साहित्य जीवन जीने की कला है!

मौसमी प्रसाद, छात्रा, छठा सत्र, सेंट पॉल्स कैथेड्रल मिशन कॉलेज

कोलकाता : हालांकि यह तो सभी को पता है कि साहित्य क्या है? लेकिन फिर भी मैं कहना चाहूँगी कि साहित्य एक ऐसा विषय है जिसमें हम काव्य, महाकाव्य के साथ-साथ कहानी, नाटक, उपन्यास, निबंध, एकांकी आदि कई विधाओं को पढ़ते हैं। साहित्य ना ही तालाब है, ना ही एक कुआं है, ना ही एक नदी है, ना ही एक समुंद्र, साहित्य तो वह महासागर है जिसमें हर एक चीज समाई हुई है। साहित्य का फलक बड़ा व्यापक है।

साहित्य कई सारी भाषाओं में लिखी गई है जैसे हिंदी, बांग्ला, अंग्रेजी, फ्रेंच, मराठी, उर्दू, पंजाबी आदि। विश्व में जितनी भाषाएं हैं उन सभी का अपना एक साहित्य एवं इतिहास है। उसी प्रकार हिंदी भाषा का भी अपना एक साहित्य एवं इतिहास है। आज के वर्तमान में समय में भी हम साहित्य की विभिन्न विधाओं को पढ़ते हैं और साथ ही साथ पुराने समय के साहित्य को भी हम आज के समय में पढ़ते हैं- जैसे कि हिंदी का आदिकालीन साहित्य। यदि शुक्ल जी के अनुसार हम देखे तो हिंदी साहित्य को चार खंडों मे उन्होंने विभाजित किया है।

आदिकाल, (जिसे वीरगाथा काल भी कहा जाता है। ) भक्तिकाल, रीतिकाल और आधुनिक काल। इन चारों कालों की अपनी एक अलग विशेषता रही है। आदिकालीन साहित्य की रचना को यदि हम पढ़े तो उसमें हमें सरहपा, पुष्पदंत, स्वमभूं, चंद्रबरदाई आदि रचनाकार मिलेंगे एवं उनकी श्रेष्ठ रचनाएं मिलेंगी। जैसे चंद्रवरदाई द्वारा लिखित ‘पृथ्वीराज रासो’ जिसमें हमें पृथ्वीराज रासो के त्याग-बलिदान एवं युद्ध की विवरण मिलता है।

इसके बाद यदि हम भक्तिकाल में आए तो भक्ति काल के महान रचनाकारों में कबीरदास, सूरदास, तुलसीदास जी का नाम बड़े आदर के साथ लिया जाता है। कबीरदास जी की रचनाओं में समाज को सुधारने की एवं समाज की कुरीतियों को मिटाने की भावना दिखती है। उन्होंने कई सारे दोहे लिखे हैं। यहाँ मैं एक उदाहरण में प्रस्तुत करती हूँ:-
“मल मल धोए शरीर को, धोए न मन का मैल।
नहाए गंगा गोमती, रहे बैल के बैल ।।’’

वही तुलसीदास की रचना को हम देखे तो उनका भी रचना संसार बहुत बडा है। रामचरितमानस उनकी सबसे श्रेष्ठ रचना है जो आज भी लोगों के हृदय में बसा हुआ है। रामचरितमानस भारतीय समाज का अभिन्न अंग है। वही सूरदास जी ने उस सामंतवादी समय में भी स्त्री पुरुष की मित्रता हो सकती हैं यह बात उनके रचित पदों में दिखता है।

कृष्ण और गोपियों के संबंध द्वारा सूरदास ने प्रेम को सामंती सोच से मुक्ति प्रदान की। इस कालखंड में मीरा जी का नाम भी बड़े आदर सम्मान के साथ लिया जाना चाहिए क्योंकि आज के स्त्री विमर्श के दौर में, जहां स्त्रियाँ सारे बंधनों को तोड़ रही हैं वहीं मीरा अपने मध्यकाल के उस सामंती दौर में जब स्त्री स्वतंत्रता की बात भी नहीं सोच सकता था।

उन्होंने एक राजघराने के सामंती स्त्री होने बावजूद भी उन्होंने उस समय के सारे सामाजिक बंधनों एवं दबावों को ठुकराकर विद्रोह का स्वर बुलंद किया। उसके बाद सामंती समाज में रीतिकालीन साहित्य में देखे तो बिहारी, घनानंद आदि रचनाकारों का अपना एक अलग वर्चस्व रहा है। बिहारी जी के दोहे तो इतने श्रेष्ठ है कि वह गागर में सागर भरने की संज्ञा से नवाजे गए हैं। उनके बारे मे़ एक कहावत मशहूर है-
“सतसैया के दोहरे ज्यौ नाविक के तीर।
दैखन में छोटन लगे, घाव करे अति गम्भीर।।’’

मध्ययुग के बाद हम देखें तो आधुनिक युग में हिंदी हिन्दी का विकास बड़ी तेजी से हुआ। इस युग का साहित्य अपने पूरवर्ती साहित्य से एकदम अलग है। इस युग में काव्य के साथ-साथ गद्य की विभिन्न विधाओं का विकास हमें देखने को मिला है। भारतेंदु युग से लेकर द्विवेदी युग, छायावाद, प्रगतिवाद, प्रयोगवाद, समकालीन कविता, साठोतरी कविताएँ आदि का विकास बहुत ही तेजी से हुआ है।

इस दौर में भारतेंदु हरिश्चंद्र, प्रताप नारायण मिश्र, हरिऔध, मैथलिशरण गुप्त, जयशंकर प्रसाद जैसे महान रचनाकारों ने अपनी श्रेष्ठ रचनाओं से हिंदी साहित्य को समृद्ध किया। आज भी हम उनके द्वारा लिखे गए कविताओं कहानियों, उपन्यासों निबंध आदि को हम पढ़ते हैं। इन्हीं सबके बीच में प्रेमचंद जी की अलग पहचान है ।

प्रेमचंद द्वारा रचित निबंध ‘साहित्य का उद्देश्य’ में पहली बार साहित्य व्यापक उद्देश्यके बारे में चर्चा देखने को मिलती है। इस निबंध में वे साहित्य के संबंध में कहते हैं “साहित्य उसी रचना को कहेंगे जिसमें कोई सच्चाई प्रकट की गई हो, जिसकी भाषा प्रौढ़ हो, परिमार्जित हो, सुंदर हो और जिसमें दिल और दिमाग पर असर डालने का गुण हो।’’

आज साहित्य का विस्तार इतना बड़ा हो गया है कि हम कई सारे विमर्श को भी पढ़ते हैं जैसे किन्नर विमर्श, दलित विमर्श, किसान विमर्श, स्त्री विमर्श, बाल विमर्श, शिक्षा विमर्श आदि । इन सबकी अलग एक अलग विशेषता है जो हमें एक नई सोच की ओर ले जाती है एवं जहां हम यह भी सीखते हैं कि समाज के हर वर्ग के लोगों का समान अधिकार है- जीवन को जीने का ।

हिंदी साहित्य में हिंदी स्त्री लेखिकाओं का भी बड़ा योगदान रहा है जैसे:- कृष्णा सोबती, प्रभा खेतान, अलका सरावगी, चित्रा मुद्गल, मन्नू भंडारी आदि जो आज के मुद्दों पर भी लिखती है चाहे वह विस्थापन का दर्द हो, चाहे वह राजनीति की बात हो, चाहे देश, समाज वातावरण की यें स्त्री लेखिकाएं हर एक बिंदुओं को बड़ी बखूबी और बारिकी से अपनी रचनाओं में भी रेखांकित करती हैं।
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रणछोड़ दास चांचड़ जो साइंस का स्टूडेंट है और मशीन की डेफिनेशन पूछे जाने पर वह कहता है कि हर वह चीज जो इंसान का काम आसान करें वह मशीन है। पेन की निप से लेकर पैंट की जिप तक मशीन ही मशीन है। वह मशीन की डेफिनेशन कुछ इस प्रकार देता है लेकिन यदि साहित्य की डेफिनेशन दी जाए तो!
‘पानी के छोटे बूंद से हिमालय के बड़े से बड़े ग्लेशियर तक, छोटे-छोटे कुएं तालाब से लेकर बड़े बड़े महासागर तक, पेड़ के नन्हे पत्तों से लेकर बड़े-बड़े जंगल झाड़ियों तक, सुबह से लेकर शाम तक दिन से लेकर रात तक, सूरज से लेकर चांद तक, धरती से आसमान तक, साहित्य ही साहित्य है ।

साहित्य समाज, वातावरण सभी चीजों के चित्त वृत्तियों का प्रतिबिंब है।इसीलिए तो कहते हैं ‘जहां ना पहुंच सके रवि वहां पहुंच जाये कवि।’ यह बहुत ही बड़ी कहावत है कवियों के संबंध में क्योंकि कवि या लेखक जो होते हैं वह हर एक छोटी से छोटी चीजों को एक प्रतीकात्मक विम्ब बनाकर उसे हमारे सामने प्रस्तुत करते हैं बहुत ही अलग ढंग से।

निराला जी द्वारा रचित काव्य ‘संध्या सुंदरी’ काव्य में निराला जी ने प्रकृति सौंदर्य का जो बिम्ब निर्मित किया है वह अद्वितिय है। अक्सर हम लोग शाम को साधारण से समय की तरह देखते हैं। जहाँ लोग खाते -पीते घूमेंते फिरते हैं। लेकिन निराला जी की नजर में संध्या एक सुंदरी है। ऐसे बिम्ब साधारण लोगों के मन में नहीं उभरता। उन्होंने संध्या को एक सुंदरी का रूप दिया हुआ है जो आसमान से परी के रूप में धीरे धीरे धीरे धीरे उतरती है‌-
“दिवसावसन का समय
मेघमय आसमान से उतर रही है
वह संध्या-सुन्दरी परी-सी
धीरे-धीरे धीरे।’’

इसके साथ अज्ञेय की काव्य में निर्मित बिम्ब एक छोटा सा उदाहरण देखिए है:-
“हरी बिछली घास।
दोलती कलगी छरहरे बाजरे की।
अगर मैं तुम को ललाती सांझ के नभ की अकेली तारिका
अब नहीं कहता,
या शरद के भोर की नीहार – न्हायी कुंई,
टटकी कली चम्पे की, वगैरह, तो
नहीं कारण कि मेरा हृदय उथला या कि सूना है
या कि मेरा प्यार मैला है।
बल्कि केवल यही : ये उपमान मैले हो गये हैं।’’
प्रयोगवादी धारा में कई ऐसे उपमान दिया गया है जैसे मैं कहूँ तो.
“मेरे सपने इस तरह टूट गए जैसे भुना हुआ पापड़।”
“प्यार का बल्ब फ्यूज हो गया।’’

आदि साधारण से साधारण एवं छोटी से छोटी चीजों के ऊपर बड़ी-बड़ी बातों को प्रकट करने की कोशिश की गई है यह आविष्कार है एक क्रिएटिविटी है. यह केवल साहित्यकार ही कर सकता है। आज परिदृश्य में हम साहित्य को को देखे तो साहित्य के साथ हम विविधताओं से भरे साहित्य पढ़ते हैं। जैसे कि अभी हाल फिलहाल प्रवासी साहित्य को हम लोग पढ़ रहे हैं उसमें भारतीय मूल के जो लोग हैं वह बाहर विदेशों में रह रहे हैं और वहाँ से साहित्य लिख रहे हैं।

जीवन के प्रति उनकी जो सोच है , प्रवास का दर्द, नये तौर तरीके आदि इनमें उभरकर आया है। विदेशों रह रहे भारतीय अमूल के इन रचनाकारों से विदेशी जमीन सहित प्रवासी भारतीय की दशा का पता हम लगता है । लौटना, लाल पसीना, कुछ गांव गांव कुछ शहर शहर, यूं ही चलते हुए, आदि रचनाओं के माध्यम से प्रवासी भारतीयों दर्द- पीड़ा, अंतर्द्वंद्व हमारे सामने आता है।

इसके अलावा साहित्य के साथ-साथ प्रयोजनमूलक हिंदी, कार्यालय हिंदी, साहित्यक पत्रकारिता, विज्ञापन, साहित्य और सिनेमा भी पढ़ रहे हैं। सिनेमा से याद आया कि साहित्य में लिखी गयी कहानियों के ऊपर कुछ फिल्में बनी है तीसरी कसम, पिंजर, आँधी इत्यादि इसके उदाहरण है। वर्तमान परिदृश्य में साहित्य का एक अपना स्थान है। साहित्य ना हो तो इंसान के सोचने के ढंग मैं विस्तार ना होगा, चीजों के प्रति सजगता नहीं होगी।

जीवन को जानने और जीवन को जीने के लिए साहित्य एक सही मार्गदर्शक है जो जीवन की मूल प्रवृत्तियों को समझाता है। वर्तमान समय में देखे तो वही बहुत सारे लोग डिप्रेशन से जूझ रहे हैं कई सारे लोग तो काउंसलिंग करवाने जाते हैं। अगर वह थोड़ा समय निकालकर रामचरितमानस, रामायण, भागवत् गीता आदि का पाठ करें तो उनकी जीवन की अधिकतर से अधिकतर समस्याएं यूं ही दूर हो जाएंगी।

ये सारी कृतियां नाही आपको भूगोल में मिलेगी, ना ही विज्ञान के विषयों में मिलेंगी यह सारी कृतियां हमें साहित्य से ही मिलती है। साहित्य मानव को मानव बनाता है। जो साहित्य पढ़कर भी इंसान नहीं बना तब तो उसने साहित्य को नहीं समझा, नहीं पढा़। साहित्य का मतलब यह नहीं कि किसी भी चीज़ को लिख देना और समाज के सामने परोस देना। जब तक आप उसे अपने जीवन में नहीं उतारेंगे। साहित्य में लिखे गए बातों को अमल नहीं करेंगे तब तक आप साहित्य को नहीं समझे। और ना ही दूसरों को समझा पायेंगे की साहित्य क्या है?

क्योंकि आजकल दिखावे के साहित्य भी बहुत लिखे जा रहे हैं जैसे कि ए. सी. कमरों में बैठ कर आप गरीबी और गरीबों की जिंदगी के बारे में लिख रहे है। बिना मेहनत किये, पसीने बहाएं उनकी अनुभूति और संवेदना को यथार्थ के धरातल प्रस्तुत नहीं किया जा सकता है। इस तरह का लेखन एक तरह से छिछला लेखन ही होगा उसमें गहराई नहीं होगी, वह स्तरीय साहित्य नहीं है। साहित्य तो वह है जिसे हम अनुभूत कर सके और अपनी अनुभूति की सच्चाई को हम समाज के सामने प्रस्तुत करें।

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