कोलकाता। भारत में कुल 51 शक्ति पीठ हैं। इनमें से 5 (बक्रेश्वर, नलहाटी, बन्दीकेश्वरी, फुलोरा देवी और तारापीठ) पश्चिम बंगाल के बीरभूम जिला में हैं। तारापीठ (Tarapith Temple) उनमें सबसे जागृत शक्तिपीठ है। बीरभूम जिला धार्मिक रूप से बहुत प्रसिद्ध है। तारापीठ यहां का सबसे प्रमुख धार्मिक तीर्थस्थल है और यह एक सिद्धपीठ भी है। यहीं पर सिद्ध पुरुष वामाखेपा (Bamakhepa) का जन्म हुआ था। उनका पैतृक आवास आटला गांव में है, जो तारापीठ मंदिर से 2 किमी की दूरी पर स्थित है। कहते हैं कि वामाखेपा को मंदिर के सामने महाश्मशान में मां तारा देवी के दर्शन हुए थे। वहीं पर वामाखेपा को सिद्धि प्राप्त हुई और वह सिद्ध पुरुष कहलाये। मां तारा, काली माता का ही एक रूप है।
मंदिर में मां काली की प्रतिमा की पूजा मां तारा के रूप में की जाती है। संत साधक वामाखेपा के लिए भी तारापीठ को जाना जाता है। उनकी पूजा भी मंदिर में की जाती है। वह श्मशान घाट में रहते थे और कैलाशपति बाबा के मार्गदर्शन में तांत्रिक कला के साथ-साथ सिद्ध योग भी करते थे, जो एक और बहुत प्रसिद्ध संत थे। वामाखेपा ने अपना जीवन मां तारा की पूजा के लिए समर्पित कर दिया था। तारापीठ से 2 किलोमीटर दूर स्थित आटला गांव में सन् 1244 के फाल्गुन माह में शिव चतुर्दशी के दिन वामाखेपा का जन्म हुआ था।
उनके पिता का नाम सर्वानंद चट्टोपाध्याय था तथा माता का नाम राजकुमारी था। इनका बचपन का नाम वामाचरण था। वामाचरण ने बाबा कैलाशपति के आश्रम में जाकर गांजा तैयार किया। 18 वर्ष की अल्पायु में विश्वास के बल पर वामाखेपा को सिद्धि प्राप्त हुई और वे संसार में पूज्य हुए। जिस प्रकार परमहंस रामकृष्ण परमहंस को दक्षिणेश्वर में मां काली के दर्शन हुए थे। उसी प्रकार वामाखेपा को तारापीठ के महाश्मशान में मां तारा ने दर्शन दिया था। वामाखेपा प्यार से तारा मां को बोड़ो (बड़ी) मां बुलाते थे। अपनी मां को छोटो (छोटी ) मां कहते थे।
तारापीठ का पौराणिक इतिहास : तारापीठ से एक और पौराणिक इतिहास जुड़ा है। कहा जाता है कि वर्ष 1274 में बंगाल में कौशिकी अमावस्या को तारापीठ महाश्मशान में श्वेतशिमुल वृक्ष के नीचे संत बामाखेपा ने सिद्धि प्राप्त की थी। उस दिन ध्यान कर रहे बामाखेपा को मां तारा ने दर्शन दिया था। महिषासुर के अत्याचार से देवता की रक्षा के लिए मां दुर्गा का अवतार हुआ था। शुंभ-निशुंभ से धरती को मुक्ति दिलाने के लिए देवी महामाया ने अपनी इच्छा जगायी और देवी कौशिकी का जन्म हुआ। भाद्र मास की अमावस्या तिथि को देवी कौशिकी ने शुंभ-निशुंभ का वध किया। तभी से इस अमावस्या को कौशिकी अमावस्या के नाम से जाना जाने लगा। तारापीठ मुख्य मंदिर के सामने ही महाश्मशान है। उसके पास है द्वारिका नदी। भारत की सभी नदियां उत्तर से दक्षिण की ओर बहती हैं, लेकिन यह नदी तारापीठ में दक्षिण से उत्तर की ओर बहती है।
सती की आंख की पुतली गिरी थी यहां : तारापीठ राजा दशरथ के कुलपुरोहित वशिष्ठ मुनि का सिद्धासन और तारा मां का अधिष्ठान है। इसलिए इसे हिंदुओं का महातीर्थ कहते हैं। सुदर्शन चक्र से जब भगवान विष्णु ने मां सती को छिन्न-भिन्न किया था, तब सती की आंख की पुतली (नेत्रगोलक) यहां गिरी थी। नेत्रगोलक को बांग्ला में तारा कहते हैं। इसलिए इस जगह का नाम तारापीठ पड़ा। तारापीठ मंदिर काली के रूप में शिवजी के विनाशकारी पहलू का प्रतिनिधित्व करता है। हिंदू परंपराओं के अनुसार, मां तारा को ज्ञान की 10 देवियों में दूसरा माना जाता है। उन्हें कालिका, भद्रकाली और महाकाली के नाम से जाना जाता है।
यहां पर एक बार रतनगढ़ के प्रसिद्ध वैश्य रमापति अपने पुत्र को लेकर नाव से व्यापार करने आये थे। तारापीठ के पास सर्पदंश से उनके पुत्र की मृत्यु हो गयी. उन्होंने अपने पुत्र के मृत देह को दूसरे दिन दाह संस्कार करने के लिए रखा। उस दिन तारापुर में ही ठहर गये। उनका एक सेवक उनको तारापीठ स्थित एक बड़े तालाब के पास ले गया। उन्होंने वहां आश्चर्यजनक दृश्य देखा। उन्होंने देखा कि मरी हुई मछलियां तालाब के जल के स्पर्श से जीवित हो उठती हैं। यह देखकर उनको बहुत खुशी हुई। वह अपने पुत्र के मृत देह को तालाब में फेंक दिया। उसी समय उनका पुत्र जीवित हो उठा। उसी दिन से उस तालाब का नाम जीवन कुंड पड़ा।
कौशिकी अमावस्या पर होती है तंत्र साधना : तारापीठ को कौशिकी अमावस्या पर होने वाली विशेष पूजा व तंत्र क्रियाओं के लिए जाना जाता है। देश भर से लाखों श्रद्धालु आते हैं. इस बार भी तांत्रिकों ने महाश्मशान में डेरा डाल दिया है। यज्ञ, हवन, सिद्धि की तैयारियां जोरों पर हैं। अमावस्या लगते ही विश्व मंगल की कामना को लेकर विभिन्न मतों के तांत्रिक अपनी-अपनी पद्धति से साधना में जुट जाते हैं। यहां महाविद्या के जानकार, कुंडलिनी जागृत करने वाले योगी-योगिनी पहुंचे हैं। गृहस्थ अपनी मनोकामनाओं की पूर्ति की इच्छा लेकर आ रहे हैं। तंत्र विद्या के जानकार बताते हैं कि कौशिकी अमावस्या की रात ही कुछ समय के लिए स्वर्ग का द्वार खुलता है।