कुरूक्षेत्र मेरी नजर से : अभिमन्यु सर्ग (प्रथम भाग)

कुरूक्षेत्र मेरी नजर से:
अभिमन्यु सर्ग (प्रथम भाग)

प्रचंड युद्ध चल रहा,
प्रपंच शकुनि रच रहा,
दुर्योधन, प्रलाप कर रहा,
धृराष्ट्र क्या न जानता?

गांधारी के हैं सौ दीये,
न जाने कितने बुझ गये,
कितने दिये बुझ जायेंगे,
करती रूदन,धरती चरन,
मुरारी युद्ध रोक लें।

धृष्टराष्ट्र पर न मानता,
वो सारी भूमि चाहता,
भले ही रक्तपात हो,
दुर्योधन ही नरेश हो,
उसे नशा है राज का,
परवाह ना विनाश का,
वो पुत्र मोह मे पडा,
वो अंधकार मे जडा।

है ज्ञानी वो भी कम नहीं,
अज्ञानी बनके डोलता,
संजय से उष्ण बोलता,
न पाँच गाँव छोडता।

कौरव की क्षति को देखके,
विकल सभी महारथी,
इसी मे कटु था बोलता,
जो शल्य, बना सारथी।

थी गुप्त बात चल रही,
चौसर पे बाजी चल रही,
गुरू द्रोण सेनापति बने,
दुर्योधन राग मे सने,
वो भूले युद्ध रीति को,
न मनते वो वो नीति को,
अर्जुन रहे न सामने,
तो चक्रव्यूह मैं रचूँ,
दमन करूँ युधिष्ठर का,
और अंत करू युद्ध का।

उन्हें नहीं ये भान है,
बस उनको ये गुमान है,
वे हैं बडे महारथी,
पर उनका तोड जानता,
अदम्य एक वीर है,
जो तोडेगा गुमान भी,
और उनका चक्रव्यूह भी,

धरी रहेगी कल्पना,
विजय से होगी वंचना,
मिलेगी सिर्फ लांक्षना,
और सारे जग की भर्त्सना।

ये तय हुआ,
शुरू हुआ,
छल छद्म का,
पंकिल ये आज सिलसिला।

युधिष्ठर नत पडे हुए,
थे भीम करते गर्जना,
जो द्रोण चाल चल रहे,
गदा से उसे तोलूँगा,
कौरव की छाती फाडकर,
गुमान इनका तोडूँगा।

चिंता मे देख ज्येष्ठ को,
मचल उठा था बाल वो,
सुभद्रा पुत्र अभिमन्यु,
तब कर उठा हुंकार यूँ।

हे तात क्यूँ हैं यूँ पडे?
रथी यहाँ अनेक हैं,
महारथी एक एक से,
जो पिताश्री यहाँ नहीं,
क्या बैठ रण गवाँयेगे?

ये कैसा क्षात्र धर्म है?
ये कैसे हैं महारथी?
क्या गदा अब न बोलती?
क्या भाले कुंद हो गये?
तलवार कहाँ सो गई?

इक चक्रव्यूह क्या रचा,
हैं पश्त सभी महारथी,
हे आर्य भीरूता है ये,
जो बैठ के रूदन करे,
हैं नाथ साथ आपके,
फिर भी विकल हुए पडे!

नीतिज्ञ आप सा नहीं,
हैं धर्मराज आप ही,
फिर एक चक्रव्यूह से,
विरत हुए हैं धर्म से।

जो क्षात्र धर्म मानते,
प्रारब्ध अपना जानते,
हों युद्ध से ना विरत कभी,
जय हो याकि मरण मिले।

ललकार सुन मुख मोड लूँ?
बेहतर है आत्मदाह लूँ,
रोकें न हमको तात अब,
अराति सामने खडा,
क्या रण से मैं यूँ भाग लूँ?

मैं जानता हूँ भेदना,
छह द्वार चक्रव्यूह के,
गरजे थे भीम सेन भी,
तोडूँगा द्वार सातवां अपनी गदा के वार से।

निरूपाय धर्मराज हैं,
वो धर्मसंकट मे हैं पडे,
विचारते वे मन मे हैं,
इस विकट रण मे झोंक दूँ,
इक राज के लिए मैं क्या,
प्रिय अभिमन्यु को भेज दूँ।

कुछ हो गयी अनहोनी तो,
अर्जुन को क्या बताऊँगा,
सुभद्रा पूछ बैठी तो,
उसको भी क्या सुनाऊँगा।

अधीर होके बोले वे,
ज्यों बात टालते थे वे,
कब सीखा व्यूह भेदना,
धरा पे अभी तलक ये चार जन ही जानते,
फिर पाँचवा तू कब हुआ,
कहाँ से सीखी यह कला।

था मातृ गर्भ मे जब,
विधि बता रहे थे तब,
पिता हमारी मात को,
बता लिए जब उन्हें,
वे छह द्वार भेदना,
तब मातु नींद मे गई,
न जान सका भेदना रह गया शेष सातवाँ ।

हे तात न बिताये अब,
समय को व्यर्थ बात मे,
है अरि यहाँ पुकारता,
गजराज सा चिंघाडता,
रूकुँगा मैं यहाँ नही,
जो जान भी जाये सही,
ओढूँगा मै न भीरुता।

देख वीर की ये बानगी,
नत पांडु वीर थे सभी,
उस रवि समान ओज को,
जो बादलों को चीर दे।

वो सिंह सा दहाडता,
हवा के साथ भागता,
धरती आकाश नापता,
अरि का कलेजा कांपता।

चपल से उसके नेत्र हैं,
ललाट तेजवान है,
मुख पे विराजे मोहिनी,
वो मोहन का प्रतिरूप है।

तनिक न मन मे है द्विधा,
क्षणिक न भय का चिन्ह है,
ये बाल काल है बना,
ये वीर रस से है सना।

विल्क्षण इस बाल की,
फडकते देख बाहु को,
यूँ भीम भी थे कह पडे,
मैं साथ इसके जाऊँगा,
और द्रोण को बताऊँगा,
गदा मेरी यथेष्ट है,
ये क्षत करेगी सातवाँ।

शमां था रण का बँध गया,
हुँकार कर रहे रथी,
थीं मुग्ध दस दिशाएँ भी,
अभिमन्यु के प्रताप से।

शिकन नहीं है भाल पे,
तूणीर लेके चल दिया,
बिजली की गति से चीरता,
वो अरि के दल को बेधता,
ज्यों बादलों के बीच मे हो,
एक तडित प्रवाह वो।

कर ध्यान अपने इष्ट को,
वो लक्ष्य को था साधता था,
कट कट के होते सर अलग,
पर त्रिपुरारी हो रहे विकल,
वो जानते हैं आदि को,
वो रच रहे हैं अंत को,
ये बाल प्रिय मुरारी का,
क्या इसका अंत रोकेंगे?

टूटेंगी मर्यादा सभी,
वो द्रोण हो कि कर्ण हो,
निर्लज्ज बाहुबल सभी का,
देखेगा ब्रह्मांड भी।

प्रमोद तिवारी 

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