श्रीराम पुकार शर्मा । इस गीतांश से राष्ट्रकवि रामधारी सिंह ‘दिनकर’ जी ने उस महान व्यक्तित्व को परिभाषित किया है, जिसके चहरे पर संतों की आभा, अन्तः में दुर्बल जनों की वेदना, सीने में जुल्म के प्रति धधकती ज्वालामुखी और मस्तिष्क में क्रान्ति के बवंडर को समेटे एक साधारण काया वाले व्यक्तित्व, जिसको हम भारतवासी ‘लोकनायक’ जय प्रकाश नारायण या फिर ‘जेपी’ के नाम से जानते हैं। दीर्घ संघर्ष के उपरांत नवनिर्मित स्वतंत्र भारत में लगभग 25 वर्षों में ही कुछ स्वेच्छाचारी शासकों को शायद यह भ्रम हो गया था कि अब भारत की राजनीति-भूमि योद्धाविहीन हो गई है। उनके अत्याचारी और भ्रष्टाचारी कदमों को रोकने वाला अब कोई नहीं रह गया है।
ऐसे में बिहार की वीर प्रसूता भूमि ने एक बार पुनः अपने इतिहास को दुहराते हुए जगदीशपुर के वृद्ध वीर कुँवर सिंह की भाँति ही ‘बूढ़े भारत में आई फिर से नई जवानी’ को चरितार्थ करते हुए 72 वर्षीय अपने एक वृद्ध लाल ‘शेर-ए-बिहार’ ‘लोकनायक’ जयप्रकाश नारायण की बूढ़ी धमनियों में फिर से उष्मित रक्त को प्रवाहित की, जिसने उन अत्याचारी, भ्रष्टाचारी और स्वेच्छाचारी के नापाक शासकीय कदमों को बेड़ियों में जकड़ दिया था। सक्रिय राजनीति से दूर रहने के बाद भी अपने जीवन के तीसरे पड़ाव में ‘शेर-ए-बिहार’ ‘लोकनायक’ जय प्रकाश नारायण 1974 में ‘सिंहासन खाली करो, कि जनता आती है’ के गगन-भेदी बुलंद नारों के साथ पुनः राजनीतिक-समर में उतर पड़े, तो सारा देश ही उनके कदमों के पीछे चलने में अपना सौभाग्य माना। मानो वे किसी संत-महात्मा के पीछे धर्मार्थ पुनः चल पड़े हों।
‘लोकनायक’ जय प्रकाश नारायण’ का जन्म 11 अक्टूबर, 1902 को बिहार के वर्तमान जिला छपरा के सिताबदियारा में गाँधीवादी विचार धारा और कार्यों के पोषक देवकी बाबू तथा फूलरानी देवी के साधारण प्रांगण में हुआ था। इन्हें चार वर्ष तक कोई दाँत न आए थे, जिससे इनकी माताजी इन्हें ‘बऊल जी’ कहा करती थीं। फिर ‘बऊल’ जी ने जब बोलना आरम्भ किया, तो इनकी वाणी की ओज शक्ति से तत्कालीन अंग्रेज शासक कंपित हो गए।
1920 में जयप्रकाश नारायण का विवाह अत्यन्त ही मृदुल स्वभाव और घर-गृहस्ती में निपुण कन्या ‘प्रभावती’ के साथ हुआ। चुकी प्रभावती के पिता ब्रजकिशोर जी अपने अंचल के एक ख्याति प्राप्त गाँधीवादी कार्यकर्ता थे। वे बिहार विधान परिषद के सदस्य तथा बिहार कांग्रेस के अध्यक्ष भी रह चुके थे। महात्मा गाँधी के चम्पारण प्रवास के समय वे अपनी किशोरी पुत्री प्रभावती के साथ ही बापू से अक्सर मिलने जाया करते थे। गाँधी जी का पिता-पुत्री के प्रति अपार स्नेह था। इस प्रकार से प्रभावती देवी में विवाह के पूर्व से ही देश की आजादी के संघर्ष के लिए विशेष कार्य-शक्ति की नींव पड़ चुकी थी।
जयप्रकाश नारायण जलियाँवाला बाग़ नरसंहार (1919) के प्रति विरोध जताते हुए सरकारी स्कूल को छोड़कर पूर्णतः स्वदेशी ‘बिहार विद्यापीठ’ में भर्ती हुए। फिर उच्च शिक्षा के लिए वह अमेरिका के ‘कैलिफोर्निया विश्वविद्यालय’, बरकली तथा ‘विसकांसन विश्वविद्यालय’ में भर्ती हुए थे। वही पर वे मार्क्सवादी विचार धारा से गहरे प्रभावित भी हुए थे। जयप्रकाश नारायण के मन में अपने देश को आजाद देखने की बड़ी ही ललक थी। यही वजह रहा कि स्वदेश लौटते ही 1929 में तत्कालीन ‘कांग्रेस पार्टी’ में शामिल होकर स्वाधीनता आंदोलन में सक्रिय हो गए। भारत में ब्रिटिश हुक़ूमत के ख़िलाफ़ ‘सविनय अवज्ञा आंदोलन’ में भाग लेने के कारण 1932 में उन्हें एक वर्ष की क़ैद हुई। रिहा होने पर उन्होंने कॉंग्रेस के भीतर ही वामपंथी विचारधारा से संबंधित ‘कांग्रेस सोशलिस्ट पार्टी’ के गठन में उन्होंने अग्रणी भूमिका निभाई।
द्वितीय विश्व युद्ध में अंग्रेजों की ओर भारत की भागीदारी का उन्होंने कड़ा विरोध किया। फलतः उन्हें गिरफ्तार कर लिया गया। नौ महीने के बाद जेल से रिहा होने पर उन्होंने पुनः आंदोलन का नेतृत्व किया। 1939 में उन्हें राम मनोहर लोहिया के साथ पुनः गिरफ़्तार कर लिया गया और हजारीबाग के जेल में बंद कर दिया गया। जहाँ से ‘भारत छोड़ो आंदोलन’ के दौरान दीपावली की रात में अपने छ: सहयोगियों के साथ जेल परिसर को लांघ गये।
जयप्रकाश नारायण ने स्वतंत्रता संग्राम में हथियारों के उपयोग को सही समझा। इसके लिए उन्होंने नेपाल जाकर ‘आज़ाद दस्ते’ का गठन किया और उसे प्रशिक्षण दिया। उन्हें राममनोहर लोहिया के साथ पुनः सितम्बर 1943 में गिरफ्तार कर लिया गया। दोनों को लाहौर की काल कोठरी में रखा गया, जहाँ इन्हें कुर्सी पर बांधकर पिटाई की गई थी। बाद में दोनों को आगरा जेल में स्थान्तरित किया गया। दोनों को अप्रेल 1946 को रिहा किया गया था।
भारतीय स्वतंत्रता सेनानियों के बलिदान और अथक प्रयास के फलस्वरूप 15 अगस्त, सन् 1947 को हमारा देश आज़ाद हो गया। जयप्रकाश नारायण ने तब आचार्य नरेंद्र देव के साथ मिलकर 1948 में ‘ऑल इंडिया कांग्रेस सोशलिस्ट’ की स्थापना की। भारत के स्वतंत्र होने के बाद उन्होंने चुनावी राजनीति से स्वयं को अलग ही कर लिया। 1950 के दशक में ‘राज्यव्यवस्था की पुनर्रचना’ नामक एक पुस्तक लिखी थी, जिसमें सत्ता के विकेन्द्रीकरण की बात कही गई थी। जिसके आधार पर ही नेहरू ने ‘मेहता आयोग’ का गठन किया था।
जयप्रकाश नारायण ने 19 अप्रेल, 1954 में गया, (बिहार) में विनोबा भावे के ‘सर्वोदय आन्दोलन’ के लिए अपना जीवन समर्पित करने की घोषणा की। लेकिन बाद में लोकनीति के पक्ष में 1960 के दशक के अंतिम भाग में वे राजनीति में पुनः सक्रिय हो गए। ऐसे ही समय उनकी धर्म पत्नी श्रीमती प्रभावती पटना में एकाकी जीवन व्यतीत करते हुए कैंसर रोग से पीड़ित होकर 15 अप्रैल 1973 को इस दुनिया से चल बसीं, जिससे उनको गहरा झटका लगा। किन्तु इसके बावज़ूद भी वे देश की सेवा में एक बहादुर सिपाही की तरह लगे रहे।
1974 में बिहार में ‘किसान आन्दोलन’ का नेतृत्व करते हुए उन्होंने तत्कालीन बिहार सरकार से इस्तीफे की मांग की। 9 अप्रैल को पटना के गाँधी मैदान में उन्हें ‘लोकनायक’ की उपाधि प्रदान की गयी और अब वे ‘लोकनायक’ जयप्रकाश नारायण बन गये। ‘लोकनायक’ जयप्रकाश नारायण तत्कालीन प्रधान मंत्री इंदिरा गाँधी की प्रशासनिक नीतियों के विरुद्ध थे, जिसके कारण सम्पूर्ण देश में बढ़ती मंहगाई सहित कई बुनियादी और प्रशासनिक आवश्यकताओं की कमी हो चली थी। चुकी 1975 में निचली अदालत में इंदिरा गाँधी पर चुनावों में भ्रष्टाचार के आरोप सत्य साबित हो गए थे। अतः जयप्रकाश ने उनके इस्तीफ़े की माँग की।
अतः गिरते स्वास्थ्य के बावजूद भी ‘लोकनायक’ जयप्रकाश नारायण ने साधारण जन के हितार्थ तत्कालीन ‘कानी और बहरी’ सत्ता के खिलाफ आवाज उठाने का फैसला किया। फिर 5 जून 1974 के दिन पटना के गाँधी मैदान में उन्होंने विशाल सभा की, जिसमें औपचारिक रूप से ‘संपूर्ण क्रांति’ की घोषणा करते हुए इंदिरा गाँधी की सत्ता को उखाड़ फेंकने का आह्वान किया, –
“भ्रष्टाचार मिटाना, बेरोजगारी दूर करना, शिक्षा में क्रांति लाना आदि ऐसी चीजें हैं, जो आज की प्रशासनिक व्यवस्था से पूरी नहीं हो सकतीं, क्योंकि वे सब इसी व्यवस्था की ही उपज हैं। वे तभी पूरी हो सकती हैं, जब पूरी व्यवस्था को ही बदल दी जाए और पूरी व्यवस्था के परिवर्तन के लिए एक विराट ‘सम्पूर्ण क्रान्ति’ की आवश्यकता है।”
हलाकि प्रारंभ में ‘सम्पूर्ण क्रांति’ का उद्देश्य सामाजिक न्याय, जाति व्यवस्था तोड़ने, जनेऊ हटाने, नर-नारी में समता लाने, अन्तर्जातीय विवाह आदि से संबंधित मूलतः सात विभिन्न क्रांतियाँ शामिल थीं, यथा – राजनैतिक, आर्थिक, सामाजिक, सांस्कृतिक, बौद्धिक, शैक्षणिक व आध्यात्मिक क्रांति पर बाद में इसमें शासन व प्रशासन का तरीका बदलने, राइट टू रिकॉल को भी शामिल कर लिया गया। तब तत्कालीन शासन व्यवस्था में आमूल परिवर्तन ही ‘सम्पूर्ण क्रांति’ का उद्देश्य बन गया।
इसके बदले में इंदिरा गाँधी ने राष्ट्रीय आपातकाल की घोषणा कर दी और जयप्रकाश नारायण सहित अन्य लगभग 600 से अधिक विपक्षी नेताओं तथा क्रांति विचार पोषक जनों को गिरफ़्तार कर लिया गया। प्रेस पर सेंसरशिप लगा दिया गया था। ऐसे में जो आंदोलन ‘संपूर्ण क्रांति’ का लक्ष्य लेकर चला था, वह चुनाव के मैदान में शक्ति परीक्षण में बदल गया। फिर तो बिहार से उठी ‘सम्पूर्ण क्रांति’ की चिंगारी “सिंहासन खाली करो कि जनता आती है” देश के कोने-कोने में आग बनकर भड़क उठी। अब तक जयप्रकाश नारायण घर-घर में क्रांति का पर्याय बन चुके थे। लालू प्रसाद, नीतीश कुमार, रामविलास पासवान, सुशील मोदी आदि जैसे नेताओं का उसी क्रांति में प्रादुर्भाव हुआ है।
‘सम्पूर्ण क्रांति’ की तपिश इतनी भयानक थी कि ‘लोकनायक’ जयप्रकाश नारायण की हुंकार पर नौजवानों का जत्था शहरों-गाँवों की सड़कों पर निकल पड़ा था। दिल्ली के रामलीला मैदान में एक लाख से अधिक लोगों ने जयप्रकाश नारायण की गिरफ्तारी के खिलाफ हुंकार भरी थी। जेल में उनकी तबीयत और भी खराब हो जाने के कारण 7 महीने बाद उनको जेल से मुक्त कर दिया गया था। उनकी पत्नी को भी गिरफ़्तार कर लिया गया था और उन्हें भी दो वर्ष की सज़ा हुई थी। स्थिति को बिगड़ते देखकर जनवरी 1977 को आपातकाल हटा लिया गया था।
परंतु वर्ष 1977 में देश में जो आम हुआ चुनाव हुआ, उसमें ‘लोकनायक’ जयप्रकाश नारायण के प्रभाव से ही जनता ने नेताओं को पीछे करते हुए इंदिरा गाँधी को हरा दिया। “संपूर्ण क्रांति” के कारण देश में पहली बार गैर-कांग्रेसी सरकार बनी। इस क्रांति का प्रभाव न केवल देश में, बल्कि दुनिया के तमाम छोटे देशों पर भी पड़ा था। उन्होंने देश को अन्धकार से प्रकाश की ओर लाने का सच्चा प्रयास किया था, जिसमें वह पूरी तरह से सफल रहे थे। उन्होंने न सिर्फ भारतीय राजनीति को, बल्कि आम जनजीवन को भी एक नई दिशा दी और समयानुसार कई नए राजनीतिक मानक भी गढ़े हैं। राष्ट्रीयता की भावना एवं नैतिकता की स्थापना ही उनका परम लक्ष्य था। उनके समाजवाद का नारा आज भी विभिन्न राजनीतिक दलों में गूँज रहा है।
‘लोकनायक’ जयप्रकाश नारायण ने कभी सत्ता की राजनीति नहीं की, सदैव भ्रष्टाचार के खिलाफ लड़ाई लड़ी, सादगीपूर्ण जीवन जिया, धन संचय नहीं किया और जनता के लोकतांत्रिक अधिकारों की हमेशा रक्षा की थी। लेकिन उन्ही को अपना राजनीतिक गुरु मानकर लालू यादव, नीतीश कुमार आदि मुख्य मंत्री के पद तक की यात्रा तय की, जबकि राम विलास पासवान, जार्ज फर्नांडिस, सुशील कुमार मोदी आदि जैसे नेता सड़क से संसद तक पहुँचने में कामयाब हुए हैं। आज तो इन नेताओं के परिजन और वंशज आदि भी सत्ता के स्वामी बने हुए अभिजात्य जीवन का सुख भोग रहे हैं। लेकिन सत्ता के लोभ में उनके विचारों और सपनों की रोज ही हत्या हो रही है।
भारत का यह लोकतंत्र का प्रहरी, भारतीय राजनीति का सितारा, स्वप्नदर्शी और ‘शेर-ए-बिहार’ ‘लोकनायक’ जय प्रकाश नारायण डायबिटीज और ह्रदय सम्बंधित विकार से पीड़ित रहें, परंतु उन्होंने अपनी इलाज के लिए सरकारी सहायता स्वीकार न की और 77 वर्ष की आयु में वह माँ भारती का अमर पुत्र 8 अक्टूबर, 1979 ई. को पटना में चिरनिन्द्रा में सो गया। भारत के स्वतंत्रता संग्राम में महत्त्वपूर्ण योगदान तथा सामाजिक विकास कार्य हेतु ‘लोकनायक’ जयप्रकाश नारायण को 1965 में ‘रमण मैग्सेसे पुरस्कार’ से सम्मानित किया गया था । एफ. आई. फाउंडेशन की ओर से ‘राष्ट्र भूषण’ सम्मान और 1999 में मरणोपरान्त भारत सरकार ने उन्हें देश का सर्वोच्च सम्मान ‘भारत रत्न’ से सम्मानित किया था।
‘लोकनायक’ जयप्रकाश नारायण आज भी अपनी “सम्पूर्ण क्रांति” तथा उनकी स्मृति में बनाए गए संस्थानों, जैसे – जयप्रकाश नारायण विश्वविद्यालय, छपरा, (बिहार), लोकनायक जयप्रकाश विमानक्षेत्र, पटना, (बिहार), जयप्रकाश नारायण अंतर्राष्ट्रीय हवाई अड्डा, पटना, (बिहार), लोकनायक जयप्रकाश नारायण राष्ट्रीय अपराधशास्त्र एवं विधि-विज्ञान संस्थान, (नयी दिल्ली) आदि के साथ हम भारतीयों के मन में सदैव जीवित हैं और जीवित रहेंगे।
श्रीराम पुकार शर्मा
हावड़ा (पश्चिम बंगाल)
ई-मेल सम्पर्क – rampukar17@gmail.com