कितनी बार वही सवाल मन में आता है बात तमाम चिंतन करने वालों की लिखने समझने वालों की है। जितने भी विचारक हुए सभी ने समाज की बातों को जाना समझा और अलग अलग तरह से कोशिश की अपने समय के समाज को बदलने की। पांच सौ हज़ार साल पहले लोग शिक्षित नहीं थे सोचने समझने की सीमा थी तब जानकारी हासिल करना कठिन था जीवन की समस्याओं को समझने की जरूरत ही नहीं महसूस होती थी। विधाता भाग्य और बने बनाये सामाजिक तौर तरीके मूल्यों मान्यताओं को अपनाना नियति लगती थी।
मगर महान समाज सुधारक साधु-संतों सभी ने समाज को बदलने उचित राह चलने और नीति कथाओं बोध कथाओं से सही और गलत का फर्क समझाने की कोशिश की जिस से आसानी से जीवन की वास्तविकता को लोग समझ सकें और जानकार विवेक से सच्चाई अच्छाई के मार्ग पर चलना सीखें। और लगता है तब शायद अनपढ़ सीधे सादे लोग समझने लगते थे और ज़िंदगी समाज को बदलने की चाहत रखते हुए समय के साथ बदलाव करते रहे।
आसान नहीं था सदियों की मान्यताओं परंपराओं को छोड़कर नई सोच को अपनाना मगर दो सौ साल पहले बड़े बड़े विचारक अपनी कलम से नई परिभाषा लिखने लगे थे। अन्याय से टकराने और सच और मानव कल्याण समानता आज़ादी की बुनयादी बातों को महत्व देने लगे थे। साहित्य सृजन का मकसद कोई नाम धन दौलत पाना कदापि नहीं था उन सभी की रचनाओं में दुनिया के तमाम लोगों के दुःख दर्द परेशानियों की बात होती थी। कुछ भी जो गलत होता है क्यों होता है और उसको कैसे बंद किया जाये और जो होना चाहिए उसकी शुरुआत की जानी चाहिए सिर्फ यही चाहते थे कोशिश किया करते थे।
आजकल लोग कहने को पढ़ लिखकर जानकार बन गए हैं भले किताबी ज्ञान वास्तविक ज़िंदगी में किसी काम नहीं आता हो फिर भी सोचने समझने से लेकर तर्क वितर्क करने लगे हैं। सोशल मीडिया से जानकारी सच्ची झूठी हासिल कर खुद को समझदार और जानकार मानते हैं लेकिन हैरानी और विडंबना की बात ये है कि जो पढ़ते हैं सबको समझाते हैं।
लाजवाब ढंग से शानदार संदेश भेज कर किसी और की क्या बात कहें जब खुद उन्हीं पर उन बातों का रत्ती भर असर होता नहीं है। आजकल की ही घटनाओं की बात को ध्यानपूर्वक समझने सोचने से पता चलता है। टीवी पर किसी कलाकार की मौत की घटना से हर कोई विचलित दिखाई देता है अनुमान लगाता है क्या हुआ क्योंकर हुआ कैसे हुआ और क्या होता तो अच्छा होता। टीवी पर किसी शो में भावुक हो जाते हैं दर्शक और आयोजक क्षण भर को।
पलकें भीगती हैं टिशू पेपर से पौंछते हैं और पल बाद अगले दृश्य में नये सीरियल में ठहाके लगाते हैं। संवेदनाएं औपचारिकता बनकर रह गई हैं। समझ नहीं आता जो नज़दीक नहीं जिन से नाता मनोरंजन और समय गुज़ारने या पसंद करने का है उनकी घटनाओं से परेशान विचलित होने वाले वही हम लोग खुद अपने देश समाज गांव शहर घर परिवार दोस्तों संग संग रहने वालों को लेकर विरक्त और संवेदनारहित बन जाते हैं।
अपने पास किसी को बदहाल देख जानना ही नहीं चाहते कोई किसी परेशानी में है तो कैसे हम सहायक बन सकते हैं। ऐसे समय हम जिसकी समस्या हो उसी को दोषी समझने लगते हैं पर्दे पर अनजान अजनबी से सहानुभूति और करीब रहने वालों से उदासीनता दो अलग अलग किरदार हम निभाते हैं अफ़सोस असली दोनों ही नहीं होते हैं। हमारा किरदार बदल जाता है जब हम खुद परेशानी चिंता और समस्या में घिर जाते हैं।
तब जिनसे उम्मीद रखते हैं दिलासा देने और सुःख दुःख बांटने की उनको फुर्सत नहीं होती है व्यर्थ के दुनियादारी के अनावश्यक कार्यों से। मगर मिलने आते हैं रस्म निभाने को भीड़ का इक हिस्सा बनकर और तब संवेदनाएं बनावटी दिखावे की लगती हैं। फरहत अब्बास शाह कहते हैं बदल गए मेरे मौसम तो यार अब आये , ग़मों ने चाट लिया ग़मगुसार अब आये। ये वक़्त इस तरह रोने का तो नहीं लेकिन , मैं क्या करूं कि मेरे सोगवार अब आये।
यही होता है ज़िंदगी भर जिनकी खबर तक नहीं लेते कभी याद नहीं आती कभी बात करना मिलना ज़रूरी समझा नहीं फोन पर कॉल नहीं करते बस व्हाट्सएप्प पर संदेश भेजते रहते हैं दुनिया से चले जाने पर शोकसभा में जाकर फूल चढ़ाते हैं। अंत में इक लघुकथा मेरी लिखी बहुत साल पुरानी है।
फुर्सत नहीं ( लघुकथा ) डॉ. लोक सेतिया
बचपन के दोस्त भूल गये थे महानगर में रहते हुए। कभी अगर पुराने मित्र का फोन आ जाता तो हर बार व्यस्त हूं, बाद में बात करना कह कर टाल दिया करते। कहां बड़े शहर के नये दोस्तों के साथ मौज मस्ती, हंसना हंसाना और कहां छोटे शहर के दोस्त की वही पुरानी बातें, बोर करती हैं। लेकिन जिस दिन एक घटना ने बाहर भीतर से तोड़ डाला तब यहां कोई न था जो अपना बन कर बात सुनता और समझता।
महानगर के सभी दोस्त कहां खो गये पता ही नहीं चला। तब याद आया बचपन का पुराना वही दोस्त। फोन किया पहली बार खुद उसे अपने दिल का दर्द बांटने के लिये। तब मालूम हुआ कि वो कब का इस दुनिया को अलविदा कह चुका है। पिछली बार जब उसका फोन आने पर व्यस्त हूं कहा था तब उसने जो कहे थे वो शब्द याद आ गये आज।
बहुत उदास हो कर तब उसने इतनी ही बात कही थी, “दोस्त शायद जब कभी तुम्हें फुर्सत मिले हमारे लिये तब हम ज़िंदा ही न रहें।” तब सच्चे मित्र को नहीं पहचाना न ही उसकी भावना को समझा, उसका हाल पूछा न उसका दर्द बांटना चाहा तो अब उसको याद कर के आंसू बहाने से क्या हासिल।