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प्रफुल्ल सिंह “बेचैन कलम”। प्रेम ऐसे धँसता है जैसे धँसती है साँझ की धूप पानी की सतह पर। रंग बदल जाता है। पूरी सतह लाली का बिछावन हो जाती है। चुपचाप गाढ़ा प्रतिबिम्ब बैठ जाता है। जो धूप चली भी गई, तो भी उसका धातु रह जाता है। धूप के चले जाने भर से, धूप की गरिमा नहीं जाती। वह विरह बनकर धिकती है। विरह गरिमा है। पाये की गरिमा! विरह प्रमाण है इसबात का कि आदमी से उसकी ही पहचान हो चुकी है। वह इसे झुठला नहीं सकता। प्रेम तो उपासना है। स्वयं के समीप बैठने को हो आने का आयोजन। और इसका कोई प्रयोजन भी नहीं। प्रेम हो आया तो प्राप्ति हो आयी। प्राप्ति तो प्रेम का परिधान है।
इस जगत में देह की भी अपनी धारणा है। यह जगत देह से ही पहचाना जाता है। हमारे ज्ञान में किसी भी व्यक्ति वस्तु की सदेह पहचान ही पहले जाती है। किन्तु देह तो मात्र उस विदेह को ही अभिव्यक्त करता है। स्पर्श देह का होता है पर अनुभूति तो उस विदेह को होती है न। और कितनीं ही बार तो अनुभति के लिए किसी दूसरे की उपस्थिति की आवश्यकता भी नहीं होती। देह तो उसकी आत्यन्तिक पहचान को पहुँचाकर चला जाता है। किन्तु उस पहचान में जो विदेह चलकर आया था, वह रह जाता है। प्रेम तो इसी विदेह का अनुभावित अनुभव है। प्रेम का कोई दूजा ठौर नहीं।
विरहिणी तो जागती है। नींद उसकी ठौर कहाँ! वह सोये भी तो जागतिक नींद उसमें कहाँ उतरती है। इस पूरे अस्तित्व में जिसका बस एक ही ठौर हो, वह नींद में भी ठौर कहाँ पाता है। वह तो सोते हुए भी जागता है। एकएक क्षण जिसमें सञ्च जाय, वह प्रेमी। रात उसके सिरहाने आकर घूरती है। दिन उसके सीने पर चढ़कर बैठता है। जोगी घूमता है द्वारद्वार। प्रेमी थिर जाता है। जैसे बाली फूटने को हो आया पौधा थिर हो जाता है। जो उसके देह की अबतक की सञ्चना थी, वह चुपचाप बाली की हुई। वह अब प्राण हो गया। जीवनचक्र का अनकहा और अनदेखा धूतपाप।
इस जीवन का सबसे पवित्र अनुभव है प्रेम। प्रेम ही वह अपलीन है जिसमें देहैषणा विलीन हो जाती है। प्रेमी जो न रहे तो जागने की उपयोगिता कभी रह जावेगी भला! और यह जागना भी तो नींद को सोते हुए देखना होता है। ज्यों राततारे जागकर आकाश को सोते हुए देखते हैं। तारे तो बस अपनी परिधि के आकाश ही होते न। ऐसे ही सबके अपने आकाश। सबके अपने तंक। सबकी अपनी भुक्ति। और उतनीं ही सबकी मुक्ति। मुक्ति का अन्तिम आश्रय कहाँ! जो मुक्ति भी होवे तो वह मुक्ति ही जितनीं क्यों रह जावे। मुक्ति भी तो कोई पहुँच ही है।
तब अन्तिम कहाँ जावे कोई! आदमी कहीं भी चला जाय पर उसकी समस्ततता उसे कहाँ जाने देगी। वह तो उसके साथ चलती रहेगी। ज्यों चलती रहती है परछाहीं अनाहट, बिना व्यवधान। पता नहीं ऐंद्रिय और अतीन्द्रिय दोनों के तल पर क्या भिन्न घटता है। क्या दिखता है और क्या व्यक्त होता है। और क्या अव्यक्त होकर बस भीतर कूहता रहता है,जिसे कि शब्द का साथ नहीं मिल पाता। शब्द भी तो कईबार ऐसे लौट जाते हैं जैसे लौट जाते हैं बादल बिना किसी शोर के। बिन बरखा के। ज्यों उन्हें वह अनुपात मिला ही नहीं कि बरस सकें। तब हृदय भीजता है। उसकी धार बाहर नहीं गिरती। वह तो बस भीतर बहती रहती है। जैसे अन्तरिक्ष बहता है इस अस्तित्व में बिल्कुल चुपचाप!
आकाश और धरती के बीच प्रकाश का अन्तराल है। पानी अब भी तालाब का ही है। धूप उसमें घर गयी है। धूप का मन्तव्य पानी को बदलना नहीं है। पानी भी धूप को अपने में अमा लेता है। तालाब तब भी तालाब जितना ही रह जाता है। प्रेम कोई परिमाप, किसी परिणाम को बदलने की चेष्टा करता भी नहीं, वह तो मात्र इतनीं योग्यता भर देता है कि हर परिवर्तन में जो अपरिवर्तनीय है, उसमें होने की पात्रता हो आवे।
मैं इसी साँझ के धूप की तरह धँसता हूँ। मेरा प्रेम मुझे पानी की भाँति अपना लेता है। विरक्ति में भेद का अभेद बचा रह जाता है। और बच जाता है मेरा विरह। जिसकी गरिमा में मैं अपनी नियति को पुकारता हूँ।
और अन्त में — हम सभी ‘प्रेम ज्योत से ज्योत मिलाय’ लें, इसी शुभेच्छा के साथ… नभ भर नमन
प्रफुल्ल सिंह “बेचैन कलम”
युवा लेखक/स्तंभकार/साहित्यकार
लखनऊ, उत्तर प्रदेश
ईमेल : prafulsingh90@gmail.com