श्रीराम पुकार शर्मा, हावड़ा । भारत-भूमि प्राचीन काल से ही ‘देव प्रिय’ और ‘वीर प्रसूता’ भूमि रही है । समयानुसार इसने अनगिनत देव तुल्य महामानव और समर श्रेष्ठ वीर संतानों को जन्म देती रही है। उन्हीं में से साहसिकता, त्यागशीलता और वीरता की रणचंडी की एक प्रतिमूर्ति थी, ‘झलकारी बाई’। झलकारी बाई की वीरता की परिमाप झाँसी की रानी लक्ष्मीबाई से जरा भी कम न थी। उसका जन्म 22 नवम्बर 1830 को झाँसी (उत्तर प्रदेश) के पास ही ‘भोजला’ नामक गाँव में एक निर्धन कोली परिवार में हुआ था। उसके पिता सदोवर सिंह और माता जमुना देवी थे। झलकारी बाई को शैशवास्था में ही मातृ-वियोग सहना पड़ा था। पर पिता ने तत्कालीन सामाजिक परिस्थितियों के कारण उसे भले ही कोई औपचारिक शिक्षा न दिलवा सके, परन्तु घुड़सवारी और विभिन्न हथियारों का प्रयोग जैसे अद्भुत प्रशिक्षण देते हुए उसका पालन-पोषण किसी वीर पुत्र की भाँति ही किया था।
झलकारी बाई बचपन से ही बहुत साहसी और दृढ़ संकल्पी बालिका थी। वह घर के काम-काज के अतिरिक्त पशुओं की देखभाल करती और घरेलू उपयोग के लिए अपनी संगी-साथियों के साथ अक्सर पास के जंगल से लकड़ी इकट्ठा करने भी जाया करती थी। एक बार जंगल में एक आदमखोर चीते ने झलकारी के संगी-साथियों पर अचानक हामला कर दिया, जिससे घबराकर उसके संगी-साथी भाग खड़े हुए, किन्तु झलकारी हिम्मत न हारी और वह कुल्हाड़ी लेकर उस चीते पर टूट पड़ी। चीते ने भी अपने पंजों से झलकारी को घायल कर दिया था। लेकिन उसने बड़ी बहादुरी से चीते के माथे पर कुल्हाड़ी से सधा हुआ कई वार किया। कुछ ही समय में वह आदमखोर चीता निढाल होकर गिरकर बेजान हो गया।
एक अन्य अवसर पर झलकारी को पता चला कि उसके गाँव पर डकैतों का एक गिरोह ने हमला कर दिया है। वह अपने घर में रखे एक पुरानी तलवार को थामें निकल पड़ी। उस छोटी, पर निडर बालिका ने बड़ी ही फुर्ती से डकैत के प्रमुख को ही पटक कर उसके गर्दन पर अपनी तलवार रख दी। डकैत उसके तेवर को देखकर दंग रह गए। तब तक कई गाँववाले भी अपने हाथों में लाठी-भाले थामें डकैत दल को घेर लिये। बाद में झलकारी ने उस डकैत प्रमुख से अपने गाँव की ओर कभी न रुख करने की कसम लेकर छोड़ दी।
झलकारी बाई जैसे-जैसे बड़ी होने लगी, वैसे-वैसे ही उसकी बहादुरी की गाथाओं की संख्या भी बढ़ने लगी। अवसर देखकर उसकी बहादुरी के अनुरूप ही गाँव वालों ने उसका विवाह रानी लक्ष्मीबाई की सेना के एक आकर्षक और बहादुर सैनिक ‘पूरन कोली’ से करवा दिया। रानी लक्ष्मीबाई सहित उनकी पूरी सेना पूरन कोली की बहादुरी का लोहा मानती थी और उस पर गर्व भी करती थी। कहा जाता है कि एक बार ‘गौरी पूजन’ के अवसर पर झलकारी बाई गाँव की अन्य महिलाओं को साथ लिये झाँसी के किले में महारानी लक्ष्मीबाई को सम्मान देने और उनका आशीर्वाद लेने पहुँची।
महारानी इस कोली बाला झलकारी की कद काठी तथा हमशक्ल स्वरूप को देखकर काफी प्रभावित हुई। महारानी भी झलकारी की बहादुरी के कई किस्से सुनी थी। उसे अपने विश्वासपात्र सैनिक पूरन कोली की पत्नी जानकार और भी प्रसन्न हुई। फिर महारानी ने उसे अपनी सेना की प्रमुख महिला शाखा ‘दुर्गादल’ में भर्ती कर ली। झलकारी को तो अपनी मातृभूमि की सेवा करने जैसी मन की मुराद ही प्राप्त हो गई।
झलकारी बाई को उसके पति पूरन कोली ने युद्ध के अनुकूल तलवारबाजी, धनुर्विद्या, कुश्ती, बंदूक चलना और तोपों का प्रशिक्षण दिया। उपयुक्त प्रशिक्षिण प्राप्त कर वह एक ऐसी दुर्जेय योद्धा बन गई थी, जिससे रण-भूमि में शत्रु खौफ खाते थे। आगे चलकर वह महारानी लक्ष्मीबाई की प्रमुख महिला सैन्य दल ‘दुर्गादल’ की सेनापति बनाई गई। उसमें वीरता, साहसिकता और स्वामि-भक्ति के भाव परिपूर्ण थे। अतः वह महारानी के साथ ही युद्ध-संघर्ष का अभ्यास करती थी। चुकी वह महारानी की हमशक्ल भी थी, इस कारण शत्रु को गुमराह करने के लिए अक्सर वह महारानी के वेश में भी रहती थी।
सन् 1857 की क्रांति के समय झाँसी पर भी अंग्रेजों की टेंढ़ी निगाहें पड़ गई। अंग्रेजों ने झाँसी को ‘ब्रिटिश-झंडे’ के नीचे लाने के कई प्रयास किए। लार्ड डलहौजी की ‘राज्य हड़प’ नीति के चलते निःसंतान लक्ष्मीबाई को उनके उत्तराधिकारी दामोदर राव को गोद लेने की अनुमति नहीं दी गई। हालांकि, ब्रिटिश की इस योजना के विरोध में रानी की सारी सेना और झाँसी के लोग रानी के साथ हो गये और उन्होने आत्मसमर्पण करने के बजाय ब्रिटिश-सेना के खिलाफ हथियार उठाने का महा संकल्प ग्रहण किया।
अप्रेल 1857 में जनरल ह्यूरोज ने अपनी विशाल सेना के साथ झाँसी पर आक्रमण कर दिया। तब रानी झलकारी बाई जैसे सेना-नायकों के सहयोग से उस विशाल अंग्रेजी सेना के हमलों को कई बार नाकाम करती रही। युद्ध के समय पूरन कोली को किले के एक द्वार की रक्षा करने का दायित्व सौंपा गया था। झलकारी बाई रानी की मुख्य सहयोगी की भूमिका में थी। रानी के सेना-नायकों में से एक देशद्रोही ‘दूल्हेराव’ ने अंग्रेजों के साथ हाथ मिला लिया और किले का एक गुप्त द्वार अंग्रेजी सेना के लिए खोल दिया।
ऐसे में जब किले का पतन निश्चित हो गया, तो रानी के सेनापतियों और झलकारी बाई ने उन्हें कुछ सैनिकों के साथ किला छोड़कर भागने की सलाह दी। रानी ने अपने किशोर दत्तक पुत्र दामोदर राव को पीठ पर बाँध लिया और अपने कुछ विश्वस्त सैनिकों के साथ घोड़े पर सवार होकर एक अन्य गुप्त-मार्ग से किले से बाहर होकर झाँसी से दूर निकल गईं थी।इधर पूरन कोली दुर्ग की रक्षा करते हुए बुरी तरह घायल हो गया था। झलकारी बाई अपने पति के घायल होने की सूचना मिली, पर वह जरा-सा भी विचलित न हुई।
अब वह ब्रिटिश सेना को धोखा देने के लिए महारानी लक्ष्मीबाई की वेश-भूषा को धारण कर बड़े ही धैर्य और साहस के साथ झाँसी की सेना का नेतृत्व करती हुई अंग्रेजी सेना पर किसी घायल शेरनी की भाँति टूट पड़ी। उसने अद्भुत वीरता का प्रदर्शन करते हुए अंग्रेजी सेना के कई हमलों को विफल कर दिया था। अंग्रेज सेना-नायक यही समझते रहे कि उनसे रानी ही युद्ध कर रही है। एकाएक झाँसी की सेना पस्त होने लगी। ऐसे ही समय एक गोला झलकारी को भी लगा और वह ‘जय भवानी’ कहती हुई रण-भूमि में गिर पड़ी। तुरंत ही उसे शत्रु सेना ने बंदी बनाकर उसे जनरल ह्यूरोज के समक्ष प्रस्तुत किया गया।
जनरल ह्यूरोज और उसके सैनिक प्रसन्न थे कि उन्होने झाँसी सहित रानी लक्ष्मीबाई को भी जीवित अपने कब्ज़े में कर लिया है। उसने झलकारी बाई से पूछा कि उसके साथ क्या किया जाए? वीर और साहस की प्रतिमूर्ति झलकारी बाई ने दृढ़ता के साथ कहा, – ‘मुझे फाँसी दे दो।’ पर जैसा कि होता आया है। वहाँ झाँसी के एक गद्दार ने रानी के वेश में झलकारी बाई को पहचान लिया और उसने अंग्रेजों को बता दिया कि यह रानी लक्ष्मीबाई नहीं, बल्कि उनकी हमशक्ल और ‘दुर्गादल’ की नायिका झलकारी बाई है।
झलकारी बाई का अन्त किस प्रकार हुआ, इस बारे में आज के इतिहासकार कुछ मौन हैं। कुछ लोगों का कहना है कि 4 अप्रेल, 1858 को वह युद्ध भूमि में वीरगति को प्राप्त की। कुछ के अनुसार उन्हें अंग्रेजों ने उसे फाँसी दे दी थी। कुछ का कहना है कि अंग्रेजों की कैद में ही उनका जीवन समाप्त हो गया था। देश के लिए अपने प्राणों की आहुति देने वाली वीरांगना झलकारी बाई को इतिहास में कुछ धुंधला-सा ही स्थान मिला पाया है, पर हम भारत वासियों के हृदय में उसका वीरत्व चित्र सर्वदा के लिए सादर अंकित रहेगा। भारत-भूमि को झलकारी बाई जैसी अपनी वीर संतानों पर सर्वदा गर्व रहेगा।
झलकारी बाई की वीरता में उसके विपक्षी सेनापति ह्यूरोज ने कहा था – ‘अगर भारत में स्वतंत्रता की दीवानी ऐसी दो-चार और महिलाएँ हो जायें, तो अब तक ब्रिटिश ने भारत में भी जो ग्रहण किया है, वह उन्हें छोड़ना पडेगा। फिर भारत को स्वतंत्र होने से कोई भी नहीं रोक सकता।’ झलकारी बाई की गाथा आज भी बुंदेलखंड की लोकगाथाओं और लोकगीतों में सुनी जा सकती है।
“लक्ष्मीबाई का रूप धर, झलकारी खड़ग संवार चली।
वीरांगना निर्भय लश्कर में, शस्त्र अस्त्र तन धार चली।।” – बिहारी लाल हरित
राष्ट्रकवि मैथिलीशरण गुप्त के निम्न पंक्तियों के द्वारा हम झाँसी की वीरांगना झलकारीबाई को उनकी 192 वीं गौरवमयी जयंती पर सादर नमन करते हैं –
“जा कर रण में ललकारी थी, वह तो झाँसी की झलकारी थी।
गोरों से लड़ना सिखा गई, है इतिहास में झलक रही,
वह भारत की ही नारी थी।।”
(वीरांगना झलकारी बाई जयंती, 22 नवम्बर, 2022)
श्रीराम पुकार शर्मा
अध्यापक – श्री जैन विद्यालय, (हावड़ा)
हावड़ा – 711101
ई-मेल सम्पर्क – rampukar17@gmail.com