कोलकाता। ‘पश्चिम बंगाल राज्य विश्वविद्यालय’, बारासात एवं ‘अपनी भाषा’ संस्था द्वारा एकदिवसीय राष्ट्रीय संगोष्ठी का आयोजन पश्चिम बंगाल राज्य विश्वविद्यालय के ऑडिटोरियम में किया गया। विषय था- “सामाजिक विकास और भाषाई अस्मिता” सामाजिक विकास और भाषाई अस्मिता’ विषयक संगोष्ठी की अध्यक्षता कर रहे थें। वरिष्ठ आलोचक व कलकत्ता विश्वविद्यालय के पूर्व विभागाध्यक्ष प्रोफेसर डॉ. अमरनाथ मुख्य वक्ता के रूप में दिल्ली से पधारे वरिष्ठ आलोचक बजरंग बिहारी तिवारी उपस्थित थे एवं विशेष वक्ता के रूप में संस्था के सदस्य जीवन सिंह उपस्थित थे।
उद्घाटन सत्र का शुभारंभ ‘पश्चिम बंगाल राज्य विश्वविद्यालय’ के कुलपति प्रो. राजकुमार कोठारी व अन्य अतिथियों के द्वारा दीप प्रज्ज्वलित कर किया गया। ‘अपनी भाषा’ संस्था के महासचिव डॉ. सत्यप्रकाश तिवारी ने स्वागत वक्तव्य देते हुए कहा कि आज के दौर में सामाजिक विकास में भाषाई अस्मिता बहुत जरूरी है। अपनी ‘भाषा संस्था’ भारत के प्रत्येक जातीय भाषा के उन्नति व विकास के लिए कर्तव्यबद्ध है और रहेंगी।
उद्घाटन सत्र में कुलपति डॉ. राजकुमार कोठारी ने कहा कि “समाज में सामाजिक विकास का सूचक रोटी, कपड़ा, मकान को माना गया है। उसमें शिक्षा और भाषा भी विशेष रूप से जुड़ा हुआ है। हमें अपनी भाषा में ही अपनी पहचान, अपने अस्तित्व को तलाशने की आवश्यकता है आने वाले समय में यही हमें सफलता का मार्ग प्रशस्त करेगी।”
व्याख्यान सत्र के आरंभ में अपनी भाषा के सदस्य व शिक्षाविद जीवन सिंह ने वक्तव्य का आरंभ करते हुए कहा कि यह बंग-भूमि भाषा के अस्तित्व के लिए अपनी अलग स्थान रखता आया है। उन्होंने रविन्द्र नाथ टैगोर, भारतेन्दु हरिश्चन्द्र, सुबोध सरकार, माइकल मधूसुदन दत्त आदि के भाषा संबंधित विचारों को साझा करते हुए कहा कि ये सभी विद्वान निज भाषा के महत्व को आरम्भ से ही देशवासियों तक पहुँचाने के लिए प्रयत्नशील थें। माईकल मधूसुदन दत्त बंगला भाषी होते हुए भी अंग्रेजी में लिखते थें किन्तु अंत में उन्होंने भी कहा है कि “हम जीवन भर अन्य भाषाओं में भिक्षाटन करते रहें पर हमारे रत्न तो अपनी भाषा में ही हैं।”
वरिष्ठ आलोचक बजरंग बिहारी तिवारी ने वैश्विक परिप्रेक्ष्य में भाषाई अस्मिता और सामाजिक विकास पर बात की। उन्होंने संस्कृत साहित्य से लेकर आधुनिक काल के सभी कवियों के आधार पर भाषा के शक्ति को पहचानने की बात की। उन्होंने कहा कि भाषा में इतनी शक्ति है कि वह ईश्वर को रच सकता है मूलतः भाषा ने ही ईश्वर को रचा है। अगर हम माने कि संस्कृत भाषा एक काया है तो तमाम लोक भाषाएँ उसके प्राण तत्व हैं। जिस प्रकार स्वतंत्रता को पाने के लिए हमारी भाषाई एकता जरूरी थी ठीक उसी प्रकार स्वराज को बनाए रखने के लिए भाषाई एकता को बचाए रखना जरूरी है।”
संगोष्ठी में चर्चित शिक्षाविद व भाषा चिंतक प्रेमपाल शर्मा का आना तय था। व्यक्तिगत कारणों से वे कार्यक्रम में उपस्थित न हो सकें किन्तु ऑनलाइन माध्यम से वे कार्यक्रम में जुड़े। प्रेमपाल शर्मा ने भाषा की वर्तमान स्थिति पर चिंता प्रकट की। उन्होंने कहा “हमें भाषा को लेकर थोड़ा उदार होने की आवश्यकता है। हमें भाषा किसी पर थोपना नहीं चाहिए। भाषा को लेकर तत्पर रहना बेहद जरूरी है।
वर्तमान पीढ़ी सामाजिक विकास को लेकर संवेदनशील है वो उदार भी है। हममें से अधिकांश लोग अभी भी अंग्रेजी भाषा में हस्ताक्षर करते हैं पता भी अंग्रेजी में लिखते हैं। जब तक हम यह गुलामी करते रहेंगे तब तक भाषाई अस्मिता की रक्षा नहीं होगी। हमें सभी भारतीय भाषाओं को स्वतंत्र छोड़ देना चाहिए। हिन्दी को भी शुद्धता के नाम पर मारना नहीं चाहिए। हिन्दी में थोड़ी लोक भाषाएँ हों, थोड़ी उर्दू हों, थोड़ी अन्य भारतीय भाषाओं का मिश्रण हों, तभी उसकी जीवंतता बनी रहेगी।”
अध्यक्षीय भाषण में डॉ. अमरनाथ ने अपने दक्षिण अफ्रीका की यात्रा के अनुभव को साझा करते हुए कहा कि “उस देश में उन्होंने एक बहुत बड़ी पुस्तकालय देखी किंतु उस पुस्तकालय में वहां की लोक भाषा में रचित एक भी पुस्तक उन्हें नहीं मिली। इससे आप अनुमान लगा सकते हैं कि भाषा की किस तरह तेजी से मर रही है।
सभी देश अपनी अपनी भाषा को जीवित रखने के लिए, उसकी उन्नति के लिए प्रयासरत हैं वे अपने देश में अपनी भाषा को विशेष महत्व देते हैं सारे कार्य वहाँ की राष्ट्र भाषा में ही हुआ करते हैं। भारत ही एक ऐसा देश है जहां उसकी अपनी राष्ट्रभाषा नहीं है। जिसका लाभ विदेशी भाषा उठाते हैं। इसका सीधा कारण यह भी है कि हमारे राजनीतिक पार्टियों के मेनिफेस्टो में भाषा मुद्दा बना ही नहीं। इससे अंग्रेजी अभी भी अपना वर्चस्व बनाए हुए हैं। इससे भारतीय भाषाओं का महत्व कम हो रहा है।
जब तक भारतीय भाषाओं का विकास नहीं होगा तब तक हमारी जातीयता का भी विकास नहीं होगा। दूसरे की भाषा के बल पर हम अपना विकास नहीं कर सकते। इसकी कल्पना भी नहीं की जा सकती। उन्होंने न्यायालय के संबंध में कहा कि जब तक हम दूसरों की भाषा में अपना न्याय करेंगे तब तक हम अपने अस्तित्व के न्याय से अनभिज्ञ रहेंगे।
उन्होंने कहा कि भाषाएं मर रही हैं अगर भाषाएं मर जाएंगी तो हमारी जाति भी मर जाएंगी और हमारा अस्तित्व भी समाप्त हो जाएगा। संगोष्ठी में शोधार्थीयों द्वारा शोध-पत्र प्रस्तुत किए गये। जिसमें शोधार्थी रीता दास झा, सुमन शर्मा, श्रद्धा गुप्ता, राजकुमार मुख्य थे। कार्यक्रम का धन्यवाद ज्ञापन पश्चिम बंगाल राज्य विश्वविद्यालय, बारासात के असिस्टेंट प्रोफेसर डॉ. विनोद कुमार ने किया। संचालन लिली साह द्वारा किया गया।
कार्यक्रम में ‘अपनी भाषा’ के अध्यक्ष व पश्चिम बंगाल राज्य विश्वविद्यालय के हिन्दी विभाग के विभागाध्यक्ष डॉ. अरुण होता सहित विशेष सहयोगीयों के रूप में डॉ. हिमांशु कुमार, डॉ. ऋषिकेश सिंह, डॉ. बिक्रम कुमार साव, डॉ. नीलकांत, डॉ. गणेश रजक, रूद्रकान्त झा, डॉ. रचना पाण्डेय, सुरेश प्रजापति, इबरार खान, स्वेता शर्मा, मनोज कुमार दास, अरूण कुमार तिवारी, अजय कुमार चौधरी, संतोष यादव, विशाल साव, डॉ. आनन्द श्रीवास्तव, विदिप्ता, राहुल सिंह, आकाश साव, सावनि, अनुज कुमार पंडित, बिक्रम, अंकित, जयमंगल, रिमझिम आदि सहित भारी मात्रा में विद्यार्थी, शोधार्थी व अध्यापक, प्राध्यापक उपस्थित रहे।
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