बौद्धिक परिसंवाद : काश! आज ‘गांधी’ होते

बौद्धिक, शैक्षिक, सांस्कृतिक, सामाजिक तथा साहित्यिक मंच ‘सर्जनपीठ’, प्रयागराज के तत्त्वावधान में 30 जनवरी एक राष्ट्रीय आन्तर्जालिक बौद्धिक परिसंवाद ‘काश! आज ‘गांधी’ होते’ विषय पर आयोजन किया गया, जिसमें देश के साहित्यकारों, पत्रकारों, शिक्षकों, राजनेताओं तथा अधिकारियों की प्रभावकारी सहभागिता रही। डॉ० नीलम जैन (विचारक-चिन्तक, पुणे) का मत है, ” गांधी शरीर नहीं, बल्कि आत्मा है। वह एक ऐसी जीवनी है, जिससे ऊर्जा मिलती है। एक नाम, जो सम्मान और अभिमान का सूचक है, वे एक अप्रतिम संत, अजेय योद्धा तथा कर्मयोगी थे। उस समय संचार का कोई माध्यम नहीं था, तब भी गांधी जी की आवाज़ पूरे विश्व में गूँजी थी। भारत की अहिंसा और सत्याग्रह की शक्ति को विश्व ने पहचाना और स्वतन्त्र भारत माता के भाल पर स्वतन्त्रता का कुमकुम तिलक लगा। यह इसीलिए सम्भव हुआ कि गांधी जी मन-वचन-कर्म से एक थे। उनमें नेतृत्व के गुण थे और अपने देश के लिए सत्यनिष्ठ समर्पणभाव भी। उन्हें अपनी भाषा, संस्कृति तथा अस्मिता प्रिय थी। सद्गुणों के कारण संयम और निष्ठा में जो आत्मबल था, उसके सम्मुख अच्छे-अच्छे ने घुटने टेक दिये थे। गांधी जी को हमने नहीं देखा था; परन्तु हर भारतीय के आत्मा में वे बसते हैं। आज के संदर्भ में जिन भावों के विचारों के कर्म के गवाक्ष उन्होंने खोले हैं, यदि हम निष्ठा, समर्पण तथा ईमानदारी से उन पर चलें आज भी हमारा देश विश्वगुरु बन सकता है। आज अहिंसा की तिजोरी ख़ाली है; हिंसा का ताण्डव जारी है नेताओं का चारित्रिक पतन हो चुका है; भ्रष्टाचार का बोलबाला है। यदि आज देश को गांधी जी-जैसा नेतृत्व मिल जाये तो भारत सोने की चिड़िया बनकर आज भी संसार में चमक सकता है।”

श्री विश्वेश्वर कुमार (वरिष्ठ पत्रकार, वाराणसी) ने कहा,”राष्ट्रपिता महात्मा गांधी हर युग और कालखण्ड में प्रासंगिक रहे हैं और रहेंगे। हम केवल उन्हें उनकी जन्म-निधन-तिथियों तथा चुनाव के समय स्मरण करते हैं, जबकि आज उनके मूल्य सर्वाधिक प्रासंगिक हैं। राष्ट्रपिता आज जीवित होते तो दो महीने से देश की राजधानी घेरकर बैठे अन्नदाताओं के बीच ज़रूर जाते, उन्हें खेतों की ओर लौट आने को राज़ी करते और लालक़िला पर उपद्रव करनेवालों को उसका राष्ट्रीय महत्त्व बताते। दिल्ली पुलिस से भी पूछते कि गणतन्त्र- दिवस पर ट्रैक्टर परेड की अनुमति किस ख़ुशी में दी थी और जब ख़ुफ़िया-सूचना विपरीत थी तब उसे रोकने का पुख़्ता प्रबन्ध किया। एक बात और, देशभर में पत्रकारों और सम्पादकों पर दर्ज़ किये जा रहे केस से बापू कभी सहमत नहीं होते।”

श्री अशोकचन्द्र दुबे ‘अशोक’ (प्रधान सम्पादक– ‘विप्रवाणी’, भोपाल) ने बताया, “गांधी रोम-रोम अहिंसा वादी थे। उन्हें किसी भी मूल्य पर हिंसा स्वीकार नहीं थी। आज निश्चय वे बहुत व्यथित होते। वे केवल अपने साथ सत्य के प्रयोग करते थे। किसानों और सरकार के अपने-अपने सत्य हैं। इन सबसे परे वे केवल किसानों की हर बात (हिंसा छोड़ कर) स्वीकार करने को तैयार होते। उनका उद्देश्य केवल शान्ति होता, जिसके लिए वे सत्याग्रह भी करते और सरकार को विवश भी करते। हाँ, तुष्टीकरण से प्राप्त शान्ति की आयु कितनी होती, यह अलग विषय है।”

श्री रमाशंकर श्रीवास्तव (विचारक और वरिष्ठ पत्रकार, प्रयागराज) के अनुसार, “वर्तमान सदैव भूतकाल से प्रभावित होता है।आज भी गांधी जी की उतनी ही प्रासंगिकता है जितनी उनके काल में थी। आज अगर उनकी उपस्थिति होती तो शायद राजनैतिक, सामाजिक तथा मानवीय मूल्यों में इतनी गिरावट नहीं आयी होती, साथ ही राष्ट्रीय विकास की स्थिति भी कुछ और ही होती। पर्यावरण-ह्रास की भी स्थिति ऐसी न होती। आज हम ऐसी कल्पना ही कर सकते हैं; क्योंकि गांधी एक नाम ही नहीं, अपितु विचार भी है, सत्य, अहिंसा से ओतप्रोत और राष्ट्रीय भावना से भी परिपूर्ण है और सदैव भूतकाल से प्रभावित होता है।आज भी गांधी जी की उतनी ही प्रासंगिकता है जितनी उनके काल में थी। आज अगर उनकी उपस्थिति होती तो शायद राजनैतिक, सामाजिक तथा मानवीय मूल्यों में इतनी गिरावट न आयी होती,साथ ही राष्ट्रीय विकास की स्थिति भी कुछ और होती और पर्यावरण की भी स्थिति ऐसी न होती।आज हम सिर्फ ऐसी कल्पना कर सकते हैं। वस्तुत: गांधी एक नाम ही नहीं, अपितु विचार भी है, जो सत्य, अहिंसा तथा प्रेम से ओतप्रोत है; राष्ट्रीय भावना से भी परिपूर्ण है।”

डॉ० प्रदीप चित्रांशी (साहित्यकार, प्रयागराज) ने कहा, “आज गांधी होते तो उस लाचार बाप की तरह होते, जिसके बच्चे उसके द्वारा निर्मित घर के आँगन में कई दीवारें खड़ी कर देते हैं और वह भीष्म पितामह की तरह मात्र मूकदर्शक बना रह जाता है।विकास के नाम पर गांधी जी से उनका चश्मा छीन लेना, इसी बात का द्योतक है। दूसरे शब्दों में कह सकते हैं कि यदि आज गांधी होते तो गाँवों के शहरीकरण का विरोध करते हुए, लघु ,मध्यम तथा बड़े उद्योगों का जाल ग्रामीण भारत में बिछवाकर गाँव को ”आत्मनिर्भरता’ की ले गये रहते। वे भारत राष्ट्र में संकुचित विचारधारा का विरोध करते हुए, वास्तविक ‘साम्यवाद’ और ‘समाजवाद’ की स्थापना कराते।

प्रो० शिवप्रसाद शुक्ल (हिन्दी एवं आधुनिक भारतीय भाषा-विभाग, इलाहाबाद विश्वविद्यालय, प्रयागराज) का विचार है, गांधी जी का ट्रस्टीशिप नेताओं के लिए हथियार है। उनके अनशन सत्याग्रह का आज ख़ूब दुरुपयोग हो रहा है। गांधी तो एक ही धोती से काम चलाते थे, जबकि उनके नुमाइंदे हर पल सूट बदल कर भाइयो-बहनो को संबोधित करके चूना लगा रहे हैं। गांधी ने अपने परिवार के लिए कुछ नहीं किया। आज लोकतन्त्र के नाम पर वंशवाद का बोलबाला है। आज गांधी के ट्रस्ट ने निगमिक पूँजी का रास्ता पकड़ लिया है। निगमिक पूँजी के बहाने रियासतीकरण स्थापित किया जा रहा है, जो सामन्ती व्यवस्था से कहीं ज़्यादा क्रूर है। आज गांधी नहीं हैं; परंतु उनके नुमाइंदे जो घिनौनी हरकतें कर रहे हैं, उसकाृवं खुलासा होना चाहिए, यही सच्ची श्रद्धांजलि होगी।”

डॉ० सरोज सिंह (सहायक आचार्य– हिन्दी-विभाग, सी० एम० पी० डिग्री कॉलेज, प्रयागराज) के विचारानुसार, “आज गांधी होते तो उनका “सर्वधर्म समभाव” प्रतिष्ठित होकर भारत की अनेकता में एकता की भावना को सुदृढ़ करता। उनकी उस देन को विस्मृत नहीं किया जा सकता। वे कदाचित् आधुनिक भारत के पहले राजनेता थे, जिन्होंने धर्म और राजनीति का समन्वय किया था। गांधी जी ने समस्त मानवता के सामने एक ऐसा दृष्टान्त प्रस्तुत किया था, जिसमें धर्म, राजनीति तथा अर्थनीति से सबसे ऊपर मनुष्य की सत्ता है, हम किसी यान्त्रिक सिद्धान्त से सत्यान्वेषण नहीं कर सकते। मानव के अन्दर निहित ईश्वरीय तत्त्व का समुचित उद्घाटन ही समस्त मानव-व्यापार का ध्येय होना चाहिए। गांधीवाद केवल व्यवस्था का संकेत नहीं है, बल्कि मानवता के हेतु दिया हुआ संदेश भी है।”

डॉ० संगीता बलवन्त (साहित्यकार और विधायक, ग़ाज़ीपुर सदर) ने कहा, ” महात्मा गांधी का व्यक्तित्व विराट् था। वे राजनैतिक और आध्यात्मिक नेता थे। “हे राम” कहकर गांधी जी अपने प्राण त्यागे थे। आज अयोध्या में राममन्दिर का निर्माण हो रहा है। रामभक्तों में अपार हर्ष है। काश! राम मंदिर निर्माण के इस पावन बेला में गांधी जी होते ।गांधी जी होते तो सब कुछ खोकर पैसे के पीछे भाग रही वर्तमान पीढ़ी के लिए उनकी सादगी और मितव्ययिता का साक्षात् उदाहरण होते। गांधी जी “कर्म ही पूजा है” को जीवन का सूत्र मानते थे। आज गांधी जी होते तो ग़लत तरीक़े से जीवन में आगे बढ़ने वाले लोग के लिए अपने सत्य के प्रयोग से आदर्श प्रस्तुत करते।”

सुश्री अंजु चन्द्रामल (कवयित्री और नायब तहसीलदार, बलिया) ने कहा, “आज गांधी होते तो वे देखते कि आज किस तरह से उनके तीन बन्दरों की बानगी का ग़लत प्रयोग हो रहा है; क्योंकि जनता को उन्हीं की तरह निरीह बना दिया गया है। जनता न सच देखने के क़ाबिल रही; न सच बोलने और सुनने के। बापू! एक बार फिर से आ जाइए, हमें स्वच्छन्दता से स्वतन्त्रता दिलाने।”

डॉ० संगीता श्रीवास्तव (सचिव– महापण्डित राहुल सांकृत्यायन शोध एवं अध्ययन-केन्द्र, वाराणसी) ने कहा, “काश ! आज अगर महात्मा गांधी होते तो भारत का परिदृश्य भिन्न होता ।अगर गांधी होते तो रामराज की परिकल्पना अवश्य पूर्ण होती । समाज के हर वर्ग का उत्थान और विकास होता । समाज “वसुधैव कुटुंबकम” की भावना से प्रेरित होता। आज अगर गांधी होते तो भारत सत्य और अहिंसा से विरत न होता। भारत स्वावलंबी,और आत्मनिर्भर होता तथा पूर्ण ‘स्वच्छ भारत’ का सपना साकार होता। नारी-जाति के प्रति सम्मान और उत्कर्ष की कल्पना ,जो उन्होंने भारत के संविधान की प्रस्तावना के माध्यम से की थी, वह पूर्ण होती, जिसकी समाज में कहीं-न-कहीं कमी दिखायी देती है। आज़ादी के इतने वर्षों-बाद भी भारत भाषावाद, क्षेत्रियता, वर्गभेद,जातिभेद तथा अस्पृश्यता -जैसी विकट सामाजिक सरोकारों से न जूझता। हरिजन के उत्थान की जो कल्पना उन्होंने की थी, वह पूर्ण होती। उनका मानना था कि भारत कृषि-प्रधान देश है तथा गाँवों और किसानों की ख़ुशहाली देश की समृद्धि का आधार है।आज अगर गांधी होते तो देश में समभाव, धार्मिक सहिष्णुता, एकता, अखण्डता, भाईचारा तथा सौहार्द होता।”

श्रीमती शकुन्तला चौहान (सहायक आचार्य– हिन्दी-विभाग, आई० बी० पी० जी० कॉलेज, पानीपत) ने बताया,” महात्मा गांधी जी के जीवन और कार्यशैली ने विश्व के महान् समाज-सुधारकों, राजनेताओं तथा सामाजिक- राजनैतिक आन्दोलनों को प्रेरित करने में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभायी थी। आज हमारे देश में किसान अपने हित के रक्षा-हेतु आन्दोलन कर रहे हैं। ‘किसान आन्दोलन’ को एक लोकतान्त्रिक चेतना मानकर, हमें इसका स्वागत करना चाहिए। सरकार इसे अपनी हार-जीत के रूप में देख रही है। आज गांधी जी होते तो सबसे पहले ऐसी सरकारों की शुचिता तथा राष्ट्र में शान्ति, सद्भाव तथा समता सुनिश्चित करने में जुट जाते। गांधी जी बताते कि संसार के लिए ‘किसान’ की महत्ता क्या है? उनके प्रति लोकतन्त्र में लोक और तन्त्र की भूमिका क्या है? वे कड़ुवी सच्चाई बताने का काम जारी रखते। वे सत्य और अहिंसा के बल पर सरकार को चेतावनी देते रहते। गांधी जी सत्य, शान्ति तथा अहिंसा का परिचय देते हुए, सत्य का संघर्ष अहिंसात्मक तरीक़े से करने की प्रेरणा देते। आज एक बार फिर से गांधी जी के मार्ग पर चलने की आवश्यकता है।”

आचार्य पं० पृथ्वीनाथ पाण्डेय (आयोजक, प्रयागराज) ने कहा, “गांधी जी का मूल सिद्धान्त :– सत्य, अहिंसा तथा प्रेम आज व्यवहार-स्तर पर अत्यन्त शिथिल हो चुका है, जिसके कारण आज देश आर्थिक और बौद्धिक पराधीनता की ओर बढ़ चुका है। देश का नागरिक अथवा संघटन सत्य के प्रति शासन से आग्रह भी करता है तो उसके विरुद्ध इतने षड्यन्त्र रच दिये जाते हैं कि वह शासन की ओर से ‘नक्सली’, ‘माओवादी’, ‘आतंकवादी’, ‘देशद्रोही’ इत्यादिक आपराधिक धाराओं की चक्की में पीसता चला जाता है। शासन अपने नाना शक्तिशाली तन्त्रों के माध्यम से उसकी मानसिक शान्ति का अपहरण करा लेता है। इतना ही नहीं, उसके घर-परिवार को यातनाओं, प्रताड़नाओं तथा अपराधों की अर्गला में जकड़वा देता है, जिससे आहत होकर वह नेक नागरिक दम तोड़ देता है। हम शासन की अनुचित नीतियों का यदि खुला विरोध करते हैं; अपने अधिकारों की माँग करते हैं तो हमें ‘देशद्रोही’ का ‘सम्मान’ मिलता है। समाज में आज जिस तरह से धर्म, जाति, वर्ग, पन्थ, सम्प्रदाय इत्यादिक का विष-वपन कर दिया गया है, यदि गांधी होते तो एक बार फिर से क्रान्ति का मशाल हम सभी के हाथों में होता और केन्द्र-राज्य की सरकारें लोक-नियन्त्रण में रहने के लिए बाध्य रहतीं; क्योंकि ‘गांधी’ बिकते नहीं।”
अन्त में, परिसंवाद-आयोजक ने समस्त सहभागीवृन्द के प्रति अपनी कृतज्ञता ज्ञापित की थी।

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