अंतिम कड़ी : खतरे से जूझ रहा सुंदरबन, मैंग्रोव गठबंधन में शामिल हुआ भारत

Climateकहानी, कोलकाता। मौसम की चरम स्थितियां और भी ज्यादा तीव्र और बार-बार उत्पन्न हो रही हैं। जहां सुंदरबन क्षेत्र हमेशा से ही चक्रवात और चरम मौसमी घटनाओं से प्रभावित रहा है, वहीं अब इन घटनाओं की तीव्रता लगातार बढ़ रही है। पिछले 23 वर्षों के दौरान इस इलाके में 13 महाचक्रवात आ चुके हैं। वर्ष 1881 से 2001 के बीच बंगाल की खाड़ी से सटे सुंदरबन के इलाकों में चक्रवात की घटनाओं में 26% का इजाफा हुआ है। इसके अलावा शोध से यह भी जाहिर हुआ है कि वर्ष 2008 से 2018 के बीच मानसून सत्र के बाद अत्यधिक तीव्र चक्रवात उत्पन्न होने के सिलसिले में उल्लेखनीय वृद्धि हुई है।

वैज्ञानिकों का अनुमान है कि वर्ष 2041 से 2060 के बीच मानसून के बाद आने वाले इन चक्रवातों की तीव्रता करीब 50% और बढ़ जाएगी। चक्रवात की आवृत्ति और गंभीरता में बढ़ोत्तरी आंशिक रूप से समुद्र की सतह के तापमान में इजाफे के लिए जिम्मेदार है। यह 1980 से 2007 तक भारतीय सुंदरबन में 0.5 डिग्री सेल्सियस प्रति दशक की दर से बढ़ी। यह वैश्विक स्तर पर महसूस की गई 0.06 डिग्री सेल्सियस प्रति दशक वार्मिंग की दर से करीब 8 गुना ज्यादा है। सुंदरबन क्षेत्र में भूमि की सतह का तापमान पिछली शताब्दी में लगभग एक डिग्री सेल्सियस बढ़ चुका है और वर्ष 2100 तक इसके 3.7 डिग्री सेल्सियस तक गर्म होने का अनुमान है।

निचले इलाके में बसे होने के कारण और मैंग्रोव से मिलने वाली सुरक्षा में कटौती होने से सुंदरबन को चक्रवातों के कारण बेहद विनाशकारी नुकसान हो सकता है। पिछले तीन वर्षों के दौरान सुंदरबन चार बड़े चक्रवाती तूफानों का सामना कर चुका है जिसमें करीब 250 लोग मारे गए और लगभग 20 अरब डॉलर का नुकसान हुआ। एक अनुमान के मुताबिक वर्ष 2020 में आए साइक्लोन एम्फन ने भारतीय सुंदरबन के लगभग 28% हिस्से को नष्ट कर दिया और इसकी वजह से 12 बिलियन डॉलर का नुकसान हुआ।

इस चक्रवात की वजह से भारत के 24 लाख और बांग्लादेश के 25 लाख लोगों को अपना घर द्वार छोड़ना पड़ा। हालांकि उनमें से अनेक लोग बाद में लौट आए मगर 28 लाख से ज्यादा मकान क्षतिग्रस्त हो गए और शरण स्थलों की कमी की वजह से हजारों लोगों को बेघर होना पड़ा और लंबे वक्त तक दूसरे स्थानों पर रहने को मजबूर होना पड़ा।

एम्फन के बाद सरकार ने अनुमान लगाया कि एक लाख से ज्यादा किसानों को इस चक्रवात से बहुत भारी नुकसान हुआ क्योंकि खारा पानी उनके खेतों और तालाबों में भर गया जिसकी वजह से उनकी मछलियां मर गईं और उनके खेत उपज के लायक नहीं रहे। इस विनाश के बाद जानवरों और इंसानों के लिए भोजन की कमी होने लगी। नतीजतन इंसानों और बाघों के बीच टकराव बढ़ गया क्योंकि इंसानों ने मछली, केकड़े, शहद और जलाने के लिए लकड़ी की तलाश में जंगलों के और अंदर जाना शुरू कर दिया।

रोजी-रोटी पर हो रही है जबरदस्त चोट : लगभग 50 लाख लोग अपनी रोजी-रोटी के लिए सुंदरबन पर निर्भर हैं। विश्व बैंक के मुताबिक सुंदरबन में लगभग 80% परिवार अक्षम कृषि, मछली पालन और जलीय कृषि उत्पादन विधियां अपनाकर अपनी रोजी-रोटी कमाते हैं। जमीन और प्राकृतिक संसाधनों पर निर्भरता और रोजगार के वैकल्पिक अवसरों में कमी का मतलब है कि बदलती हुई जलवायु की परिस्थितियों के लिहाज से आजीविका का मामला बेहद संवेदनशील है।

लवणता या खारापन खेती-किसानी के लिए खतरा है।मछलियों की मात्रा में गिरावट की वजह से मछुआरों पर बुरा असर पड़ रहा है। मैंग्रोव प्रजातियों के संयोजन में बदलाव की वजह से जंगलों पर आधारित आजीविका पर भी बुरा असर पड़ रहा है। मैंग्रोव प्रजातियों का संयोजन लकड़ी और शहद उत्पादन के मूल्य को भी गिरा रहा है। भारतीय सुंदरबन में स्थित तीन गांवों का अध्ययन करने से यह पता चला है कि 62% श्रमिक अपनी मौलिक आजीविका खो चुके हैं और उन्हें अपनी रोजी-रोटी के लिए और भी ज्यादा अनिश्चितता पूर्ण आमदनी वाले कार्यों पर निर्भर होना पड़ रहा है।

हालांकि जलवायु परिवर्तन के प्रभावों के चलते आजीविका पर गंभीर खतरा उत्पन्न होने के बावजूद कुछ लोग खतरे वाले इलाकों में अब भी रह रहे हैं क्योंकि दूसरे स्थानों पर जमीन की कीमतें बहुत ज्यादा हैं। साथ ही वहां रोजगार के अवसरों की भी कमी है। रोजगार के अवसरों की कमी की वजह से दूसरे लोगों को अन्य स्थानों पर जाने की जरूरत होती है। यह कभी-कभी अस्थाई होता है तो कभी स्थाई भी होता है।

युवा पुरुषों और महिलाओं को आसपास के शहरों में या फिर 1000 किलोमीटर से भी ज्यादा दूर बसे राज्यों में जाना पड़ा, जहां उन्हें निर्माण स्थलों और फैक्ट्रियों में दिहाड़ी मजदूर या ठेके पर काम करने वाले कामगारों के तौर पर अनिश्चित अस्तित्व का सामना करना पड़ रहा है। एक अनुमान के मुताबिक मोटे तौर पर भारतीय सुंदरबन के 60% पुरुष मजदूर रोजी रोटी के लिए दूसरे स्थानों पर चले गए हैं। विस्थापन की वजह से गरीबी भी बढ़ी है क्योंकि एक कम कुशल श्रमिक परिवार के सदस्यों के लिए इतना धन बचाने में काफी वक्त लगता है कि वह उसे अपने घर भेज सके।

विस्थापन : एक आखिरी हल! एक अनुमान के मुताबिक 15 लाख लोगों को सुंदरबन को छोड़कर किसी अन्य स्थान पर स्थाई रूप से रहना पड़ेगा, क्योंकि बढ़ता हुआ समुद्र का जलस्तर उनका इस क्षेत्र में रहना और रोजी-रोटी कमाना नामुमकिन बना देगा। चूंकि इनके मजबूरन विस्थापन के लिए जलवायु परिवर्तन जिम्मेदार है लिहाजा ये लोग ‘जलवायु शरणार्थी’ हैं। हालांकि अभी इस श्रेणी को अंतरराष्ट्रीय स्तर पर औपचारिक रूप से मान्यता नहीं दी गई है। इसके अलावा अत्यधिक गरीबी न सिर्फ पर्यावरणीय खतरों के प्रति उनकी जोखिमशीलता को बढ़ाती है बल्कि वह इसमें योगदान भी करती है।

पिछले 25 वर्षों के दौरान भारतीय इलाके में स्थित सुंदरबन के चार द्वीप बेडफोर्ड, लोहाचारा, कबासगाड़ी और सुपरीभंगा पहले ही गायब हो चुके हैं, जिसकी वजह से 6000 परिवारों को दूसरे स्थानों पर आशियाना तलाशना पड़ा। लोहाचारा दुनिया का ऐसा पहला बसा हुआ द्वीप था जो समुद्र में समा गया। इसके पड़ोस में स्थित घोरमारा द्वीप पहले से ही आधा डूब चुका है। वर्ष 2011 की जनगणना में जहां इस द्वीप पर 40000 लोग रहते थे वहीं अब मात्र 5000 लोग ही इस पर जीवन के लिए संघर्ष कर रहे हैं।

इसकी वजह से विस्थापित हुए अनेक लोगों को वर्ष 1980 और 1990 के दशकों के दौरान सरकारी कार्यक्रमों के माध्यम से मिली सहायता के जरिए बगल के सागर द्वीप में बसाया गया। हालांकि 20,000 की आबादी वाले इस द्वीप की जनसंख्या बढ़ रही है और इसके क्षेत्रफल का 1/6 हिस्सा गायब हो गया है, लिहाजा यहां जमीन और संसाधन बहुत तेजी से कम हो रहे हैं।

एक अध्ययन के मुताबिक सुंदरबन के जलमग्न इलाकों से मजबूरन सागर द्वीप पर गए 31 परिवारों को हुए कुल नुकसान का आकलन करें तो यह 7742.225 करोड़ रुपए रहा। इसमें से 98% हिस्सा जमीन को हुई क्षति के तौर पर शामिल है। वर्ष 2002 में यह अनुमान लगाया गया था कि जलवायु परिवर्तन की वजह से वर्ष 2020 तक 69000 से ज्यादा लोग सुंदरबन छोड़ देंगे। वर्ष 2018 तक ही करीब 60000 लोगों ने सुंदरबन छोड़ दिया था।

क्यों पर्याप्त नहीं है अनुकूलन : जलवायु अनुकूलन जलवायु परिवर्तन के मौजूदा या संभावित प्रभावों के प्रति सामंजस्य बनाने की प्रक्रिया है। हालांकि यह स्पष्ट है कि जलवायु परिवर्तन के कुछ प्रभावों के अनुकूल बन पाना संभव नहीं है और कुछ मामलों में तो अनुकूलन की स्थिति अपनी अधिकतम सीमा को पहले ही छू चुकी है। तूफान और चक्रवातों से बचाव के लिए दीवारें और तटबंध बनाना जलवायु अनुकूलन का एक प्रमुख उपाय है। हालांकि इन उपायों को अपनाने के बावजूद लहरों, तूफानी हवाओं और चक्रवात से लैस प्राकृतिक आपदाएं कुछ ही घंटों में पिछले कई सालों की मेहनत को बर्बाद कर देती हैं।

वर्ष 2009 में आए साइक्लोन आलिया की वजह से सुंदरबन के 778 किलोमीटर क्षेत्र में बनाए गए तटबंध क्षतिग्रस्त हो गए थे और उन्हें दोबारा बनाने के लिए 5032 करोड़ रुपए खर्च हुए थे। मगर मात्र 10 वर्षों के बाद ही साइक्लोन एम्फन ने उन्हें फिर से क्षतिग्रस्त कर दिया। साइक्लोन आलिया ने समुद्र के बढ़ते जलस्तर को रोकने के लिए बनाए गए तटबंधों को ध्वस्त कर दिया। उसके बाद तीन बार दीवार बनाने की कोशिश की गई लेकिन उन सभी को समुद्र की ताकत ने तहस-नहस कर दिया।

लवण प्रतिरोधी फसलें उगाना भी अनुकूलन का एक और तरीका है इसमें कुछ कामयाबी भी मिली है लेकिन यह एक अस्थाई समाधान साबित हो सकता है, क्योंकि बीजों की कम उपलब्धता, खेती किसानी की जानकारी और अपेक्षाकृत कम उपज के रूप में कुछ बाधाएं भी खड़ी हैं। अनुकूलन की पद्धतियों से उनके कारण होने वाली पारिस्थितिकी की क्षति में और तेजी आ सकती है। उदाहरण के तौर पर लवणता का बढ़ता स्तर चावल तथा अन्य फसलों की खेती से रोकता है।

इसकी वजह से कुछ किसान झींगे की खेती की और रुख करते हैं जिसके लिए खारे पानी की जरूरत होती है और यह ज्यादा मुनाफे वाला भी हो सकता है। हालांकि जमीन को झींगा फार्म में तब्दील करने से पानी के लवणीकरण में और तेजी आती है जबकि मुनाफा अक्सर निजी निवेशकों को ही होता है। श्रमिको, मुख्य रूप से महिलाओं को कम आमदनी मिलती है और उन्हें स्वास्थ्य संबंधी समस्याओं जैसे संक्रमण होने, आंखों की रोशनी कम होने और त्वचा रोग जैसी मुश्किलों का सामना करना पड़ता है।

सुंदरबन के लोगों के लिए उनकी जिंदगी उनकी जमीन पर निर्भर करती है, जिस पर वे रहते हैं, अपना भोजन पैदा करते हैं और अपनी रोजी-रोटी चलाते हैं। यहां रहने वाले कुछ लोगों को पहले से ही कई बार अपना ठिकाना बदलना पड़ा है। यहां के एक नागरिक का कहना है “यहां के लोग बहुत सख्तजान हैं लेकिन वे और कितना सहनशील हो सकते हैं?” सुंदरबन के लिए नजरिया काफी धूमिल है। ‘प्रबंधित वापसी’ यानी समय के साथ जोखिम वाले क्षेत्रों से योजनाबद्ध तरीके से विस्थापन एकमात्र व्यावहारिक विकल्प हो सकता है।

नुकसान और क्षति के लिए वित्तपोषण क्यों है जरूरी : हानि और क्षति एक शब्द है जिसका इस्तेमाल इस बात का वर्णन करने के लिए किया जाता है कि किस तरह से जलवायु परिवर्तन पहले से ही गंभीर और कई मामलों में दुनिया भर में अपरिवर्तनीय प्रभाव पैदा कर रहा है। खासतौर से जोखिम से घिरे कमजोर समुदायों के लिए इंटरगवर्नमेंटल पैनल ऑन क्लाइमेट चेंज (आईपीसीसी) द्वारा जलवायु के प्रभावों के ताजातरीन आकलन के मुताबिक नुकसान और क्षति को मोटे तौर पर दो श्रेणियों में बांटा जा सकता है, जिनमें आय और भौतिक संपत्ति तथा मृत्यु, गतिशीलता और मानसिक भलाई से जुड़े नुकसान सहित गैर आर्थिक क्षतियां शामिल हैं।

सुंदरबन के लोगों के लिए आर्थिक और गैर आर्थिक नुकसान जैसे कि भूमि, आजीविका, स्वास्थ्य और संस्कृति की होने वाली हानि इस क्षेत्र के बर्दाश्त करने की सीमा से ज्यादा है। वर्ष 2009 में किए गए एक अध्ययन के मुताबिक जलवायु परिवर्तन के कारण होने वाली पर्यावरण की क्षति और स्वास्थ्य संबंधी समस्याओं की वार्षिक अनुमानित सालाना लागत 1290 करोड़ रुपए है जो वर्ष 2009 के सुंदरबन के सकल घरेलू उत्पाद के 10% हिस्से के बराबर है।

प्रदूषणकारी तत्वों के वैश्विक उत्सर्जन में सुंदरबन का बहुत छोटा सा योगदान है उदाहरण के तौर पर संपूर्ण बांग्लादेश कुल वैश्विक उत्सर्जन के मात्र 0.56% के बराबर हिस्से के लिए जिम्मेदार है, मगर उसे जलवायु परिवर्तन के भीषण नतीजों का सामना करना पड़ रहा है। विश्व के तमाम विकासशील देशों और जोखिम से घिरे समुदायों के साथ-साथ सुंदरबन भी जोर देकर गुजारिश कर रहा है कि उसे कुदरत के इस बेतरतीब रौद्र रूप की इतनी बड़ी कीमत चुकाने को मजबूर न किया जाए।

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