मैं और मेरी रचनाएं…

विनय कुमार शुक्ला, नैहाटी । जीवन के हर रंग को व्यक्त करने का हर व्यक्ति का अपना एक अलग अंदाज होता है, मेरा भी है। पता नही किशोरावस्था की बदमाशियों का असर है या मेरे अंदर का सर्जक जो मुझे जीवन के हर मोड़ पर आने वाली उलझनों और बेतरतिबियों के बीच उन घटनाओं को किसी फिल्मी गीत जोड़ते हुए संदर्भ के अनुसार गीतों में कुछ फेरबदल कर पैरोडी जैसे कुछ रचकर और उसे गुनगुनाकर मन को प्रफुल्लित कर लेता हूं, पर दिक्कत तब आती है जब बच्चे भी उन बिगड़े गीतों के बोल सुनकर बिफर उठते हैं। एक तो बेसुरी आवाज और ऊपर से गानों के बोल बदल कर गुनगुनाना। पर करूं भी तो क्या ये दिल है की मानता ही नहीं।

vinay shukla
लेखक : विनय कुमार शुक्ल

अक्सर इस प्रकार की रचनाएं खुद और अपने जानने वालों के जीवन पर आधारित होती हैं। पर कभी कभी वर्तमान घटनाओं से प्रेरित बोल भी फूट पड़ते हैं। वह जमाना कुछ और था जब राजू श्रीवास्तव लालूजी के सामने खड़े होकर उनकी भावभंगिमा और बोलचाल की शैली को व्यंग्य या हास्य में बदल देते थे पर उनका स्वागत तालियों और मुस्कुराहटों से होता था। अब तो ऐसे फनकार तत्काल धरा जाते हैं और फिर लंबे दिनों के लिए कपटों के पीछे बंद कर दिए जाते हैं। यह धराने, कुटाने और फिर कारागार में फोंके जाने के भय से ऐसी घटनाओं को मैंने कलमबद्ध करने का प्रयास नहीं किया। पर मेरे जीवन में घटी हाल ही की एक घटना से मुझे उसे कलमबद्ध करने के लिए मजबूर कर दिया।

मेरी पत्नी AIIMS भुवनेश्वर में आईसीयू में भर्ती थीं। जीवन का कोई भरोसा नहीं था कि कब क्या हो जाए। ऐसे में मेरी भावनाएं और धर्म यही कहते हैं कि मैं उनके पास ही रहूं। सरकारी नौकरी में होने के कारण खाते में इतनी छुट्टियां भी नहीं बची हैं कि अधिक दिनों तक छुट्टी पर रह सकूं। यदि लंबी अवधि तक पत्नी के पास रहा तो नौकरी में खलल अर्थात लीव विदाऊट पे, या अनुशासनात्मक कार्रवाई झेलने का खौफ और यदि नौकरी पर वापस जाता हूं तो पत्नी को कौन देखे?

बड़ी असमंजस की स्थिति जाऊं तो जाऊं कहां। ऐसी परिस्थिति में मुझे किस ओर जाना चाहिए यह तो आप लोग मुझे बताएंगे ही, पर इस परिस्थिति में मनोज कुमार की एक फिल्म का गाना याद आ गया जिसमें सावन के महीने में नायिका का प्रेम निवेदन नायक केवल इसलिए ठुकराए जा रहा था कि बारिश में उसकी डिग्रियां न भीग जाएं और उसे नौकरी मिलने में दिक्कत आ जाए। सावन का महीना वह भी और मैं भी सावन के महीने में यह विषम परिस्थिति झेल रहा हूं। मेरे मन के रचनाकार ने तत्काल उक्त गीत के कुछ शब्दों को तोड़मरोड़ कर एक नए अंदाज में प्रस्तुत कर दिया।

हाय कैसी ये मजबूरी,
ये हालत और ये दूरी
तेरी दो टकिए की नौकरी
मेरा जीवन डूबा जाए
हाय-हाय रे मजबूरी,
नौकरी का है क्या भरोसा
आज मिले कल छूटे
कल छूटे
ऐसी हालत में मुझे
बलमा छोड़ न जाओ…
हाय कैसी ये मजबूरी,

हालांकि ऐसी रचना करते समय मन के किसी कोने में यह भय तो अवश्य रहता है कि कहीं कूटासन या डंडा परेड या और कुछ न हो जाए पर अब जब शुरू कर ही दिया तो फिर धारा बह चली। इसी क्रम में एक राजनैतिक घटना पर कुछ गुनगुनाने का मन किया तो कलियुग के पार्थ पर सटीक बैठती एक गजल याद आ गई :
ये दौलत भी ले लो, ये शोहरत भी ले लो
चाहे छीन लो मुझसे एमएलए की पदवी,
मगर मुझको दिलवा दो कैसे भी बेल भाई…

हालांकि इन पर एक और गीत फबेगा
अगर तुम मिल जाओ,
विधायकी छोड़े देंगे हम…
रोज की घटनाओं पर अक्सर ऐसे गानों की झड़ी फूट पड़ती है अब सोचता हूं कि उन्हें कलमबद्ध कर आपके सम्मुख प्रस्तुत करता चलूं। आपकी क्या राय है??

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