विनय सिंह बैस की कलम से : असंसदीय भाषा!!

विनय सिंह बैस, नई दिल्ली। भाषा किसी भी व्यक्ति, समाज या राष्ट्र के चरित्र की प्रथम परिचायक होती है। यह एक ऐसा वस्त्र है जिसको यदि शालीनता से न पहना जाए तो किसी व्यक्ति का संपूर्ण व्यक्तित्व ही निर्वस्त्र हो जाता है। भारतीय लोकतंत्र के सबसे पवित्र मंदिर ‘संसद भवन’ में देश की जनता का प्रतिनिधित्व सांसद करते हैं। वस्तुतः संसद सदस्य लोकतंत्र के सार – रूप हैं। उनकी भाषा में पूरे देश की भाषा परिलक्षित होती है। इसलिए एक सुसंस्कृत देश के संसद की भाषा सदैव ही श्रेष्ठ और मर्यादित होनी चाहिए।

हालांकि संसद सदस्यों के वाक् – स्वातंत्र्य पर प्रतिबंध नहीं होना, संसदीय प्रणाली का अनिवार्य तत्व है ताकि जनता के प्रतिनिधि किसी कानूनी कार्यवाही के भय से मुक्त होकर स्वयं को अभिव्यक्त कर सकें। भारत के संविधान के अनुच्छेद 105(2) में उपबंध किया गया है कि संसद में या उसकी किसी समिति में, संसद के किसी सदस्य द्वारा कही गई किसी बात के संबंध में उसके विरुद्ध किसी न्यायालय में कोई कार्यवाही नहीं की जाएगी। अतः जन – प्रतिनिधि सदन में क्या कहते और बोलते हैं, उसे देश के किसी भी न्यायालय में चुनौती नहीं दी जा सकती है।

संसद की गरिमा को बनाए और बचाए रखने के लिए कुछ शब्दों का इस्तेमाल प्रतिबंधित किया गया है। सिर्फ शब्द ही नहीं बल्कि कुछ हाव-भावों के प्रदर्शन पर भी संसद के अंदर पाबंदी है। संसद सदस्य जो कुछ भी कहते हैं वह संसद के नियमों के तहत, सदस्यों के विवेक (Good Sense) और पीठासीन अधिकारी द्वारा कार्यवाही के अध्यधीन (subject to) है।

लेकिन संसद सदस्य कई बार बोलते हुए ऐसे शब्दों का प्रयोग कर जाते हैं जो सभ्य समाज की मर्यादा के अनुरूप नहीं होते हैं। इन शब्दों और वाक्यों को पीठासीन अधिकारी के आदेश से कार्यवाही वृतांत से बाहर निकाल दिया जाता है।

लोकसभा के प्रक्रिया तथा कार्य संचालक विषयक नियम-380 के अनुसार, “यदि अध्यक्ष की राय है कि बहस में ऐसे शब्दों का प्रयोग किया गया है जो अपमानजनक या अभद्र या असंसदीय या अनिर्दिष्ट हैं, तो संभव है कि अध्यक्ष विवेकाधीन शक्ति का प्रयोग करते हुए इस तरह के शब्दों को सदन की कार्यवाही से बाहर करने का आदेश पारित करें।”

अतः स्पीकर या पीठासीन अधिकारी को विशेषाधिकार प्राप्त होता है कि वह किन तथ्यों और शब्दों को कार्यवाही के अधिकृत रिकॉर्ड में दर्ज होने दे अथवा उन्हें कार्यवाही वृतांत में सम्मिलित नहीं करे। ऐसे ही अधिकार राज्यसभा में सभापति और उप-सभापति तथा विधानसभा अध्यक्षों को भी प्राप्त हैं।

असंसदीय शब्दावली निषेध संबंधी पुस्तक :-
इस पुस्तक को पहली बार वर्ष 1999 में संकलित किया गया था इसमें स्वतंत्रता से पूर्व केंद्रीय विधानसभा, भारत की संविधान सभा, अंतरिम संसद, लोकसभा तथा राज्यसभा में पहली बार ‘असंबद्ध’ घोषित किये गए बहस और वाक्यांशों के संदर्भ शामिल किये गए थे। अंग्रेजी और अन्य भारतीय भाषाओं के असंसदीय वाक्यांश और शब्दों को पीठासीन अधिकारी (लोकसभा अध्यक्ष और राज्य सभा के सभापति) संसद के रिकॉर्ड से बाहर कर देते हैं।

वास्तव में असंसदीय शब्दों या वाक्यांश के संबंध में निर्णय लेने का अधिकार स्पीकर (पीठासीन अधिकारी) के विवेक पर छोड़ दिया जाता है। स्पीकर का कार्य विधानसभा के वाद-विवाद नियमों को लागू करना है, जिनमें से एक यह है कि सदस्य “असंसदीय” भाषा का उपयोग नहीं कर सकते हैं। यानी उनकी बातों से सभा की गरिमा को ठेस नहीं पहुंचनी चाहिए। इस संदर्भ में सहायता हेतु लोकसभा सचिवालय ने वर्ष 2004 में एक नए संस्करण के अंतर्गत ‘असंसदीय अभिव्यक्तियाँ (Unparliamentary Expressions)’ शीर्षक से एक नियमावली प्रकाशित की है। राज्य विधानमंडलों को भी मुख्य रूप से इसी पुस्तक द्वारा निर्देशित किया जाता है।

असंसदीय शब्दावली के उदाहरण :-
1. जिन शब्दों और वाक्यांशों को असंसदीय माना गया है उनमें स्कमबैग (Scumbag), शिट (Shit), बैड (Bad- जैसे संसद सदस्य बुरे व्यक्ति हैं) और बैंडिकूट (Bandicoot) आदि शब्द शामिल हैं।
2. यदि पीठासीन अधिकारी महिला है तो कोई भी संसद सदस्य उसे “प्रिय अध्यक्ष (Beloved Chairperson)” के रूप में संबोधित नहीं कर सकता है। इस संबंध में अभी कुछ माह पूर्व सपा के एक माननीय सांसद द्वारा बिहार राज्य की एक महिला पीठासीन अधिकारी को कहे गए शब्द, विवाद और हंगामें का कारण बन गए थे।
3. सरकार या किसी अन्य संसद सदस्य पर “झांसा देने (Bluffing)” का आरोप नहीं लगाया जा सकता है। रिश्वत, ब्लैकमेल, रिश्वतखोर, चोर, डाकू, लानत, धोखा, नीच, और डार्लिंग जैसे शब्द असंसदीय हैं। इनका प्रयोग संसद सदस्यों के लिये नहीं किया जा सकता है।

4. संसद सदस्य या पीठासीन अधिकारियों पर “कपटी (Double Minded)” होने का आरोप भी नहीं लगाया जा सकता है।
5. संसद सदस्य को ठग, कट्टरपंथी, चरमपंथी, भगोड़ा नहीं कहा जा सकता है। किसी भी सदस्य या मंत्री पर जान-बूझकर तथ्यों को छिपाने, भ्रमित करने या जानबूझकर भ्रमित होने का आरोप नहीं लगाया जा सकता है।
6. किसी भी अनपढ़ संसद सदस्य को ‘अंगूठा छाप’ नहीं कहा जा सकता है।

लोकसभा, राज्यसभा तथा भारत के राज्यों के विधान मंडलों में असंसदीय घोषित किए गए हिन्दी तथा अन्य भारतीय भाषाओं के हिन्दी में अनूदित शब्द और वाक्यांश :-
(क) अध्यक्षपीठ पर आक्षेप (संकेत शब्द तथा वाक्यांश भाग)
1. आप अगर किसी तरह से कोई डंडा चलाना चाहते हो…..
2. आवाज को नहीं दबाइए…..
3. कल हमने एक घंटे तक नारे लगाए, लेकिन आपने हाउस बंद नहीं किया…..

अन्य शब्द :
दादागिरी, गिरगिट की तरह रंग बदलना, गीदड़, गधा, गद्दार, गाली-गलौच, गुंडागर्दी, गुण्डे, नौटंकी, पपेट, पाप, पालतू तोते, पूंछ हिलाना, पैसा खाना, फर्जीवाड़ा, बकवास, बदमाश, लुच्चे, लफंगे, बदमाश आदि आदि।

असंसदीय शब्दों का कार्यवाही वृत्तांत से निकाला जाना :-
किसी सदस्य को किसी व्यक्ति के विरुद्ध कुछ भी कह देने या मानहानिकारक या अशिष्ट या अभद्र या असंसदीय शब्दों का प्रयोग करने की अनिर्बंधित (Unrestricted) स्वतंत्रता नहीं है। लोकसभा के प्रक्रिया तथा कार्य संचालक विषयक नियम 381 के अनुसार, “सदन की कार्यवाही से निकाल दिया गया भाग तारांकन द्वारा चिन्हित किया जाएगा और कार्यवाही में एक व्याख्यात्मक टीका (Explanatory Footnote) इस प्रकार डाली जाएगी: ‘कार्यवाही वृतांत में सम्मिलित नहीं किया गया’।”

निकाले जाने की परिधि में आने वाले शब्द :-
1. मानहानिकारक, अशिष्ट या असंसदीय शब्दों के अलावा पिछले कुछ वर्षों से विश्व की विभिन्न संसदों में कतिपय शब्दों को असंसदीय माना गया है। ऐसा भी हुआ है जब अध्यक्षपीठ ने ऐसे शब्दों के प्रयोग का विरोध किया है और संबंधित सदस्य से उन शब्दों को वापस लेने के लिए कहा है। यदि ऐसे शब्दों को वापस नहीं लिया जाता है तो अध्यक्षपीठ उनको कार्यवाही वृतांत से बाहर निकालने का आदेश दे सकते हैं।

2. इसी प्रकार, किसी सदस्य द्वारा किसी व्यक्ति के विरुद्ध आरोप लगाते समय नियमों का उल्लंघन करते हुए प्रयुक्त शब्दों या अभिव्यक्ति को मानहानिकारक माना जा सकता है और उन्हें कार्यवाही से निकाला जा सकता है। सभा की गरिमा को कम करने वाले अश्लील या अशिष्ट शब्द या अभिव्यक्ति को भी सभा की कार्यवाही से निकाल दिया जाता हैं।
3. कई अवसरों पर, अध्यक्षपीठ ने अपने स्वविवेक से ऐसे शब्दों को भी निकाले जाने का आदेश दिया है जो :-
i. राष्ट्रीय हित के विरुद्ध हों;
ii. किसी अन्य राष्ट्र के साथ मैत्रीपूर्ण संबंधों को बनाए रखने पर प्रतिकूल प्रभाव डालने वाले हों;
iii. मित्र राष्ट्रों के प्रमुखों सहित गणमान्य व्यक्तियों के सम्मान के विरुद्ध हों;
iv.राष्ट्रीय भावना को ठेस पहुंचा सकते हों या समुदाय के किसी वर्ग की धार्मिक संवेदनशीलता को प्रभावित कर सकते हों;
v. सेना को बदनाम कर सकते हों;
vi.अनुचित या आपत्तिजनक हों;
vii. सभा को हास्यास्पद बना सकते हों;
viii. अध्यक्षपीठ, सभा या उसके सदस्यों की गरिमा को कम करते हों।

कभी-कभी शब्द जिस संदर्भ में प्रयुक्त होते हैं, वह भी उसे असंसदीय बना सकते हैं। उदाहरणार्थ- सदस्यों द्वारा बार-बार ‘बाजार अर्थव्यवस्था’, ‘शेयर बाजार’ या ‘बाजार में आवश्यक वस्तुओं की कमी’ का उल्लेख किया जाता है परंतु सभा को ‘बाजार’ के रूप में संदर्भित करना असंसदीय माना गया है।

सभा के अंदर और सभा के बाहर प्रयुक्त असंसदीय शब्दों को बाहर निकाले जाने की प्रक्रिया :-
(क) उसी दिन सभा के भीतर:-
1. पीठासीन अधिकारी किसी सदस्य द्वारा बोले गए कतिपय शब्दों को मानहानिकारक, अशिष्ट या असंसदीय या अभद्र मान सकते हैं और अपने विवेक से ऐसे शब्दों को तत्काल निकाले जाने का आदेश दे सकते हैं।

2. किसी सदस्य या मंत्री द्वारा आपत्तिजनक शब्दों की ओर अध्यक्षपीठ का ध्यान आकर्षित करने पर अध्यक्षपीठ उन्हें निकाले जाने का आदेश दे सकता/सकती है।

3. सभा पटल अधिकारी द्वारा आपत्तिजनक शब्दों के प्रयोग की ओर अध्यक्षपीठ का ध्यान आकर्षित किए जाने पर भी अध्यक्षपीठ उन शब्दों को निकाले जाने का आदेश दे सकता/सकती है।

(ख) सभा के बाहर :-
1. ऐसी स्थितियां हो सकती हैं जिनमें अध्यक्षपीठ अपनी इच्छा से या किसी सदस्य, मंत्री या पटल अधिकारी द्वारा उसका ध्यान किसी आपत्तिजनक शब्दों की ओर आकर्षित किए जाने पर यह टिप्पणी करता/ करती है कि वह अक्षरशः कार्यवाही- वृत्तांत को पढ़ने के पश्चात् निर्णय लेगा/ लेगी। ऐसी परिस्थितियों में संबन्धित अक्षरशः कार्यवाही- वृत्तांत पीठासीन अधिकारी के समक्ष प्रस्तुत किया जाएगा और उसे पढ़ने के पश्चात् आपत्तिजनक शब्दों को निकालने का आदेश दिया जा सकेगा।

2. ऐसी स्थितियां भी आ सकती हैं जब सभा में बोले गए कतिपय शब्दों पर कोई आपत्ति नहीं की गई हो परंतु बाद में ऐसे शब्दों की ओर किसी सदस्य, मंत्री या सचिवालय द्वारा उन शब्दों के आपत्तिजनक होने को लेकर अध्यक्षपीठ का ध्यान आकर्षित किया गया हो। ऐसी परिस्थितियों में अध्यक्षपीठ अक्षरशः कार्यवाही को पढ़ने के पश्चात् ऐसे शब्दों को निकालने का आदेश दे सकते हैं।

निष्कर्ष:- सभा के अंदर वाक् – स्वातंत्र्य होने के बावजूद संसद सदस्य वाद-विवाद में प्रयोग किए जाने वाले शब्दों/वाक्यांशों के संबंध में सभा के नियमों के अध्यधीन हैं। उनसे आशा की जाती है कि वे संसदीय भाषा का प्रयोग करके संसद की गरिमा और परंपराओं को बनाए रखें, उसे पोषित करें तथा उनके द्वारा प्रयुक्त भाषा के संबंध में संसदीय शिष्टाचार के कतिपय मानदंडों का पालन करें ताकि उच्च स्तर का संसदीय वाद – विवाद बनाए रखा जा सके।

विनय सिंह बैस, लेखक

(विनय सिंह बैस)
अनुवाद अधिकारी
लोकसभा सचिवालय

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