श्रीराम पुकार शर्मा हावड़ा। ‘तुलसी-जयंती’ के पावन शुभ्र दिवस पर प्रातः स्मरणीय भक्त-प्रवर गोस्वामी तुलसीदास सहित उनके आराध्य देव श्रीराम जी को अपना आदर्श और पूज्य मानने वाले समस्त विद्व-भक्तों को मैं करबद्ध सादर नमन करता हूँ। अंतहीन विराट साहित्याकाश में अपने असीम ज्ञान-पुंज युक्त प्रखर प्रकाश और ऊर्जा के मार्तण्ड सदृश गोस्वामी तुलसीदास जी आज भी मानव-मन के धरातल को आलोकित करते रहे हैं। महान भक्तकवि के अनुसार उनके आराध्य-प्रभु श्रीराम जी अपने विविध स्वरूपों में सम्पूर्ण संसार के कण-कण में विद्यमान हैं। इसलिए भक्त प्रवर महाकवि गोस्वामी तुलसीदास ने जगत के समस्त सन्त-असन्त, सज्जन-दुर्जन, सजीव-निर्जीव, किट-पतंगों, पेड़-पौधों आदि समस्त चराचरों को सादर प्रणाम और उनकी सादर वंदना की है। उनके द्वारा प्रदर्शित समस्त चराचरों की वंदना करने की यह वृहत परम्परा हमारी भारतीय सनातनी संस्कृत का एक प्रमुख अंग बन गया है। चराचरों की वंदना के बिना हमारी कोई भी धार्मिक या आध्यात्मिक कृत-कार्य पूर्ण या फिर सम्पन्न हो ही नहीं सकते हैं। महान भक्तकवि गोस्वामी तुलसीदास के अनुरूप मैं भी उन्हीं के शब्दों में समस्त चराचरों की वंदना करता हूँ।
‘सिया राममय सब जग जानी। करउं प्रणाम जोरि जुग पानी।।
कलियुग केवल नाम अधारा। सुमीर सुमीर नर उतरहिं पारा।।’
तुलसीदास का पादुर्भाव काल क्या था? आतताइयों के घोर अत्याचार और पापमय काले मेघों से आच्छादित भारतीय सांस्कृतिक सूर्य के निस्तेज का अंध-काल था। सनातनी हिन्दू सांस्कृतिक सूर्य के निस्तेज होते ही सनातनी हिन्दूजन के प्राण-कमल भी क्रमशः निश्चल हो गए थे। एक ओर हिन्दू सम्राट और उनके राज्य भारतवर्ष के मानचित्र पर से निरंतर मिटते जा रहे थे, तो वहीं दूसरी ओर मुग़ल शासकों के वैभव और ऐश्वर्य स्वर्गीय देवतुल्य वैभव को चुनौती देने लगे थे। उनके दिन-प्रतिदिन के बढ़ते अत्याचारों से हिन्दू जन-मन निरंतर घायल और हताश होते रहे थे। ऐसी विषम स्थिति में असहाय तथा भग्नह्रदय हिन्दू जनता किसी मजबूत सम्बल के लिए आकुल थी। ठीक ऐसी ही नैराश्यजन्य विषम परिस्थितियों के मध्य गोस्वामी तुलसीदास जी ने अनाथों के नाथ प्रभु के आगमन का भीषण शंखनाद किया…
‘जब जब होईहि धर्म की हानि। बाढ़हिं असुर महा अभिमानी॥
तब-तब धरि प्रभु विविध शरीरा। हरहि दयानिधि सज्जन पीरा॥’
गोस्वामी तुलसीदास जी के इस भीषण शंखनाद से निराश, पीड़ित और भग्न-ह्रदय हिन्दू जनसमुदाय में एक नवीन ऊर्जा का संचार हुआ और उन सबके समक्ष ‘बाप कै राज बटाऊँ की नाई’ त्यागने वाले या फिर ‘बाम ओर जानकी कृपानिधान के बिराजैं, या फिर देखत बिषादु मिटै, मोदु करषतु हैं’ या फिर ‘सरनागतपाल कृपाल न दूजो’ और या फिर ‘रघुनाथ अनाथ के नाथु सही’ जैसे श्रीराम जी के रूप में सबकी पीड़ा हरने वाले एक आदर्श मानवीय स्वरूप को प्रस्तुत किया। फलतः हिन्दू जनसमुदाय श्रीराम जी के उस पतित पावन विराट स्वरूप को सहर्ष अपने मन-मंदिर में पूर्ण भक्ति-भाव से स्थापित कर लिया।
‘परमानंद कृपायतन मन परिपूरन काम।
प्रेम भगति अनपायनी देहु हमहिं श्रीराम॥’
महर्षि वाल्मीकि कृत ‘रामायण’ के उपरांत श्रीराम भक्ति और श्रीराम काव्य धारा को इस धरा पर अजस्र प्रवाहित करने वाले महान व्यक्तित्व एकमात्र गोस्वामी तुलसीदास जी ही हैं, जिन्होंने अपनी प्रसिद्द कृति ‘श्रीरामचरितमानस’ के माध्यम से श्रीराम जी को तथा श्रीराम-भक्ति को न केवल भारतीय सनातनियों के घर-आँगन में ही भक्तिपूर्वक प्रतिष्ठित किया, बल्कि विश्व के अधिकांश क्षेत्र को भी ‘सियाराम मय’ बना दिया है। गोस्वामी तुलसीदास जी और ‘श्रीरामचरितमानस’ एक दूसरे के पूरक ही तो हैं। दोनों ही हमारे भारतीय समाज और संस्कृति के प्रबल आधारशिला हैं। इन दोनों में किसी एक को भी अलग करके देखने की कोशिश करना भी महा धृष्टता ही होगी। विगत कई शताब्दियों से भारतीय जनमानस में श्रीराम जी आस्था के प्रतीक बने हुए हैं, तो केवल इसलिए कि गोस्वामी जी ने उनके अलौकिक और लौकिक मर्यादित स्वरूप को साधारण जनानुकूल स्थापित किया है, जिनमें मानव जनित सारी सद्-वृतियाँ लक्षित होती हैं। ऐसे देवतुल्य पात्र को ‘पुरुषोत्तम’ स्वरूप में स्थापित करनेवाले महान व्यक्तित्व गोस्वामी तुलसीदास जी हम सभी के लिए किसी देव तुल्य महामानव से कोई कम न हैं।
‘पंद्रह सौ चौवन विषै, कालिंदी के तीर। सावन सुक्ला सत्तमी, तुलसी धरेउ शरीर।
जी हाँ ! मानसकार की पवित्र प्रकाट्य तिथि और वर्ष संबंधित तो तरह-तरह के विश्वास-मत प्रचलित हैं, परन्तु मूलगोसाईं-चरित में उल्लेखित इन्हीं तथ्यों के आधार पर हिंदी साहित्य के कई मूर्धन्य शोधकर्ता गण सम्वत् 1554 के श्रावण शुक्ल सप्तमी तिथि को ही गोस्वामी जी की पवित्र जन्म तिथि को मान्यता प्रदान किए हैं। फिर ‘श्रीरामचरितमानस’ के अयोध्या काण्ड के ‘तापस प्रसंग’ में भगवान श्रीराम के वन-गमन के क्रम में यमुना नदी से आगे बढ़ने पर एक अनजान व्यक्ति-कवि का चित्रण, भावावेश और अंतर्साक्ष्यों के आधार पर यमुना नदी के किनारे स्थित राजापुर को ही गोस्वामी तुलसीदास की पावन जन्म-भूमि माना गया है। अभुक्त मूल नक्षत्र में जन्म, जन्मते ही माता की मृत्यु, जन्मावस्था में ही बतीसों दांत होना आदि तथ्य कठिन अर्थ-संकट से गुजरने वाले भिक्षोपजीवी आत्माराम दुबे ने उस अद्भुत नवागत अबोध शिशु सदस्य ‘रामबोला’ के आगमन को हर्षजनक नहीं माना। निष्ठुर पिता ने पत्नी-वियोग के कारण इस अद्भुत ‘रामबोला’ शिशु का मुँह तक न देखा और उसका परित्याग कर दिया।
‘मातु पिता जग जाय तज्यो विधि हू न लिखी कछु भाल भलाई।’
होश संभालने के पूर्व ही जिसके सिर से माता-पिता के वात्सल्य और संरक्षण की छाया हट गयी हो, होश संभालते ही जिसे उदर पूर्ति हेतु एक-एक मुट्ठी अन्न के लिए द्वार-द्वार विलखने को बाध्य होना पड़ा हो, वह भला कैसे समझे कि विधाता ने उसके भाल पर मणि-कंचन का संयोग शब्द भी लिखा है। परन्तु सचमुच ज्ञान और भक्ति के मणि-कंचन संयोग से सम्पन्न व्यक्तित्व तुलसीदास से अधिक भाग्यशाली और कौन होगा, जिसके लिए स्वयं माता अन्नपूर्णा और भगवान शंकर जी व्याकुल होते रहे हो? फलतः भगवान् शंकर की अनुप्रेरणा से ही स्वामी श्री नरहर्यानन्द जी ने प्रखर बुद्धि युक्त बालक ‘रामबोला’ को ढूँढ निकाला। वह ‘रामबोला’ अपने गुरु-मुखारविंद से जो भी कुछ सुन लेता, उसे वह कंठस्थ हो जाता। गुरु नरहर्यानन्द जी ने अयोध्या में संवत 1561 माघ शुक्ल पंचमी, शुक्रवार को ‘रामबोला’ का विधिवत यज्ञोपवीत-संस्कार सम्पन्न कराया। अब वह बालक ‘तुलसीराम’ बन गया। फिर गुरु-शिष्य दोनों शूकरक्षेत्र (सोरों) पहुँचे। वहाँ स्वामी नरहर्यानन्द बाबा ने बालक तुलसीराम को राम-कथा सुनायी और श्रीराम कथा कहने तथा प्रचारित करने का आदेश दिया।
तत्पश्चात शेष सनातन जी के पास रहकर उन्होंने वेद-वेदांग का भी अध्ययन किया। सम्वत् 1583 ज्येष्ठ शुक्ल त्रियोदश तिथि गुरुवार को 29 वर्ष की आयु में भारद्वाज गोत्र के पं॰ दीनबंधु पाठक एवं दयावती की अति सुंदर कन्या रत्नावली के साथ तुलसीराम का विवाह हुआ। एक दिन पत्नी रत्नावली के नैहर चले जाने के कारण उसकी याद में कातर तुलसीराम भयंकर अँधेरी रात में उफनती यमुना नदी को तैरकर सीधे अपनी पत्नी के शयन-कक्ष में जा पहुँचे। इतनी रात के सन्नाटे में अपने पति को अपने कक्ष में आया देखकर रत्नावली लोक-लज्जा आदि के भय से खीझकर उन्हें कठोर शब्दों में धिक्कारी-
‘लाज न आवत आपको दौरे आएहु साथ। धिक्-धिक् ऐसे प्रेम को कहा कहाँ मैं नाथ॥
अस्थि चर्म मय देह मम, ता में ऐसी प्रीति! ऐसी हो श्रीराम में, होत न तो भवभीति॥’
माँ भारती स्वरूपा पत्नी रत्नावली के कठोर शब्दों ने तुलसीराम के अन्तः ज्ञान-चक्षु को खोल दिया। ऐसे में मन में अब अँधेरी रात्रि के गहन तम का अस्तित्व ही कहाँ बचा? तत्क्षण ही उनके पैर पलट गए। उनका भौतिक-प्रेम अब ईश्-प्रेम के अविरल धारा में परिणत हो गया और जा पहुँचे काशीधाम। वहाँ श्रीराममय होकर लोगों को श्रीराम-कथा सुनाते हुए ‘तुलसीदास’ नाम को प्राप्त किए। काशीवास के दौरान ही एक दिन उन्हें श्रीहनुमान जी का दिव्य दर्शन प्राप्त हुआ। फिर उनके परामर्श पर श्रीराम जी के दर्शन की आकांक्षा में जा पहुँचे चित्रकूट। यहीं चित्रकूट में गंगा घाट पर उन्हें प्रभु श्रीराम जी और प्रभु अनुज श्रीलक्ष्मण जी के दिव्य दर्शन प्राप्त हुए। यह विचित्र सत्य ही प्रमाणित करता है कि सच्चे भक्त की भक्ति-पाश में बंधे स्वयं प्रभु भी चले आते हैं। कहा गया है कि भक्त तुलसीदास को प्रभु-दर्शन हेतु सचेत करने के लिए स्वयं श्री हनुमान जी ने कहा था…
‘चित्रकूट के घाट पर, भई संतन की भीर। तुलसीदास चंदन घिसे, तिलक करे रघुवीर॥’
तुलसीदास काव्य-कला के एक मर्मज्ञ थे। उन्होंने प्रभु श्रीराम जी व श्रीलक्ष्मण जी के दिव्य दर्शन को प्राप्त कर प्रभु आदेश को शिरोधार्य कर अयोध्यावासी बने और श्रीराम जी महत्ता को प्रदर्शित करने वाले कई महत्वपूर्ण भक्ति-परक ग्रंथों की रचना की। उन दिव्य रचनाओं से उनकी कवित्व की धाक साहित्य समाज में जम चुकी थी । परंतु भक्त-मन अभी भी लालायित था कुछ विशेष कार्य हेतु। वह पावन बेला भी आ गया। विक्रम सम्वत् 1631 को श्रीरामनवमी के दिन मंगलवार का वही योग था, जैसा कि त्रेता युग में श्रीराम के जन्म काल का था, उस पावन दिवस को महाकवि गोस्वामी तुलसीदास जी ने इस जगत के समस्त मानव को लोक मंगल का मार्ग दिखाने के लिए जनभाषा अवधी में ‘श्रीरामचरितमानस’ महाकाव्य का लेखन प्रारम्भ किया।
‘संवत सोलह सौ एकतीसा। करऊँ कथा हरिपद धरि सीसा।।
नौमी भौम वार मधुमासा। अवधपुरी यह चरित प्रकासा।।
सर्व सम्मानित गीता प्रेस के हनुमान प्रसाद पोद्दार के अनुसार 2 वर्ष 7 माह और 26 दिन में सम्वत 1633 में मार्गशीर्ष शुक्लपक्ष को श्रीराम और जगत जननी सीता माता के विवाह के पावन तिथि को यह महाप्रबंध काव्य पूर्ण हुआ। यह एक महाप्रबंध काव्य-ग्रंथ होते हुए भी अपने माहात्म्य तथा मानव मन को पूर्ण संतुष्ट करने के कारण ही समस्त हिन्दू-जनों के लिए एक पावन धार्मिक पुस्तक के रूप में प्रतिष्ठित हो गया। गोस्वामी तुलसीदास जी ने अपनी इस महान रचना को ‘स्वान्तः सुखाय’ ही माना है…
‘स्वान्तः सुखाय तुलसीदास रघुनाथ गाथा। भाषानिबंधमतिमंजुलमातनोति॥’
परन्तु ‘श्रीरामचरितमानस’ महाग्रंथ महाकवि गोस्वामी तुलसीदास के ‘स्वान्तः सुखाय’ तक ही सिमित न होकर ‘बहुजन हिताय’ बनकर उनके विराट हृदय को प्रतिबिंबित करने लगा। यही कारण है कि आज हर हिन्दू घर-आँगन में ‘श्रीरामचारित मानस’ पवित्र देव तुलसी सदृश ही पूजित और सम्मानीय बना हुआ है। सही भी है कि ‘साहित्य कोई व्यक्तिगत सम्पति न होकर सामाजिक संस्था बन जाती है।’ उस समय के परम विद्वान श्री मधुसुदन सरस्वती जी ने इस महाकाव्य पर अपनी सम्मति देते हुए कहा था, – ‘इस काशी रुपी आनंद वन में तुलसीदास चलता-फिरता तुलसी पौधा है। उसकी कविता रुपी मंजरी बड़ी ही सुंदर है, जिस पर श्रीराम रुपी भँवरा सदा मंडराया करता है।’ आज भी ‘श्रीरामचरितमानस’ प्राणवायु की तरह प्रत्येक हिंदू परिवार के लिए जीवन-स्रोत है। ऐसी भक्ति और काव्य-कला के मणि-कंचन युक्त महामानव गोस्वामी तुलसीदास हिन्दू समाज के लिए परम प्राण-तत्व वाहक ही रहे हैं…
‘नामु राम को कल्पतरु कलि कल्याण निवासु। जो सिमरत भयो मांगते तुलसी तुलसीदास।’
माना जाता है कि बाद में गोस्वामी तुलसीदास जी काशी के विख्यात असीघाट पर रहने लगे, तो एक रात कलियुग मूर्त रूप धारण कर उन्हें पीड़ा पहुँचाने लगा। तब उन्होंने श्रीहनुमान जी का ध्यान किया, जिन्होंने प्रकट होकर उन्हें प्रार्थना के पद रचने को कहा। इसके पश्चात् उन्होंने अपनी अन्तिम कृति ‘विनय-पत्रिका’ लिखी और उसे भगवान श्रीराम जी के चरणों में समर्पित किया। प्रभु श्रीराम जी ने उस पर अपना हस्ताक्षर कर गोस्वामी तुलसीदास जी को निर्भय कर दिया। फिर श्रीराम-श्रीराम का जप करते हुए भक्त-प्रवर गोस्वामी तुलसीदास ने इस इहलोक को त्याग कर श्रीरामलोक में गमन किये। इस सम्बन्ध में कहा जात है…
‘संवत सोलह सौ असी, असी गंग के तीर। श्रावण शुक्ला सप्तमी, तुलसी तज्यो शरीर।’
‘तुलसी तज्यो शरीर’ के उपरांत अब मेरे पास कुछ कहने को और कुछ रह ही नहीं जाता है। अंत में यही लिखकर आज मैं अपनी लेखनी को विराम देना चाहूँगा…
‘जीवन जनम सुफल मम भयऊ। तब प्रसाद संसय सब गयऊ॥
जानेहु सदा मोहि निज किंकर। पुनि-पुनि उमा कहई बिहंगवर॥’
(तुलसी जयंती, श्रावण शुक्ल सप्तमी, 11 अगस्त, 2024)
श्रीराम पुकार शर्मा
अध्यापक व लेखक,
हावड़ा
ई-मेल सम्पर्क – rampukar17@gmail.com
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