क्या ‘गांधीवाद’ आज भी प्रासंगिक है??

आशा विनय सिंह बैस, रायबरेली। यह बात तो ठीक है कि राजे-रजवाड़ों, नवाबों, रियासतों में बंटे इस देश के लोगों में अंग्रेजों के विरुद्ध आजादी की अलख जगाने और उन्हें एकजुट करने में मोहनदास करमचंद गांधी की महत्वपूर्ण भूमिका रही है। उनके इस प्रयास की भी सराहना होनी चाहिए कि उन्होंने समाज के सभी वर्गों को एक साथ रखने की कोशिश की। हालांकि सफल नहीं हो पाये, यह अलग बात है।

1942 के भारत छोड़ो आंदोलन के पश्चात भारत में ऐसा कोई आंदोलन या क्रांति नहीं हुई जिसके परिणाम स्वरूप अंग्रेजों को भारत छोड़ने पर मजबूर होना पड़ा हो। द्वितीय विश्व युद्ध के पश्चात इंग्लैंड की लगातार खराब होती आर्थिक स्थिति के मद्देनजर उन्होंने लगभग सभी राज्यों को स्वतंत्र कर दिया था। भारतवर्ष भी उनमें से एक था।

शायद इसीलिए ब्रिटेन के तत्कालीन प्रधानमंत्री एक इंटरव्यू में कहते हैं कि – “भारत की आजादी में गांधी का योगदान ‘नगण्य’ था।” लेकिन मैं किसी आक्रांता-व्यापारी का विश्वास क्यों करूं?? मेरा तो यह मानना है कि गांधी ने इस देश को अंग्रेजों के विरुद्ध एकजुट करने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई और उनका आजादी दिलाने में भी महत्वपूर्ण योगदान रहा है। अपने इन्हीं अहिंसक प्रयासों के लिए गांधी को बापू, महात्मा, यहां तक कि ‘राष्ट्रपिता??’ भी कह दिया गया।

‘गांधीवाद’ से मोहनदास को नाम मिला, शोहरत मिली। लेकिन सत्य यह है कि इस देश ने ‘गांधीवाद’ की भारी कीमत चुकाई है। 1948 के कश्मीर युद्ध के दौरान जब भारतीय सेना हरे टिड्डों को रौंदती हुई पूरे कश्मीर पर कब्जा करने की ओर बढ़ रही थी, तब ‘गांधीवाद’ के रोग से ताज़ा-ताज़ा पीड़ित उनके सबसे दुलारे चेले जवाहरलाल नेहरू इस मुद्दे को संयुक्त राष्ट्र संघ में लेकर चले गए। यह विश्व के इतिहास में पहला और अनूठा मामला था जब जीतने वाली सेना न्याय के लिए संयुक्त राष्ट्र संघ में गई हो। उनके उस ‘गांधीवादी’ कृत्य का नासूर हम जम्मू और कश्मीर समस्या के रूप में आज तक भुगत रहे हैं।

1962 का युद्ध भी हम इसी गफलत में हारे कि ‘गांधीवाद’ से ही देश और विश्व का कल्याण हो सकता है। चीन की चालबाज़ियों का जवाब गांधीगीरी से संभव न था। 1965 के युद्ध में भारतीय सेना लाहौर तक तिरंगा फहरा चुकी थी। तभी पता नहीं कैसे गुदड़ी के लाल, लाल बहादुर शास्त्री भी ‘गांधीवाद’ वायरस की चपेट में आ गये (या लाये गए?) और भारतीय सेना के समस्त बलिदानों और पराक्रम के बदले, हमें सिर्फ ताशकंद समझौता नामक एक झुनझुना और लाल बहादुर शास्त्री की संदेहास्पद परिस्थितियों में लाश मिली।

1971 के ऐतिहासिक युद्ध में भारतीय सेना ने पाकिस्तान के 90,000 सैनिकों को घुटने टेक कर आत्मसमर्पण करने पर मजबूर कर दिया था। यह विजय विश्व इतिहास की सबसे बड़ी सैन्य विजयों में से एक थी। तब आधुनिक दुर्गा कही जाने वाली मजबूत नेता इंदिरा गांधी भी ‘गांधीवाद’ के इसी रोग से ग्रसित हो गई और पूरे जम्मू कश्मीर को भारत में मिलाने के एक स्वर्णिम अवसर को इंदिरा के ‘गांधीवाद’ ने आपदा बनाकर रख दिया। जो कुछ भी हम हज़ारों सैनिकों के बलिदान से युद्ध में जीते, वार्ता की टेबल पर गांधीगीरी के कारण हार गए।

1999 के कारगिल युद्ध के दौरान तत्कालीन प्रधानमंत्री और धुर दक्षिणपंथी अटल बिहारी बाजपेई भी पता नहीं कैसे ‘गांधीवाद’ के ज्वर से पीड़ित हो गए थे। उन्होंने एलओसी पार न करने की आत्मघाती घोषणा करके न सिर्फ सेना के हाथ बांध दिए बल्कि एक तरफ से विश्व के समक्ष एलओसी को ही अंतरराष्ट्रीय सीमा भी स्वीकार कर लिया।

वर्तमान समय मे देखें तो दलाई लामा दशकों से गांधीवादी तरीके से तिब्बत को चीन के चंगुल से आजाद कराने की कोशिश कर रहे हैं। परिणाम यह प्राप्त हुआ है कि वह भारत में एक शरणार्थी की निर्वासित जिंदगी जी रहे हैं। निकट भविष्य में भी उनकी गांधीगीरी का कोई सकारात्मक परिणाम आने की संभावना दूर दूर तक नजर नहीं आती है।

वहीं दूसरी ओर इजरायल नेताजी सुभाष की राह पर चलकर तमाम दुश्मनों के बीच गर्व से सीना ताने खड़ा है। अमेरिका भी विश्वनेता इसलिए है कि वह अपने दुश्मनों के सामने चरखा नहीं चलाता बल्कि उनके घर में घुसकर मार देता है। चीन भी इसलिए विश्वशक्ति है क्योंकि वह अपने दुश्मनों पर कोई रहम नहीं करता।

निष्कर्ष यह कि “गांधी-वाद” भाषणों में, किताबों में अच्छा लगता है और “सुभाष-वाद” रियल वर्ल्ड, व्यवहारिकता का सिद्धांत है। गांधी-वाद सुनने और कहने की चीज है और सुभाष-वाद करने की।

#गाँधीजयंती
#लालबहादुरशास्त्रीजयंती

asha
आशा विनय सिंह बैस, लेखिका

(स्पष्टीकरण : इस आलेख में दिए गए विचार लेखक के हैं और इसे ज्यों का त्यों प्रस्तुत किया गया है।)

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