुपात में समानता करने की ओर कदम उठाने हैं। हमें अब अपनी जनता को रूढ़िवादी पुरानी सोच से निकालकर बेटियों के प्रति जन जागरण अभियान में तेजी लाने की जरूरत है।

जिसकी चिंता दिनांक 15 जुलाई 2023 को उत्तराखंड के देहरादून के ओल्ड राजपुर रोड पर आयोजित दो दिवसीय चिंतन शिविर में भी दिखी जहां माननीय केंद्रीय स्वास्थ्य मंत्री ने लिंगानुपात में समानता लाने के लिए पीसी-पीएनडीटी संशोधित अधिनियम 2002 में संशोधन करने की बात कही। जिसके लिए सभी राज्यों से सुझाव मंगाए जाएंगे, क्योंकि लिंगानुपात की बढ़ती खाई को रोकने जनभागीदारी के साथ जन्म पूर्व परीक्षण तकनीकी (दुरुपयोग के नियमन और बचाव) संशोधित अधिनियम अधिनियम 2002 (पीसी-पीएनडीटी) जैसे 20 साल पुराने कानूनों को बदलने या संशोधित करने की जरूरत है। इसलिए आज हम मीडिया में उपलब्ध जानकारी के सहयोग से इस आर्टिकल के माध्यम से चर्चा करेंगे, लिंगानुपात असंतुलन की बढ़ती खाई को मिटाने केंद्र और राज्यों को मिलकर काम करने की जरूरत है।

एडवोकेट किशन सनमुखदास भावनानी : संकलनकर्ता, लेखक, कवि, स्तंभकार, चिंतक, कानून लेखक, कर विशेषज्ञ

साथियों बात अगर हम 15 जुलाई 2023 को समाप्त हुए दो दिवसीय चिंतन शिविर में लिंगानुपात सहित सात मुद्दों पर चर्चा की करें तो, शिविर के दूसरे दिन शनिवार को अलग-अलग सत्रों में सात मुद्दों पर मंथन किया गया। इसमें टीबीमुक्त भारत अभियान, लिंगानुपात, गैर-संचारी रोगों की रोकथाम, आयुष्मान भारत हेल्थ अकाउंट, अंगदान समेत कई मुद्दों पर मंथन किया गया। चिंतन बैठक के समापन के बाद प्रेसवार्ता में केंद्रीय स्वास्थ्य मंत्री ने कहा कि अमृतकाल के आने वाले 25 सालों में देश को स्वास्थ्य क्षेत्र में उत्कृष्ट राष्ट्र बनाने के लिए सभी राज्य भी विजन डॉक्यूमेंट तैयार करेंगे। इसके लिए राष्ट्रीय चिंतन शिविर की तर्ज पर सभी राज्य भी अपने यहां दो दिन का चिंतन शिविर आयोजित करेंगे। लिंगानुपात में समानता लाने के लिए केंद्र व राज्य सरकार मिशन मोड में काम करेगी। इसके लिए पीसी-पीएनडीटी एक्ट में संशोधन किया जाएगा। सभी राज्यों से संशोधन के लिए सुझाव देंगे। प्रसव से पूर्व भ्रूण जांच रोकने के लिए एक्ट में सख्त प्रावधान किया जाएगा।

साथियों बात अगर हम भारत में कन्या, भ्रूण से जुड़े कानूनों की करें तो, कन्या भ्रूण हत्या का मतलब है माँ की कोख से मादा भ्रूण को निकल फेंकना।जन्म पूर्व परीक्षण तकनीक (दुरुपयोग के नियमन और बचाव) अधिनियम 2002 की धारा 4 (1)(बी,सी) के तहत उसके अनुसार भ्रूण को परिभाषित किया गया है। निषेचन या निर्माण के सत्तानवे दिन से शुरू होकर अपने जन्म के विकास की अवधि के दौरान एक मानवीय जीव। भारतीय दंड संहिता, 1860 के तहत प्रावधान, भारतीय दंड संहिता की धारा 312 कहती है, जो कोई भी जान बूझकर किसी महिला का गर्भपात करता है जब तक कि कोई इसे सदिच्छा से नहीं करता है और गर्भावस्था का जारी रहना महिला के जीवन के लिए खतरनाक न हो, उसे सात साल की कैद की सजा दी जाएगी इसके अतिरिक्त महिला की सहमति के बिना गर्भपात (धारा 313) और गर्भपात की कोशिश के कारण महिला की मृत्यु (धारा 314) इसे एक दंडनीय अपराध बनाता है।

धारा 315 के अनुसार मां के जीवन की रक्षा के प्रयास को छोड़कर अगर कोई बच्चे के जन्म से पहले ऐसा काम करता है जिससे जीवित बच्चे के जन्म को रोका जा सके या पैदा होने के बाद उसकी मृत्यु हो जाए, उसे दस साल की कैद होगी। धारा 312 से 318 गर्भपात के अपराध पर सरलता से विचार करती है जिसमें गर्भपात करना, बच्चे के जन्म को रोकना, अजन्मे बच्चे की हत्या करना (धारा 316), नवजात शिशु को त्याग देना (धारा 317), बच्चे के मृत शरीर को छुपाना या इसे चुपचाप नष्ट करना (धारा 318)। हालाँकि भ्रूण हत्या या शिशु हत्या शब्दों का विशेष तौर पर इस्तेमाल नहीं किया गया है। फिर भी ये धाराएं दोनों अपराधों को समाहित करती हैं। इन धाराओं में जेंडर के तटस्थ शब्द का प्रयोग किया गया है ताकि किसी भी लिंग के भ्रूण के सन्दर्भ में लागू किया जा सके।

हालाँकि भारत में बाल भ्रूण हत्या या शिशु हत्या के बारे में कम ही सुना गया है। भारतीय समाज में जहाँ बेटे की चाह संरचनात्मक और सांस्कृतिक रूप से जुड़ी हुई है, वहीँ महिलाओं को बेटे के जन्म के लिए अत्यधिक सामाजिक और मनोवैज्ञानिक दबाव झेलना पड़ता है। इन धाराओं ने कुछ और जरूरी मुद्दों पर विचार नहीं किया है। जिनमें महिलाएं अत्यधिक सामाजिक दबावों की वजह से अनेक बार गर्भ धारण करती हैं और लगातार गर्भपातों को झेलती हैं। भारतीय संविधान का अनुच्छेद 21 जीवन के अधिकार की घोषणा करता है। अनुच्छेद 51 ए (ई) महिलाओं के प्रति अपमानजनक प्रथाओं के त्याग की व्यवस्था भी करता है। उपरोक्त दोनों घोषणाओं के आलोक में भारतीय संसद ने लिंग तय करने वाली तकनीक के दुरुपयोग और इस्तेमाल से कन्या भ्रूण हत्या को रोकने के लिए जन्म-पूर्व परीक्षण तकनीक (दुरुपयोग का नियमन और बचाव) अधिनियम, 1994 पारित किया।

इस अधिनियम के प्रमुख लक्ष्य हैं-गर्भाधान पूर्व लिंग चयन तकनीक को प्रतिबंधित करनालिंग-चयन संबंधी गर्भपात के लिए जन्म-पूर्व परीक्षण तकनीकों के दुरूपयोग को रोकना। जिस उद्देश्य से जन्म-पूर्व परीक्षण तकनीकों को विकसित किया है, उसी दिशा में उनके समुचित वैज्ञानिक उपयोग को नियमित करना। सभी स्तरों पर अधिनियम के प्रभावी क्रियान्वयन को सुनिश्चित कर नाइस अधिनियम को बड़े जोर-शोर से पारित किया गया। लेकिन राज्य इसे समुचित तरीके से लागू करने के लिए उचित व्यवस्था करने में नाकामयाब रहा! क्लीनिकों में अधूरे अभिलेखों अथवा अभिलेखों के देख-रेख के अभाव में यह पता करना मुश्किल हो जाता है कि कौन से अल्ट्रा-साउंड का परीक्षण किया गया था। यहाँ तक कि पुलिस महकमा भी सामाजिक स्वीकृति के अभाव में इस अधिनियम के तहत कोई मामला दर्ज करने में असफल रहा है। डॉक्टरों द्वारा कानून का धड़ल्ले से उल्लंघन जारी है जो अपने फायदे के लिए लोगों का शोषण करते हैं।

गर्भाधान के चरण के दौरान एक्स और वाई गुणसूत्रों को अलग करना, पीसीजी इत्यादि नयी तकनीकों के दुरुपयोगों ने इस अधिनियम को नयी स्थितियों में बेअसर बना दिया है।इस अधिनियम के प्रभावी क्रियान्वयन को सुनिश्चित करने के लिए और मौजूदा कानून में खामियों पर जीत हासिल करने के लिए स्वास्थ्य एवम परिवार कल्याण मंत्रालय ने संशोधनों की एक श्रृखंला प्रस्तावित की थी जिसे संसद में मंजूर कर लिया गया था। इससे पीएनडीटी अधिनियम 2002 दिसम्बर में अस्तित्व में आया। बाद में इस अधिनियम को गर्भाधान पूर्वप्रसव पूर्व परीक्षण तकनीक (लिंग चयन प्रतिबन्ध) अधिनियम कहा गया। इसके बाद स्वास्थ्य एवम परिवार कल्याण मंत्रालय ने प्रसव-पूर्व परीक्षण (दुरुपयोग का नियम एवम बचाव) अधिनियम 2003 ने 14 फरवरी को 1996 के नियम को विस्थापित कर दिया।

साथियों बात अगर हम पीसी पीएनडीटी अधिनियम के प्रतिबंधों की करें तो, पीसी एंड पीएनडीटी एक्ट के तहत प्रतिबंधित कृत्य (1) लिंग चयन या लिंग का पूर्व-निर्धारण की सेवा देने वाले विज्ञापनों का प्रकाशन; (2) गर्भाधान-पूर्व या जन्म-पूर्व परीक्षण तकनीकों वाले क्लीनिकों कापंजीकृत नहीं होना या क्लिनिक या संस्थान के भीतर सबको दिखाई देने वाले पंजीकरण प्रमाणपत्र को प्रदर्शित नहींकरना; (3) अजन्मे बच्चे के लिंग का निर्धारण करना; (4) गर्भवती को लिंग निर्धारण परीक्षण के लिए मजबूर करना; (5) लिंगचयन की प्रक्रिया में सहयोग या सुविधा प्रदान करना; (6) चिकित्सक द्वारा गर्भवती या अन्य व्यक्ति को अजन्मे बच्चे के लिंग के बारे में किसी भी तरह सूचित करना; (7) पीसी एंड पीएनडीटी एक्ट के अंतर्गत पंजीकृत क्लीनिकों द्वार अभिलेखों को भली-भांति सहेज कर नहीं रखना।

पीसी एंड पीएनडीटी एक्ट की प्रमुख विशेषताएं, इस अधिनियम ने सभी परीक्षण प्रयोगशालाओं के पंजीकरण को अनिवार्य बना दिया है और अल्ट्रा साउंड के उपकरणों के निर्माता को अपने उपकरणों को पंजीकृत प्रयोगशालाओं को बेचने के निर्देश दिए हैं। इसके अनुसार कोई भी निजी संगठन समेत व्यक्ति, अल्ट्रा साउंड मशीन, इमेजिंग मशीन, स्कैनर या भ्रूण के लिंग के निर्धारण में सक्षम कोई भी उपकरण निर्माता, आयातक, वितरक या आपूर्तिकर्ता के लिए इन्हें बेचना, वितरित करना, आपूर्ति करना, किराये पर देना या भुगतान या अन्य आधार पर इस अधिनियम के तहत अपंजीकृत किसी आनुवंशिक परामर्श केंद्र, जेनेटिक प्रयोगशाला, जेनेटिक क्लिनिक, अल्ट्रा साउंड क्लिनिक, इमेजिंग स्क्रीन या अन्य किसी निकाय या व्यक्ति को ऐसे उपकरणों या मशीनों के प्रयोग की अनुमति नहीं दे सकता है।

(पीसी एंड पीएनडीटी अधिनियम के नियम 3 ए के इस अधिनियम के अन्तर्गत ऐसी मशीनों और उपकरणों के पंजीकृत निर्माताओं को सम्बन्ध राज्य, केंद्र शासित प्रदेश और केंद्र सरकार के उपयुक्त प्राधिकारियों को तीन महीने में एक बार अपने उपकरणों के क्रेताओं की सूची देनी होगी और ऐसे व्यक्ति या संगठन से उसे हलफनामा लेना होगा कि वह इन उपकरणों का इस्तेमाल भ्रूण के लिंग चयन के लिए नहीं करेंगे।

अतः अगर हम उपरोक्त विवरण का अध्ययन कर इसका विश्लेषण करें तो हम पाएंगे कि लिंगानुपात में समानता लाने पीसी-पीएनडीटी कानून 2003 में संशोधन सहित मिशन मोड पर काम करनें की जरूरत। लिंगानुपात असंतुलन की बढ़ती खाई को मिटाने केंद्र और राज्यों को मिलकर काम करने की जरूरत। बढ़ती लैंगिक असमानता को दूर करने, जन भागीदारी के साथ पीसी-पीएनडीटी अधिनियम में संशोधन की जरूरत को रेखांकित करना जरूरी है।

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