आज ही खबर मिली है कि मेरा एक मित्र (अब तो ‘मित्र’ कहेंगे ही) चुनाव जीत कर मंत्री बन गया है। यह खबर मेरे लिए हिरोशिमा पर गिराए गए परमाणु बम से कम भयानक नहीं है। कुछ वर्ष पूर्व ही उससे मेरी मुलाकात एक साधारण सभा में हो गई थी। अपनी बेबाक मर्जी के अनुसार और मजाक के लिहाज में ही मैंने लोगों के समक्ष ही उसकी विगत क्रिया-कलापों पर प्रकाश डालते हुए उसका चरित्र हनन कर बैठा। भाई, मैं कौन-सा दूरदर्शी हूँ कि उसके मंत्री बनने की बात को पहले ही जान लेता, सो कर दिया। अगर दूरदर्शिता की वह दिव्य शक्ति मुझे प्राप्त हुई होती, तो क्या मेरे जैसा निरीह प्राणी इतनी हिम्मत कर पता? कदापि नहीं, सवाल ही पैदा नहीं होता है।
उधर वह चुनाव जीता, तो पूरे अंचल भर में कई दिनों तक रंग-अबीर उड़ते रहे और मंत्री पद को प्राप्त करते ही कई सप्ताह तक उसके नाम पर उस अंचल भर में क्विंटल पर क्विंटल लड्डू बंटते रहे I कई दिनों तक तो ‘सोमरस’ लोगों की प्यास बुझाने वाले पेयजल के पाइपों में ही अविरल बहने लगे। अंचल के अनेक लोग उस पवित्र ‘सोमरस’ की अविरल धारा में गोते लगा-लगा कर जी भर तन और मन को तृप्त करते रहें। कई लोग तो भविष्य के प्रति सजगता दिखाते हुए अवसर का लाभ उठा कर मिट्टी के अपने बड़े-बड़े घड़ों को खाली कर उसमें उस ‘सोमरस’ को भर-भर कर घर-बाहर और पता नहीं कहाँ-कहाँ छुपा दिए है। अब रोकने वाला ही कौन था, ‘भईया हो गईले मंत्री, तो अब डर कहे का?’
पहले के अपने लल्लू-पंजू मित्रों से उसने दूरी बना ली है, जबकि शहर के कई धनाढ्य और बड़े व्यापारी उसके मित्र-मंडली में शामिल हो गए हैं। सबसे बुरा हाल तो उस रईस व्यापारी का हो गया है, जिसने तीन वर्ष पहले अपने दफ्तर से उसे आर्थिक अनियमितता में दोषी पाए जाने के कारण निकाल दिया था। फिर गुंडा-गर्दी का भी दौर चला, कई दिनों तक थाना-पुलिस भी हुई। पर निकाल दिया, तो निकाल ही दिया। अब सुनने में आया कि उस रईस व्यापारी के आफिस की सबसे उपरी मंजिला गैर-कानूनी है।
उसे तोड़ने के लिए दो-तीन बार सरकारी नोटिस भी मिल चुकी है। ‘मरता क्या न करता’ को चरितार्थ करते हुए अब वह प्रायः हर दिन ही सुबह-सुबह कीमती मिट्ठाइयों के बड़े पैकेट के साथ ‘मंत्री महोदय’ के दिव्य दर्शन पाने और पूजा-अर्चना कर कुछ प्रसाद चढ़ाने की लालसा में अपने नैराश्य और मलिन चहरे को लिये उसके आफिस के सामने घर त्यागी योगी स्वरुप दिखाई दे ही देता है।
प्रारम्भ में ही मैंने अपने मन की भयजनक स्थिति का जिक्र आपसे किया ही, अब तो मैं भी अपनी रोजी-रोटी और अपने परिजन के भरण-पोषण के लिए चिंता से अति ग्रस्त हूँ। हुआ यह कि जिस फ़ार्म में मैं नौकरी करता हूँ, उसके मालिक को भी उस मंत्री ‘मित्र’ के दफ्तर में कई बार आते-जाते देखा हूँ। जब-जब मेरे मालिक से मेरी सामना हुई है, तब-तब उन्होंने मुझे नफरत की निगाहों से ही देखा है।
दो-तीन बार अकारण ही अपने दफ्तर में बुला कर उन्होंने मेरी क्रिया-कलापों के बारे में मुझे कुछ कड़वी घूंट भी पिला चूके हैं। शायद मंत्री ‘मित्र’ ने मेरे द्वारा उसके प्रति किये गए दुर्व्यवहारों की बातों से उन्हें अवगत करवा दिया है। मैंने कई बार चाहा कि उस मंत्री ‘मित्र’ से मिलकर अपनी करनी की माफ़ी माँग कर मामला रफा-दफा कर लूँ। आखिर जंगल में रह कर जंगल के मालिक से बैर कहाँ तक सम्भव है? पर हर बार निराशा ही हाथ लगी है।
हर बार उसके मुश्टंडे मुझे देखते ही खूँखार ‘पिट बुल’ कुत्तों की भांति सिर्फ मुझ पर गुर्राए ही नहीं, बल्कि मुझे दूर तक रगेदे भी हैं। नतीजन, हताश की जिन्दगी जी रहा हूँ I प्रतिपल कुछ अनहोनी की बातें मुझे सताती रहती है। क्या करूँ, एकदम अकेला पड़ गया हूँ। ऐसी विपदा में मेरे कई मित्रगण भी मुँह फेर लिए हैं। घर-परिवार वाले भी अक्सर मेरी बुद्धि की दुहाई देते ही रहते हैं और उस पल को जी भर कोसते ही रहते हैं।
चलिए यह तो होना ही था।
इसमें कोई दो राय नहीं, आदमी को पहचानने में मुझसे बहुत भारी चूक हो ही गई। ‘शिक्षित होने की मानसिकता’ जो न करवाए। इसीलिए भाई, अपने सामने के गंवार से गंवार व्यक्ति को कभी भी कमजोर नहीं समझना चाहिए। उसके नेता बनने में कोई संदेह नहीं है। बल्कि नेता या मंत्री बनने के सर्व गुण उन्हीं में समाहित हैं। इसीलिए हर एक के सम्मुख अपने हाथों को जोड़े, सिर को झुकाए ससम्मान प्रणाम करते रहना चाहिए। पता नहीं, वह कब नेता बन जाय, कब चुनाव जीत जाय और कब मंत्री बन जाए। देश में दर्जनों उदाहरण बने पड़े हैं। अब तो मैं ‘दूध का जला, मट्ठा ही नहीं, बल्कि पानी भी फूंक-फूंक कर ही पीता’ हूँ।
अब तो अपनी गली के कमजोर से कमजोर सिर्फ आदमी ही नहीं, बल्कि कुत्तों को भी बहुत ही अदब से दोनों हाथों को जोड़े और शीश को झुकाये प्रतिदिन प्रणाम करने लगा हूँ। पता नहीं, कब इनका समय बदल जाए और ये नेता या मंत्री बन जाएँ। अगर आदमी शिक्षित है, तो उसे कमजोर और कायर समझने में कोई ‘रिस्क’ नहीं है। बहुत करेगा, तो वह कठिन शब्दों और नीतिगत बातों की कच्ची दीवार पर खड़े होकर कुछ देर भौंकेगा। परेशान करेगा जरुर, पर अक्षरतः सत्य है कि वह कटेगा नहीं। काटने वाले उसके पैनी दांत शिष्टाचार के हथौड़ों से कब के तोड़े जा चूके हैं।
लेकिन अगर कोई अशिक्षित सामने पड़ जाए, तो सदैव उससे डर कर रहिये। वह भौंकेगा कम, काटेगा ही ज्यादा। उसे मान-सम्मान की क्या परवाह? बात-बात में वह अपने नुकीले दांतों का प्रयोग करते ही रहता है। उसका ‘रैबिश’ भी बहुत ही तेज फैलता है, जिसके प्रभाव से केवल आप ही नहीं, वरन आपका पूरा परिवार भी नहीं बच सकता है।
कोई भी वोट याचक प्रार्थी चुनाव के पहले तक ही जनता का सेवक और सुश्रोता हुआ करता है। आपका ऐसा कोई भी काम नहीं, जिसे वह चुनाव जीतने के बाद न कर देवे। वह तो आपके लिए चन्द्रमा पर भी आशियाना बनवा देगा, पर चुनाव जीतवाने के बाद ही और चुनाव जीतते ही वह जन साधारण का मालिक बन बैठता है। अब उसे जनता की आवाजें कर्कश लगने लगती हैं। उनके गिड़गिड़ाते मासूम चहरे से उसे उकाई आने लगती है।
उसके सारे वादें सब्जबागी सिद्ध होने लगते हैं। फिर अगर वह मंत्री बन गया, तो फिर उसकी बात ही क्या कहना? वह तो सातवें आसमान का स्वामी बन जाता है, जहाँ से उसे साधारण जनता चिट्टियों या कीड़ों से दीखते हैं। अब आप सातवें आसमान पर भला कौन-सी सीढ़ी लगा कर जाइयेगा? कुछ दिन मन ही मन उसे कोस कर शांत हो जाइएगा और क्या कीजियेगा? अजी बहुत कीजियेगा, तो अगली चुनाव में उसे मजा चखाने का संकल्प ही तो लीजियेगा।
पर अगली चुनाव में वह भी आपको चन्द्रमा पर नहीं, बल्कि सूरज पर आपकी आशियाना बनाने का ख्वाब दिखायेगा। जिसमें विगत मान-अपमान की आपकी सारी बातें पानी के बुलबुले साबित होंगे। क्या मैं गलत कह रहा हूँ? आप ही बताइए न, पिछले चुनावों में आपको कितने आश्वासन दिए गए थे। पूरे कितने हुए? लीजिये, क्या हुआ? अब तो शायद आपको ख्याल ही नहीं है। एक भी पूरे नहीं हुए हैं। क्या मैं गलत कह रहा हूँ? ठीक भी है, त्याग की धारा तो सदैव जनता के घर से ही निकलनी चाहिए, कि नहीं? नेताओं और मंत्रियों से ऐसी उम्मीद लगाये रखना गैर-कानूनी ही तो है।
चुनाव जीतते और मंत्री बनते ही नेताओं की आँखों की ज्योति दूरगामी हो जाती है, जिससे अब हजारों की भीड़ वाली झील में भी बड़ी-बड़ी मछलियों को वे तुरंत ही पहचान लेते हैं और फिर अपना खाना-पीना भूल कर अपने अन्तः प्रकोष्ठ में उन्हें बुला कर अपने उपयुक्त सेवा के बदले उन्हें भी उपयुक्त सेवा प्रदान करने में रात-दिन एक कर दिए रहते हैं। फिर भी गंवार जनता सोचती है कि उनका नेता कोई काम ही नहीं कर रहा है। आप सबकी सोचने की परिसीमा ही इतनी सी है, बस! अपने नहीं फले-फूले, तो किसी और को भी आप फलते-फूलते नहीं देख सकते हैं। यह आदत गलत है, इसे शीघ्रता से बदलिए, वरना आपका जीना दुर्भर हो सकता है।
अब मेरे उस मंत्री ‘मित्र’ की निरंतर सेवा-धर्म को ही देखिए, जो काम कई वर्षों में होता, उसे तो वह कुछ महीनों में ही करके कीर्तिमान स्थापित किया है। आप सब जनता को क्या दिखाई नहीं देता है? उसके कई धनाढ्य नवागत मित्र जिला स्तर के बड़े ठीकेदार बन गए हैं। आखिर किसके लिए? आपके भाग्य को सुदृढ़ बनाने के लिए दो को ‘पेट्रोल पम्प’ के लाइसेंस प्राप्त हो गए, आखिर किसके लिए? क्या उसके स्वयं के लिए? नहीं, कदापि नहीं, वह भी आपके लिए।
क्या जीवन भर आप साइकिल ही चलाएंगे, कभी मोटर साइकिल या फिर कारगाड़ी न लेंगे, तब उसमें ‘पेट्रोल’ भरवाने दस किलोमीटर दूर जायेंगे? फिर आपकी इज्जत क्या रह जायेगी? एक को ‘प्राइवेट डाक्टरी कालेज’ बनाने का और एक अन्य को ‘मल्टी सुपर स्पेशलिस्ट’ अस्पताल बनाने के लाइसेंस प्राप्त हो गये हैं। आखिर वह भी किसके लिए? केवल आपके लिए! जब आप बीमार पड़ें, तो सरकारी अस्पताल के गंदे वातावरण को सहन ही क्यों करें? सुन्दरी नर्सों सहित एशो-आराम और एयर-कंडीशन के सुखों का उपभोग करें। बीमारी में भी नया अनुभव प्राप्त करें। क्या होगा? कुछ ‘बिल’ ही अधिक होंगे न, कोई बात नहीं।
आपकी खेती और जगह-जमीन किस दिन काम आवेंगी। उसे क्या अपने साथ श्मसान घाट या कब्रिस्तान ले जायेंगे? अरे भाई! जान है, तो जहान है। अपनी संतानों के लिए क्यों चिंतित होते हैं, “पूत कपूत तो का धन संचै, पूत सपूत तो का धन संचै” आपने सुना ही है। मेरे मित्रों, मैंने अपनी बातें बहुत ही हिम्मत करके आप सब से साझा किया है। पर आप सभी स्मरण रखें, ये बातें मेरे उस मंत्री ‘मित्र’ तक न पहुँचने पाए। कारण आप सभी जानते ही हैं।