प्रफुल्ल सिंह “बेचैन कलम”, लखनऊ । कभी क्रान्ति नहीं करता। वह सपनों की भ्रान्ति नहीं पालता। अधिकारों की माँग को भूख के आगे विवशता से भूल जाता है। आराम-विश्राम उसकी जिन्दगी के मँहगे पल हैं,जो जिन्दगी के उस पार है। सम्पन्नता, समृद्धि, शिक्षा उसके लिए चाँद-तारों की कहानी भर है। चर्चा, विमर्श उसे नसीब नहीं और सामाजिक व राजनीतिक उत्थान इसके नसीब में नहीं। समारोह, खुशियों का इनसे वास्ता नहीं। शरीर और अरमानों को धूनी बनाकर, उसी पर जलना-गलना ही ध्येय है।
हाँ! मैं वही बात कर रहा हूँ, जिस पर आज सभी कर रहे हैं.. #मजदूर_दिवस
वर्षों में कभी-कभार ये मीठा भी खाते हैं। पूरे जीवन में चिकित्सा मुहैया न होने पर फटी राली और टूटी चारपाई पर सोते भी हैं। नये कपडे़, अच्छा घर, नौकरी की बधाइयाँ, गृह-प्रवेश, पार्टी-सभाएँ, नये जूते, ठण्डा पानी, मशीनरी हवा, सम्मान, प्रशंसाएँ, प्रसिद्धि, सफलता.. भरी आँखों से असहाय होकर लिखना पड़ रहा है — कि यह सब इनकी जिन्दगी में नहीं होता है।
हाँ, आजाद और लोकतांत्रिक देश में बसता है, सरकारें बनाता हैं, महल-बँगले बनाता है..दिखने वाले विकास की साक्षात क्रियान्वयन धुरी है। मन के अरमान और शरीर का सौन्दर्य खो चुके ये सिर्फ़ ‘खपने’ को बना है। तादाद में बहुत ज्यादा, लाभांश में सबसे कम यही है। आज इसका दिवस है। वर्ष में एक दिन कोई बोल-लिखकर मजदूर की महिमा को अभिमण्डित करेंगे। मजबूरी पर मजबूती कितनी ला पाए हैं…यह मजदूर भी जानता ही है।
ये पसीने से वय(उम्रावस्था) पार करता है। अभावों को पीढी़ दर पीढी़ ढो़ता हैं। परिश्रम की तूलिका से जीवन लिखता है, श्रम बून्दों से नियति नापता है। हँसना मना, रोना गुनाह… बढ़कर ही रात का बन्दोबस्त और सुबह की उम्मीद देखता है। उम्मीद भी क्या.. आधा किलो आटा, तीन मिर्ची, पाव तेल, दो मुट्ठी दाल, एक टमाटर..कुल पचास रूपये के मसाले और अलसाई हुई नींद के साथ अगली सुबह और सूरज की साखी में तन-तोड़ मेहनत.. आज एक दिन का इनका मजदूर दिवस है।
मेरा शीर्षक चौंकाने वाला हो सकता है। मजदूर दिवस की जगह ‘परिश्रम दिवस’ गलत भी लग सकता है।
दरअसल, मजदूर जीवन की सच्चाई केवल परिश्रम है। परिश्रम के मुकाबले में बहुत कम पाने वाले मजदूर ही है। मजदूर को फावडे़-तगारी से बाँध देना बेमानी होगी।
बन्दूक-कलम वाला, किराये – नुकसान में बसर करने वाला भी मजदूर हो सकता है। परिश्रम जिसके जीवन का अथक यत्न है और पगार का आगार बहुत कमतर है…अभावों को झेलता, सपनों को बुझते देखता, कर्जों से दबकर शिक्षा को छूता, किश्तों की पुस्तों में उलझा हुआ, बढो़तरी को तरसता वह हर इन्सान भी मजबूर मजदूर ही है। इसलिए इसे व्यापक व्यास पर दिखाने को यह शीर्षक आया है।
मैं भी मजदूर हूँ। मैं आज के दिन छोटे-बड़े, अमीर-गरीब, सफल-विफल, मजबूत- मजबूर सभी मजदूरों को बधाई देता हूँ जो सर्वत्र मजदूरी को समय देते जीवन खपा रहे हैं।
यह दिवस तो हर उगते सूरज की साखी में मनाया जाता है। वेदनाएँ, संवेदनाओं को कोसती है। हाँ.. कोई समारोह बनाकर मनाता ही नहीं।
मैं भीड़ नहीं हूँ… नीड़ बनाने को खपता हूँ…
परिश्रम की तूलिका से, श्रम बून्दों से नियति को वय दिवस चढा़ता हूँ… इस मेरे हमसभी के दिवस की आप सभी को अकूत बधाई।
युवा लेखक/स्तंभकार/साहित्यकार
लखनऊ, उत्तर प्रदेश
ईमेल : prafulsingh90@gmail.com